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न्यूज क्लिपिंग्स् | विशेष पैकेज की विशेष राजनीति- अरविन्द मोहन

विशेष पैकेज की विशेष राजनीति- अरविन्द मोहन

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published Published on Mar 19, 2013   modified Modified on Mar 19, 2013
जनसत्ता 19 मार्च, 2013: दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंच कर बिहार के लिए विशेष पैकेज की मांग दोहराने से पहले नीतीश कुमार इस नाम पर पर्याप्त राजनीति कर चुके थे। फिर भी एक भारी भीड़ जुटा कर उन्होंने जो भाषण दिया उसकी गूंज राजधानी के राजनीतिक और मीडिया के हलकों में देर तक सुनी जाती रही तो इसकी साफ वजह सिर्फ उनकी होशियारी या सफलता नहीं है। असल में इस आयोजन से उनके और मुल्क की राजनीति के लिए कई नई राहें खुलती हैं। सबसे पहला काम तो यही हुआ कि एक महीने के अंदर तीन बार दिल्ली आकर दो अभिजात सभाओं और चार भाषणों के जरिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पक्ष में जो गुब्बारा फुलाया था उसमें सूई चुभ गई। नीतीश कुमार ने यह भी खयाल नहीं किया कि मोदी और भाजपा ने उनकी रैली से टकराव या तुलना टालने के लिए मुंबई की अपनी सभा टाल दी थी और एक दिन पहले ही बिहार भाजपा ने प्रस्ताव पास करके अधिकार यात्रा का समर्थन किया था।

नीतीश कुमार ने इस रैली के सहारे दो-तीन स्तर पर काम निकाला है। एक तो बिहारी अस्मिता को जगाने का प्रयास किया है। यह गुंजाइश नहीं है कि इस सवाल को विस्तार से देखा जाए। पर रैली के लिए दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के बिहारी लोगों की भागीदारी कराने का प्रयास बडेÞ पैमाने पर हुआ। सिर्फ प्रतिनिधिमंडल भेजने और लिखत-पढ़त में विशेष राज्य का दर्जा देने की बात जब आगे नहीं बढ़ी और एक पीएचडी के शोध प्रबंध से सामग्री उठाने का आरोप लग गया तब शिवानंद तिवारी या जिस किसी ने इस मांग को जनता के बीच ले जाने और दस्तखत अभियान चलाने की शुरुआत की उसने भी इतने लाभ या इस मुद््दे के प्रभाव का अंदाजा नहीं किया होगा।

इस मांग के सहारे नीतीश ने बिहार के सभी अन्य दलों को बाडेÞ के दूसरी तरफ कर दिया है। जो लालू प्रसाद प्रदेश विभाजन के सबसे प्रबल विरोधी थे, आज इस रैली का विरोध करके खुद को खलनायक जैसा बना चुके हैं। और भाजपा ने तो विभाजन किया ही था। अगर उसने जरा भी इधर-उधर किया तो अगले चुनाव के समय उसे खलनायक बनाने में कितनी देर लगनी है।

कांग्रेस ने वित्तमंत्री के बजट भाषण या प्रधानमंत्री के ट्वीट या फिर राज्यपाल बदलने का फैसला करके अगर बिहार हितैषी होने का संकेत दिया तो नीतीश ने भी उसकी तरफ गरमाहट दिखाई है। इससे आगे क्या समीकरण बनेंगे इस बारे में ज्यादा अटकल लगाने की जरूरत नहीं है। पर इतना साफ है कि नीतीश कुमार अभी यूपीए और राजग के बीच की खाली जमीन पर ही नहीं, तीसरे मोर्चे की भविष्य की राजनीति के खेल में भी अपना पांव फंसाए रखना चाहते हैं। उन्होंने रैली में विकास के मॉडल और 2014 के चुनाव में अपनी भूमिका को रेखांकित करके एक साथ कई तरफ सिगनल भेजे हैं। भारत का भावी नेता कैसा हो यह बात वे ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ को दिए इंटरव्यू से लेकर रामलीला मैदान तक बताते हैं तो जाहिर तौर पर खुद को सबसे उपयुक्त और मोदी जैसों को बेकार बताने के लिए ही करते हैं।

