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न्यूज क्लिपिंग्स् | शहरीकरण की विसंगतियां--- रमेश कुमार दूबे

शहरीकरण की विसंगतियां--- रमेश कुमार दूबे

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published Published on Jul 8, 2016   modified Modified on Jul 8, 2016

शहरीकरण को लेकर सरकार का नजरिया यह है कि इस पर सियापा करने के बजाय इसे मौके के रूप में देखा जाना चाहिए। उसके मुताबिक शहरों में गरीबी दूर करने की ताकत होती है और हमें इस ताकत को और आगे बढ़ाना चाहिए ताकि आर्थिक समृद्धि का स्वत: प्रसार हो।


सुख-सुविधाओं की मौजूदगी के चलते शहर सदा से मनुष्य के आकर्षण के केंद्र रहे हैं। आज की तारीख में तो ये विकास के इंजन बन चुके हैं। दरअसल, ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरों में लोगों की ज्यादा आमदनी और वस्तुओं का अधिक उपभोग जहां ‘पुल फैक्टर' का काम करता है वहीं गांवों की गरीबी-बेरोजगारी ‘पुश फैक्टर' का। ये दोनों मिल कर शहरों में भीड़ बढ़ा रहे हैं। चूंकि शहरों में लोगों की आमदनी ज्यादा होती है इसलिए वस्तुओं और सेवाओं की खपत बढ़ती है जिसका नतीजा अंतत: कंपनियों की अधिक कमाई और देश के जीडीपी की तेज रफ्तार के रूप में सामने आता है। लेकिन शहरीकरण को विकास का पर्याय मानने से पहले शहरी संरचना और और उसकी वैश्विक प्रवृत्ति का संक्षिप्त परिचय अपेक्षित है।


शहर मानव की सबसे जटिल संरचनाओं में से एक है। यह एक ऐसी यात्रा है जिसका कोई अंत नहीं है। शहर में व्यवस्था और अव्यवस्था साथ-साथ चलते हैं। आमतौर पर शहरों को आर्थिक विकास का इंजन माना जाता है क्योंकि शहरीकरण अनिवार्य रूप से औद्योगीकरण से जुड़ा है। आज दुनिया की आधी आबादी शहरों में रह रही है और अनुमान है कि 2050 तक यह अनुपात बढ़ कर सत्तर फीसद हो जाएगा। उस समय विकसित देशों की चौदह फीसद और विकासशील देशों की मात्र तैंतीस फीसद आबादी शहरी सीमा से बाहर होगी।


शहरीकरण की रफ्तार विकासशील देशों में सबसे तेज है। यहां हर महीने पचास लाख लोग शहरों में आ जाते हैं और विश्व में शहरीकरण में वृद्धि के पंचानबे प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। शहरीकरण के संदर्भ में एक नई प्रवृत्ति यह उभरी है कि बड़े-बड़े महानगर आपस में मिल कर बृहत महानगर या ‘मेगा रीजन' बना रहे हैं। उदाहरण के लिए, भारत में दिल्ली-गाजियाबाद-नोएडा-गुड़गांव-फरीदाबाद, जापान में नगोया-ओसाका-क्योटो और चीन में हांगकांग-शेनजेन-ग्वांझाऊ। ये वृहत महानगर देशों की तुलना में संपदा की चालक-शक्ति बन कर उभरे हैं। उदाहरण के लिए, चोटी के पच्चीस शहरों के खाते में दुनिया की आधी संपत्ति आती है। भारत और चीन के पांच सबसे बड़े महानगर इन देशों की आधी संपदा रखते हैं।


देखा जाए तो शहरीकरण कई कारकों के सम्मिलित प्रभाव का परिणाम है, जैसे भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या वृद्धि, ग्रामीण-शहरी प्रवास, राष्ट्रीय नीतियां, आधारभूत ढांचा, राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां। 1990 के दशक में विकासशील देशों में शहर ढाई प्रतिशत वार्षिक की गति से बढ़ रहे थे, लेकिन इसके बाद उदारीकरण, भूमंडलीकरण ने विकासशील देशों में शहरीकरण को पंख लगा दिए। विशेषज्ञों के मुताबिक विकासशील देशों में शहरीकरण की गति तभी धीमी पड़ेगी जब अफ्रीका व एशिया के ग्रामीण बहुल क्षेत्र शहरी केंद्रों में बदल जाएंगे। 2050 तक विकासशील देशों की शहरी जनसंख्या 5.3 अरब हो जाएगी, जिसमें अकेले एशिया की भागीदारी 63 प्रतिशत या 3.3 अरब की रहेगी। 1.2 अरब लोगों के साथ अफ्रीका दुनिया की एक-चौथाई शहरी जनसंख्या का घर होगा।


