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न्यूज क्लिपिंग्स् | विश्वास जीते बिना हल नहीं- सुदीप श्रीवास्तव

विश्वास जीते बिना हल नहीं- सुदीप श्रीवास्तव

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published Published on May 27, 2013   modified Modified on May 27, 2013
दरभा घाटी में जिस तरह नक्सलियों ने कार्रवाई की है, उसके कई आयाम दिख रहे हैं।

इससे पहले राजनेताओं पर इतने बड़े पैमाने पर नक्सलियों ने आक्रमण नहीं किया था, फिर इस घटना ने नक्सलियों की रणनीति को भी उलझा दिया है।

नक्सल विरोधी आंदोलन के अगुवा रहने के कारण महेंद्र कर्मा की हत्या की वजह तो दिखती है, पर प्रत्यक्ष रूप से कोई रिश्ता नहीं होने के बाद भी नंद कुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल की हत्या समझ से परे है।

इस घटना ने दलगत राजनीति को भी बेनकाब किया है। मुख्यमंत्री रमन सिंह की विकास यात्रा में सुरक्षा की पूरी व्यवस्था थी, पर कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में यह नहीं दिखी।

ऐसे इलाकों से अमला गुजरने से पहले एक 'रोड क्लियरिंग पार्टी' चलती है, साथ ही सभी गाड़ियां इकट्ठा न चलकर सुरक्षा दायरे में एकाध किलोमीटर के अंतर से चलती है, जिसके पालन की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। लेकिन इसका यहां पालन नहीं हुआ।

इस वारदात ने नक्सलियों और सरकार के अघोषित युद्ध में मारे जा रहे निर्दोष लोगों की स्थिति के खिलाफ 'जीरो टॉलरेंस' की मांग तेज कर दी है। एक विकल्प के रूप में अगर नक्सलियों के खिलाफ बड़ी सशस्त्र कार्रवाई हुई, तो उन आदिवासियों का क्या होगा, जिनके कंधे के इस्तेमाल का आरोप सुरक्षा बल नक्सलियों पर लगाते हैं।

छत्तीसगढ़ के जंगलों मे रहने वाले करीब दस हजार सशस्त्र नक्सलियों के खिलाफ अगर सेना उतार दी जाए और यहां बसने वाले लाखों आदिवासियों में से कई बेगुनाहों की मौत होती है, तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? पिछले दो दशकों में आदिवासियों का रुझान नक्सलियों की तरफ बढ़ा, तो इसकी वजह भी दशकों से रहने वाली सरकारों की नीतिगत विफलता ही है।

दरअसल, आदिवासियों के बीच सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ जो असंतोष है, उसी का फायदा नक्सली उठाते हैं। बस्तर का ही उदाहरण लें, तो 1967 में यहां के राजा, जिन पर आदिवासियों की अगाध श्रद्धा थी, की हत्या पुलिस मुठभेड़ के नाम पर कर दी गई।

यह वही राजा थे, जो अपनी क्षेत्रीय पार्टी के दम पर बस्तर से कई विधायक जितवा लेते थे। नेतृत्वविहीन आदिवासी समाज को राजा की मौत के बाद 80 के दशक में आंध्र प्रदेश से आए नक्सलियों ने साधना शुरू किया। उन्होंने वनोपज संबंधी मजदूरी बढ़वाई और सरकारी अमला द्वारा आदिवासियों का हो रहे शोषण रुकवाए। नतीजतन यहां नक्सलवाद की जड़ें गहरी होती गईं।

हालांकि जिस तरह किसी भी संगठन या सरकार के लगातार बने रहने से असंतोष पनपता है, नक्सली भी इससे अछूते नहीं रहे। उन पर भी अपनी सत्ता को आतंक और ताकत के भरोसे चलाने का आरोप लगा। 90 के दशक के आखिर में आदिवासी समाज के एक हिस्से का नक्सलियों से मोहभंग होने की बात सामने आई।

2005 में जब प्रदेश की भाजपा की सरकार थी और जिस समय बस्तर में दो बड़े औद्योगिक घरानों ने लौह अयस्क खदानों और स्टील प्लांट के लिए सरकार के साथ समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए, लगभग उसी समय महेंद्र कर्मा के नेतृत्व में सलवा जुड़ूम की शुरुआत हुई।

कथित रूप से यह कार्यक्रम आदिवासियों के दीर्घकालीन हितों के लिए था, लेकिन इन सबका इसलिए अपेक्षित लाभ नहीं मिल सका, क्योंकि बस्तर में विश्वास बहाली की तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया।

आज अर्धसैनिक बल विश्वास बहाली के लिए इलाकों के युवाओं के साथ फुटबॉल मैच खेलते हैं, महिलाओं के बीच साड़ियां बांटते हैं, बच्चों को बाहर घूमने के लिए भी भेजते हैं। लेकिन अगले ही पल यह विश्वास टूट जाता है, क्योंकि पुलिस या अर्धसैनिक बल की गोली से इन्हीं आदिवासियों का कोई अपना निर्दोष मारा जाता है।

सवाल विकास के मॉडल का भी है। अभी तक तय नहीं हो सका है कि प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न इन इलाकों में कंपनियां स्थापित कर आदिवासियों को बेदखल कर दिया जाए, या उनके संसाधनों को अक्षुण्ण रखते हुए विकास कार्यों में उनकी सहभागिता बढ़ाई जाए।

वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले में यह कहा था कि जंगल में होने वाले खनन कार्यों में स्थानीय लोगों को शामिल करते हुए लाभ में उन्हें 20 फीसदी हिस्सेदारी दी जाए। वर्ष 2010 में संसद में पेश किए गए एक प्रस्ताव में भी आदिवासियों को खनन कार्यों के लाभ में 26 फीसदी हिस्सेदारी की बात कही गई थी।

पर निहित स्वार्थ के कारण ऐसी योजनाएं धरातल पर नहीं उतरतीं। सरकार इसलिए भी उदासीन दिखती हैं, क्योंकि उसकी सफलता का एकमात्र पैमाना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) मान लिया गया है। इस पर चर्चा नहीं होती कि कानून-व्यवस्था पर वह कितनी विफल है।

छत्तीसगढ़ में ही मीडिया में रमन सरकार की खूब तारीफ होती रही है, लेकिन राज्य में प्रशासन और कानून व्यवस्था की हालत कितनी खस्ता है, यह इस नक्सली हमले से ही स्पष्ट हो रहा है, जहां एक घोषित राजनीतिक कार्यक्रम को सुरक्षा देने में सरकार विफल रही।

( लेखक सर्वोच्च न्यायालय में वकील और छत्तीसगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता हैं)


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/plan-against-naxalism/


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