पर विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को दफ्तर और लिखा-पढ़ी से हटा कर जनता के बीच ले जाकर उन्होंने एक बड़ा काम किया है। जिस गाडगिल फार्मूले से विशेष राज्य का दर्जा तय होता है वह खुद ही शक के दायरे में आ गया है। जब लगातार  विकास के सारे पैमानों पर पिछड़ा रहने वाला और पिछडेÞपन का पर्याय बन गया बिहार विशेष केंद्रीय मदद का हकदार नहीं होगा तो ऐसा पैमाना किस काम का है। इतना ही नहीं है। नीतीश का तेज विकास का तर्क या दावा उन्हें एक मायने में यह मांग उठाने से रोकता लगता है तो ठीकठाक काम का रिकार्ड उनके दावे को मजबूत भी बनाता है।

यह मांग वे बखूबी कर सकते हैं कि हम अपने भर प्रयास कर रहे हैं, अब केंद्र की मदद हो तो ज्यादा तेजी से काम आगे बढेÞगा। पर अगर उन्हें देश के अन्य पिछड़े राज्यों और इलाकों की भी चिंता है और उन्हें अपनी लड़ाई में वे भागीदार बनाना चाहते हैं तो निश्चित रूप से यह तैयारी करनी चाहिए थी कि बुंदेलखंड, तेलंगाना, झारखंड जैसे इलाकों के कुछ प्रतिनिधियों को मंच पर प्रस्तुत करते।

पर जब आयोजकों में अपने-अपने की होड़ लगी हो और आखिरी दिन तक दिल्ली के अखबारों को ढंग की एक प्रेस विज्ञप्ति भी नहीं मिली तो इतनी तैयारी और सोच की उम्मीद करना गलत होगा। नीतीश पर मीडिया मैनेज करने का आरोप लगता है, पर दिल्ली में उनका मीडिया प्रबंधन देख कर दया आ रही थी। कोई बात ढंग से और एक स्रोत से आ रही हो यह लगा ही नहीं। हां, यह जरूर लगा कि पटना की रैली के बाद दिल्ली की रैली नीतीश सरकार की विफलताओं और लोगों की बढ़ती नाराजगी को ढकने का जरिया जरूर बन गई है। साथ ही यह एक व्यक्ति-केंद्रित पार्टी को सक्रिय करने का कारण भी बनी, जो चुनावी वर्ष में लाभकर है।

सत्रह मार्च की जद (एकी) की रैली के काफी पहले से दिल्ली में बिहार का शोर मचना शुरू हो चुका था। कई गोष्ठियां बिहार के पिछडेÞपन को लेकर हो रही थीं जिनसे रैली के विषय के पक्ष में हवा बनाने का प्रयास हो रहा था। यह कहना मुश्किल है कि रैलियों और जुलूस की संस्कृति से लगभग ऊब चुके दिल्लीवासियों को इससे कितना फर्क पड़ा। पर यह भी तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि आयोजक दिल्ली में रह रही बिहारी आबादी के एक बड़े हिस्से की भागीदारी की उम्मीद करके ही सारी तैयारियां कर रहे थे।

रैली में काफी लोग आए, हालांकि इतना कहा   जा सकता है कि पटना के गांधी मैदान जैसी रैली संभव नहीं थी न दिल्ली बसे बिहारियों की बहुत उत्साहपूर्वक भागीदारी ही। पर बिहार की लड़ाई को दिल्ली लाने और एक हद तक खुला खेल खेलने का श्रेय तो नीतीश कुमार को देना ही होगा। अभी तक एक राज्य के किसी मुद््दे पर दिल्ली के तख्त के सामने इस तरह बात रखने का चलन नहीं था। तेलंगाना के नेता जरूर बार-बार विरोध दिखाते हैं, पर इतनी अधिक उपस्थिति के साथ नहीं। और यह भी हुआ है कि इस बहाने केंद्र पर दबाव बने और नए राजनीतिक समीकरण बनें, पर भाजपा को भी नाराज न किया जाए। सत्रह मार्च को ही नरेंद्र मोदी भी मुंबई में एक कार्यक्रम करने वाले थे। उसे रोक दिया गया- टकराव टालने का संदेश देने से लेकर मोदी और नीतीश की खुली प्रतियोगिता न दिखाने के उद््देश्य से भी। फिर अरुण जेतली की ही पहल पर बिहार भाजपा ने रैली के बारे में फिकरे कसना छोड़ कर इसकी मांग का समर्थन करने का प्रस्ताव पास किया। भाजपा के नेता इस सवाल पर बाड़ के दूसरी तरफ दिखना नहीं चाहते थे।