इसे एक विरोधाभास ही कहेंगे कि विकासशील देशों के विपरीत विकसित देशों की शहरी जनसंख्या में बढ़ोतरी की रफ्तार थमती जा रही है। उदाहरण के लिए, 2005 में इन देशों की शहरी आबादी नब्बे करोड़ थी, जिसके 2050 तक 1.1 अरब पहुंचने की संभावना है। इन क्षेत्रों के कई शहरों में कम प्राकृतिक वृद्धि और प्रजनन क्षमता में ह्रास के चलते कुल जनसंख्या में कमी आएगी। विकासशील और विकसित देशों के शहरीकरण में एक मूलभूत अंतर यह है कि जहां विकसित देशों में उद्योग व सेवा क्षेत्र के विस्तार और व्यापक सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों के कारण शहरी क्षेत्र बेरोजगारी व झुग्गी-झोपड़ियों से मुक्त रहे, वहीं विकासशील देशों में स्थिति इसके विपरीत है।

विकसित देश ऊंची उत्पादकता, संसाधनों की तुलना में कम आबादी, औद्योगीकरण, मशीनीकृत खेती आदि के चलते शहरों में बसी आबादी को रोजी-रोटी मुहैया कराने में सफल हुए, लेकिन विकासशील देशों में ऐसी स्थिति नहीं है। इन देशों में उत्पादक जनसंख्या के प्रवास से गांवों में बुजुर्गों व महिलाओं की संख्या बढ़ी, जिससे कृषि-कार्य बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। यही कारण है कि खाद्यान्न पैदा करने वाले परिवार अब खरीद कर खा रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि विकासशील देशों के अरबों शहरी लोगों की क्षुधापूर्ति कैसे होगी? यह दुखद है कि हमारे नीति नियंता इस सवाल से कन्नी काट रहे हैं। हमें बहुत जल्द इस अनदेखी की कीमत चुकानी होगी। शहरीकरण का यह अर्थ नहीं है कि खाद्य सुरक्षा के तकाजे को ही किनारे कर दिया जाए। लेकिन धीरे-धीरे यही हो रहा है।

भारतीय संदर्भ में शहरीकरण और विकास को देखें तो वे एक दूसरे के पर्याय नजर आते हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत के सौ सबसे बड़े शहरों में देश की महज सोलह फीसद आबादी निवास करती है, लेकिन राष्ट्रीय आय में इन शहरों का हिस्सा तैंतालीस फीसद है। इसीलिए कई विशेषज्ञ देश में शहरीकरण को रफ्तार देने की वकालत करते रहते हैं। वे चीन का हवाला देते हैं जहां की आधी आबादी शहरों में रहती है, जबकि भारत में यह अनुपात महज एक-तिहाई है। उनका तर्क है कि यदि भारत को मांग आधारित विकास दर को बढ़ावा देना है तो उसे तेज शहरीकरण की नीति अपनानी चाहिए। भले ही शहरों को विकास का ‘ड्राइवर' माना जाता हो लेकिन शहरीकरण के स्तर की दृष्टि से भारतीय शहर नकारात्मक तस्वीर पेश करते हैं।

बढ़ती जनसंख्या व घटती सुविधाओं के कारण शहरों की पहचान समस्या-स्थलों के रूप में होने लगी है। बिजली, पानी, सीवर, सड़क और परिवहन प्रणाली के अभाव में सामाजिक असंतोष पनप रहा है। भारतीय शहरों में रहने वाली तीस फीसद आबादी को नगर निगम का पानी नहीं मिलता, इकहत्तर फीसद लोग जहां-तहां कूड़ा-कचरा फेंक देते हैं तथा पचास से सत्तर फीसद मामलों में जल-मल निकास की कोई व्यवस्था नहीं है। शहरीकरण के साथ असमानता, बेरोजगारी, मानव तस्करी, वेश्यावृत्ति तथा नशीली दवाओं के धंधे फलने-फूलने से कानून व्यवस्था को खुली चुनौती मिल रही है। बढ़ती भीड़ ने भारतीय शहरों में रिहाइशी इलाकों की कीमतों में अपूर्व वृद्धि की है। चूंकि शहरों में बढ़ती आबादी को खपाने की क्षमता खत्म हो चुकी है, इसलिए अब ये आसपास के ग्रामीण इलाकों को निगलते जा रहे हैं।

