Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | शरिया अदालत का बेतुका प्रस्ताव - ए. सूर्यप्रकाश

शरिया अदालत का बेतुका प्रस्ताव - ए. सूर्यप्रकाश

Share this article Share this article
published Published on Jul 23, 2018   modified Modified on Jul 23, 2018
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यानी एआईएमपीएलबी द्वारा देश के प्रत्येक जिले में शरिया अदालतों की स्थापना के प्रस्ताव से एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। इसने सेक्युलर राज्य के बुनियादी तत्वों को लेकर उस बहस को भी पुनर्जीवित कर दिया है, जो सात दशक पहले संविधान सभा में शुरू हुई थी। ऐसा लगता है कि संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के विरोध को लेकर डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे वरिष्ठ विधिवेत्ताओं ने जो आशंका जताई थी, अब उसकी प्रेतछाया हमें फिर से डराने आ धमकी है। हाल के वर्षों का सियासी घटनाक्रम और कांग्र्रेस सहित तमाम राजनीतिक दलों द्वारा अपनाया गया तुष्टीकरण वह चलन है, जिसके बीज आजादी के तुरंत बाद नेहरूवादी प्रतिष्ठानों ने भारतीय राजव्यवस्था में बोए थे। संविधान सभा की बैठकें 9 दिसंबर, 1946 से शुरू हुई थीं। इसके आठ महीने बाद भारत को स्वतंत्रता मिली और साथ ही पाकिस्तान नाम के इस्लामिक देश की स्थापना हुई। धर्म के नाम पर देश का विभाजन होने के दो साल बाद ही संविधान सभा के मुस्लिम सदस्य (जिन्होंने सेक्युलर भारत में रहना ही मुनासिब समझा था) अलग निर्वाचन की मांग करने के साथ ही समान नागरिक संहिता की राह में अवरोध पैदा करने में सफल रहे। समान नागरिक संहिता जैसे संविधान के खास प्रावधान का मसौदा तैयार करने के खिलाफ वह तबका जिस तल्खी के साथ लामबंद हुआ, उसने आंबेडकर सहित संविधान सभा के तमाम सदस्यों को हैरत में डाल दिया। इस सिलसिले में 23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में हुई बहस गौर करने लायक है।

एआईएमपीएलबी देशभर में एक अलग विधिक एवं न्यायिक तंत्र बनाने की तैयारी में है, जो दीवानी मामलों से जुड़े मुकदमों की सुनवाई करेगा। इस तरह के उपक्रम यह बताते हैं कि आजादी के वक्त जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों की देश आज कितनी बड़ी कीमत चुका रहा है। 23 नवंबर, 1948 को जब सुनवाई के लिए यह मामला संविधान सभा के पास पहुंचा तो मोहम्मद इस्माइल साहिब, नजीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम ने इस अनुच्छेद का पुरजोर विरोध किया। इसका मर्म यह था कि राज्य सभी भारतीय नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाएगा। महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने दावा किया कि जहां तक मुस्लिमों का सवाल है तो उत्तराधिकार, विरासत, विवाह और तलाक के उनके रीति-रिवाज हिंदुओं से सर्वथा भिन्न् हैं, जो मूल रूप से उनके धर्म से तय होते हैं। अन्य मुस्लिम सदस्यों ने भी उनके सुर से सुर मिलाया। मोहम्मद इस्माइल साहिब चाहते थे कि अनुच्छेद में यह प्रावधान किया जाए कि कोई भी समूह या समुदाय अपने पर्सनल लॉ छोड़ने के लिए बाध्य नहीं होगा। उन्होंने दावा किया कि समान नागरिक संहिता से सौहार्द की भावना बिगड़ेगी, जबकि 'यदि लोगों को उनके पर्सनल लॉ पालन करने की अनुमति होगी तो उनमें किसी तरह का विद्रोह या असंतोष नहीं पनपेगा। पोकर साहिब बहादुर का कहना था कि यह अनुच्छेद 'एक दमनकारी प्रावधान है जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। महबूब अली बेग ने तो सेक्युलरिज्म की बेहद पेचीदा व्याख्या कर डाली। उन्होंने कहा कि सेक्युलर राज्य में विभिन्न् समुदायों से जुड़े नागरिकों के पास अपनी जिंदगी व अपने पर्सनल कानूनों का पालन करने का अधिकार होता है। उन्होंने दावा किया कि यह बहुसंख्यकों का दायित्व है कि वे प्रत्येक अल्पसंख्यक के धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करें।