नीतीश कुमार के लिए इस रैली की अहमियत सिर्फ यह नहीं थी कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग को एक बड़ा मुद््दा बनाया जाए। वे इसी बहाने बिहारी लोगों की अपनी अस्मिता का सवाल भी उठा रहे हैं। दिल्ली में रैली करके यहां रह रहे बिहारियों की भागीदारी का प्रयास करना उसी का नतीजा है। पर इस रैली के बहाने वे संगठन और अगले चुनाव की तैयारी का खेल भी खेल रहे हैं।

यह मुद््दा किसने उठाया, किसने पहल की, इन बातों की परवाह न करते हुए सारा जिम्मा अपने एक प्रिय सांसद और उनकी टोली पर डाल कर वे संगठन के भीतर साफ संदेश दे रहे हैं। बाकी लोगों के लिए आदमी जुटाने का काम रैली की तैयारी भी है और अगले चुनाव के लिए टिकट का जुगाड़ भी। अगर भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ना पड़ा तो काफी सीटें खाली हैं, वरना ज्यादातर सांसदों के भी टिकट कटने के ही लक्षण हैं। अभी लगभग आधे सांसद किसी न किसी नोटिस पर हैं।

रैली के लिए भले भाजपा से मुंबई की सभा रोकने को कहा गया हो या भाजपा ने खुद यह फैसला किया हो, पर जद (एकी) और कांग्रेस की नजदीकियां बढ़ने के संकेत देखने के लिए अब दूरबीन की जरूरत नहीं है। यह रैली जद (एकी) की थी और भाजपा का इससे कोई लेना-देना नहीं था, पर जिस तरह से वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने बजट भाषण में पिछडेÞ क्षेत्र के पैमाने ही बदलने के संकेत दिए और नीतीश कुमार ने बिना देर किए उनको बधाई दी उसे एक नए रिश्ते की शुरुआत भी माना जा रहा है। नीतीश कुमार यह घोषित कर चुके हैं कि जो कोई भी बिहार को विशेष पैकेज देगा उसे उनका बिना शर्त समर्थन मिलेगा। वैसे उन्होंने जब यह बयान दिया तो एक दिन पहले ही ममता बनर्जी ने यूपीए छोड़ा था। उस अवसर पर नीतीश कुमार ने उन्हें बधाई दी थी। दो दिन में ऐसे दो बयान देने के लिए उनकी आलोचना भी हुई थी।

अब अगर कांग्रेस और जद (एकी) अपनी-अपनी राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से पास आते दिख रहे हैं तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के बाद जद (एकी) के लिए अपना मुसलिम वोट बचाना मुश्किल हो जाएगा। और कांग्रेस प्रदेश में बिना सहारे के खड़ी भी नहीं हो सकती।

और इस चक्कर में अगर बदहाल बिहार केंद्र से कोई पैकेज पाकर अपनी हालत सुधारने का प्रयास करे तो इसमें किसे शिकायत होगी। चुनावी गणित या सरकार के गठन में समर्थन का हिसाब ऐसे खेल कराते रहे हैं। बिहार आज जिस ऊंची विकास दर का दावा करता है वह तो किसी विशेष पैकेज की मांग का आधार नहीं बनती। लेकिन उसकी असली स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ‘शिक्षा मित्र’ जैसी व्यवस्था के तहत अपना सारा कैरियर दांव पर लगाने वाले लोगों पर डंडे चलवाने का फैसला शान बढ़ाने के लिए तो नहीं ही लिया जा रहा है। आज भी विकास के लगभग सभी पैमानों पर बिहार सबसे पीछे ही है। अब यह जरूर है कि शिक्षक कम पैसे पर काम करे तो मुख्यमंत्री क्यों शान से रहे, अधिकारी क्यों नहीं कुछ सुविधाएं छोड़े। पर स्थिति बदलने के लिए जरूर बाहरी मदद और पैसों की जरूरत है।

जब बिहार का शासन और उसके लोग अपना पिछड़ापन दूर करने के लिए तत्पर न लगें तब की बात और है। पर जब सरकार तत्पर दिखती है, अपने राजस्व की सीमा दिखाई देती है और बाहर से आने वाले पैसों का प्राय: सदुपयोग ही दिखता है तब उसे जरूर नया पैकेज मांगने का हक है। संयोग से वह अवसर बनता भी दिखता है, राजनीतिक स्थितियां भी उसका आधार तैयार कर रही हैं। जिस काम के लिए केंद्र का कोई जिम्मेवार नेता वक्त देने को तैयार नहीं था उसके लिए नियम बदलने की बात खुद से की जा रही है तो यह अच्छा ही लक्षण है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40953-2013-03-19-05-03-20


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