बढ़ते शहरीकरण का सबसे पीड़ादायी पहलू यह है कि जहां एक ओर महानगरों में दड़बेनुमा मकानों में भीड़ बढ़ती जा रही है वहीं दूसरी ओर गांवों-कस्बों के लाखों घरों में ताले जड़े हैं। फिर रोजगार, आय आदि के बेहतर अवसरों के महानगरों तक सिमट जाने और बढ़ते शहरीकरण का परिणाम देश के असंतुलित विकास के रूप में सामने आ रहा है। शहरीकरण के साथ तीसरी समस्या ग्रामीण इलाकों में कार्यशील आबादी में आ रही कमी और खेती-बाड़ी की उपेक्षा के रूप में पैदा हुई है। भारत पनामा, सिंगापुर जैसा कोई छोटा-मोटा देश तो है नहीं, जो अपनी सवा सौ करोड़ आबादी को खाद्यान्न आयात करके खिला सके। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि छोटे शहरों-कस्बों के विकास पर ध्यान देते हुए शहरों को ग्रामीण इलाकों से जोड़ दिया जाए। यह कार्य टिकाऊ, सस्ती व भरोसेमंद सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था कर सकती है। इससे न सिर्फ महानगरों में भीड़भाड़ कम होगी बल्कि शहरों से निकली आमदनी के गांवों में पहुंचने से देश का समावेशी विकास भी होगा।

विश्व बैंक ने भी अपने आकलन में माना है कि लोगों के ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों में आने के लिए यातायात व्यवस्था जितनी सुगम होगी अर्थव्यवस्था को उतना ही फायदा होगा। दरअसल, परिवहन व्यवस्था के सस्ती होने से न सिर्फ लोगों के बीच व्यापार में बढ़ोतरी होती है बल्कि कारोबार की लागत में भी अच्छी-खासी कमी आती है। उदाहरण के लिए, मुंबई की लोकल और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की ईएमयू हर रोज लाखों लोगों को सस्ते आवागमन की सुविधा मुहैया करा कर महानगरों की भीड़ कम करने में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। अगर ये लोग मुंबई व दिल्ली में स्थायी रूप से बस जाते तो हजारों गांवों, कस्बों व छोटे शहरों का समावेशी विकास न होता। लेकिन आवागमन की सस्ती सुविधा दिल्ली-मुंबई तक सिमटी है। इसी को देखते हुए विश्व बैंक ने कहा है कि भारत अपनी अर्थव्यवस्था के कायाकल्प के लिए शहरीकरण से मिले अवसरों को बेहतर तरीके से नहीं भुना पाया है।

इसी का नतीजा है कि शहरीकरण जहां पश्चिमी देशों में विकास का इंजन साबित हुआ वहीं भारत में आवासीय तंगी, भीड़-भाड़, बुनियादी सेवाओं की कमी व पर्यावरणीय समस्याओं की भेंट चढ़ गया। इसका कारण है कि यहां बढ़ते जनदबाव के अनुरूप बुनियादी सुविधाओं, अवसंरचना, आवास आदि के विकास पर ध्यान नहीं दिया गया। इसीलिए विश्व बैंक ने सुझाव दिया है कि शहरों को संचालित और वित्त-पोषित करने के तौर-तरीकों में नीतिगत और संस्थागत स्तर पर सुधार किया जाए। इससे शहरीकरण के लाभदायक नतीजे सामने आएंगे।


स्पष्ट है कि भारत शहरीकरण के मौकों को तभी भुना पाएगा जब वह बढ़ते जनदबाव के अनुरूप बुनियादी सुविधाओं, अवसंरचना, आवास आदि के विकास पर ध्यान दे। स्मार्ट सिटी मिशन इसी दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम है। लेकिन इसके साथ-साथ टिकाऊ, सस्ती व भरोसेमंद सार्वजनिक परिवहन-व्यवस्था पर भी ध्यान देना होगा ताकि शहरीकरण से निकली समृद्धि गांव की पगडंडी तक पहुंच सके।


http://www.jansatta.com/politics/opinion-on-discrepancies-of-urbanization/117062/


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