इस पर केएम मुंशी ने कहा, 'किसी भी मुस्लिम देश में प्रत्येक अल्पसंख्यक के पर्सनल लॉ को ऐसा दर्जा नहीं दिया जाता कि वे समान नागरिक संहिता के पारित होने में बाधा बन जाएं। तुर्की या मिस्र की ही मिसाल लें तो इन देशों में किसी भी अल्पसंख्यक को ऐसे अधिकारों की इजाजत नहीं। केएम मुंशी ने इस दावे की हवा निकाल दी कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ को वैसा ही सम्मान दिया जाता है। अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने भी मुस्लिम सदस्यों के दावों को चुनौती दी। उन्होंने पूछा कि क्या ये दलीलें देश के एकीकरण को प्रोत्साहित करेंगी या फिर इस देश में हमेशा कुछ समुदायों के बीच मुकाबले का सिलसिला चलता रहेगा?

यह ध्यान रहे कि जब अंग्रेज पूरे देश के लिए एक आपराधिक कानून लाए थे तो मुस्लिमों ने उसका कोई विरोध नहीं किया था। उन्होंने अन्य समान कानूनों पर भी कोई एतराज नहीं जताया था। उन्हें लगा कि अगर इस देश में कोई समुदाय ऐसा है जिसने वक्त के साथ हरेक बदलाव को आत्मसात किया है तो वह बहुसंख्यक वर्ग ही है। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि उन्हें यह सुनकर बहुत हैरानी हुई कि मुस्लिम हमेशा से अपने पर्सनल कानूनों का पालन करते आए हैं। उन्हें यह अचंभा इसलिए हुआ, क्योंकि समान अपराध संहिता, समान संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम जैसे कानूनों के अस्तित्व में होने के बावजूद वे ऐसा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पहले से ही एक समान नागरिक संहिता विद्यमान थी और उसके दायरे का विस्तार शादी-ब्याह और उत्तराधिकार तक करना भर शेष था। इस पर मुस्लिम सदस्यों ने कहा कि इनमें से तमाम प्रथाएं कुरान से ली गई हैं और तकरीबन 1350 वर्षों से चलन में हैं। मुसलमान इन प्रथाओं का पालन करते आए हैं और राज्य की सभी संस्थाएं इन्हें मान्यता देती हैं। डॉ. आंबेडकर ने भी इस दावे को चुनौती दी।

पाकिस्तान के नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रांत का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि 1935 तक वहां उत्तराधिकार एवं अन्य मामलों में हिंदुओं के कानून ही प्रचलन में थे। इसी तरह मालाबार क्षेत्र में प्रचलित मारुमक्कट्टयम नाम की मातृसत्तात्मक प्रथा का न केवल हिंदू, बल्कि मुसलमान भी पालन करते आए हैं। मुस्लिम सदस्यों के विरोध को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे बयानों का कोई तुक नहीं कि 'मुस्लिम कानून प्राचीनकाल से ऐसे हैं, जिनमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

ऐसे में सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने की जरूरत है, जो सभी धर्मों के लोगों पर लागू हो। डॉ. आंबेडकर ने यह भी कहा था कि मैं आश्वस्त हूं कि कोई भी मुस्लिम इस बात की शिकायत नहीं करेगा कि नागरिक संहिता के निर्माताओं ने मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाई। इस चर्चा पर विराम लगाते हुए नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि संविधान सभा अपने वक्त से आगे की सोच रही है। उन्होंने कहा कि इसमें संदेह नहीं कि एक वक्त ऐसा आएगा, जब नागरिक संहिता समान होगी। एआईएमपीएलबी के मौजूदा फैसले से स्पष्ट है कि फर्जी सेक्युलरवाद की जवाहरलाल नेहरू की तृष्णा ने मुसलमानों को अपनी अलग भावनाएं बरकरार रखने के लिए प्रेरित किया। इससे राष्ट्रीय एकीकरण भी प्रभावित हुआ। भारत की भावी पीढ़ियां इसकी कीमत चुकाएंगी।

(लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


https://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-absurd-offer-of-sharia-court-1823792


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close