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न्यूज क्लिपिंग्स् | शिक्षा सुधार की बुनियाद--- जगमोहन सिंह राजपूत

शिक्षा सुधार की बुनियाद--- जगमोहन सिंह राजपूत

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published Published on Feb 16, 2018   modified Modified on Feb 16, 2018
पिछले दो साल से देश की नई शिक्षा नीति बनाने की प्रक्रिया चल रही है। इसके पहले शिक्षा नीति 1968, 1986 और 1992 में पुनर्निर्धारित हुई थी। बड़े परिवर्तन आवश्यक थे, और हुए भी, मगर जो अपेक्षाएं नीतिगत स्तर पर की गर्इं, वे कभी पूरी नहीं हो सकीं। धीरे-धीरे शिक्षा केवल परीक्षा-आधारित कष्टप्रद बोझ बन गई। बोर्ड परीक्षा के अंक-प्रतिशत ही एकमात्र लक्ष्य बन कर रह गए। कक्षाओं तथा स्कूलों में शिक्षक और शिष्य के बीच में जो आत्मीय संबंध सदा के लिए बन जाते थे, वे लगभग तिरोहित हो गए। माता-पिता का विश्वास अध्यापक और सरकारी स्कूल से हट कर ट्यूशन और कोचिंग संस्थाओं की ओर उन्मुख हो गया। हर तरफ प्रतिस्पर्धा की चर्चा होने लगी। व्यक्तित्व विकास, मानवीय मूल्यों को आत्मसात करना, जीवनयापन के कौशल सीखना, स्थानीय पर्यावरण से परिचय, संस्कृति के महत्त्व की समझ, मानवीय संबंधों के महत्त्व से परिचय और उनका सम्मान जैसे तत्त्व अंकों की दौड़ में खो गए।


गांधीजी के अनुसार विद्यार्थी की पाठ्यपुस्तक शिक्षक को ही होना चाहिए। याद तो वही रहता है जो ‘जबानी' सीखा और सिखाया जाता है। पाठ्यपुस्तक में पढ़ा तो बहुत कम ही याद रहता है; ‘बच्चे जो कुछ आंख से ग्रहण करते हैं उसके बजाय कान से सुना हुआ कम मेहनत से बहुत अधिक ग्रहण कर सकते हैं।' इसके लिए चाहिए ऐसा समय जब अध्यापक और शिष्य खुल कर बातचीत, और चर्चा कर सकें। इसकी संभावना बोर्ड द्वारा प्रस्तावित पाठयक्रम तथा निर्धारित पाठ्यपुस्तकों के भारी बोझ तले दब जाती है। ऐसा कोई अध्यापक मिलना अपवादस्वरूप ही संभव है जो कक्षा दस या बारह के बच्चों को पढ़ा रहा हो और समय की कमी तथा बोर्ड परीक्षा के पहले ‘कोर्स' पूरा करने के बोझ से व्यथित न हो!


अध्यापक, पाठ्य पुस्तक तथा विद्यार्थी को लेकर गांधीजी के विचारों को आज के संदर्भ में समझाने का प्रयास अत्यंत रुचिकर हो जाता है। लगभग तीन दशक पहले से यह चर्चा भी चलती रही है कि अब औपचारिक शिक्षा ग्रहण करना और सीखना केवल अध्यापक और विद्यार्थी के बीच तक सीमित नहीं रह जाएगा, अब तो सीखने के अनेक अन्य स्रोत भी इन दोनों को सहज ही उपलब्ध हो गए हैं। ‘गूगल कीजिए और जानकारी प्राप्त कीजिए' सभी कुछ बदल देगा! इस सोच में भी बदलाव आया है। ऐसे लोग भी आगे आए हैं जिनके विचार से अध्यापकों की उपस्थिति और आवश्यकता अब पहले से अधिक हो गई है। सूचना के लगातार बढ़ते भंडार में झांकना आसान हो सकता है मगर इस मकड़जाल से उपयोगी का चयन करना तभी संभव होगा जबकि उसके लिए आवश्यक कौशल भी प्राप्त कर लिए गए हों।


आज तो कोई भी पाठ्य पुस्तक दो-चार वर्ष से अधिक नहीं चल सकेगी, उसका पुनर्वीक्षण आवश्यक हो जाएगा क्योंकि हर क्षेत्र तथा हर विषय में परिवर्तन अप्रत्याशित गति से हो रहा है, और यह गति तो बढ़ती ही जा रही है। बच्चों के आसपास जटिलताएं बढ़ रही हैं, उन्हें अपने चारों ओर के वातावरण को जानना है, भाषा और गणित को जानना है, और बहुत कुछ भी जानना है, उन्हें बहुत कुछ ‘करना' भी सीखना है। उनकी कल्पनाशक्ति, वैचारिक क्षमता, जिज्ञासा और सर्जनात्मकता को पंख मिलने हैं। इसमें आज वही अध्यापक उनके साथ भागीदारी, मार्गनिर्देशन या प्रेरणा-स्रोत बन सकता है जो स्वयं लगातार नया सीखने के कौशल जानता हो, और उसके लिए अंतर्मन से तैयार हो। 17 मई 1917 को नरहरि पारिख को एक पत्र में लिखे गांधीजी के विचार अत्यंत व्यावहारिक हैं: ‘सभी शिक्षकों को सप्ताह में कम से कम एक बार एकत्र होना और आपस में अनुभवों का आदान-प्रदान करके जैसा उचित जान पड़े, वैसा परिवर्तन करना पड़ेगा। मुझे लगता है कि शिक्षण-पद्धति के संबंध में समझदार विद्यार्थियों से भी सलाह-मशविरा करना और उनके सुझाव मांगना चाहिए।' इसी पत्र में उन्होंने एक अन्य पक्ष को लेकर कहा था: ‘प्रत्येक विद्यार्थी के स्वास्थ्य का खयाल रखना प्रत्येक शिक्षक का कर्तव्य है। इसका मुख्य दायित्व उस शिक्षक पर होगा जिसके पास आरोग्य का विषय हो।' स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक यदि ये देखने में सहज लगने वाले सुझाव लागू किए जा सकते तो शिक्षा केंद्रों का वातावरण अत्यंत आत्मीय तथा प्रेरणाप्रद हो सकता है।


प्रत्येक देश प्रयास करता है कि उसके प्रतिभावान बच्चे उचित अवसर पा सकें तथा देश की बौद्धिक संपदा में लगातार वृद्धि करें। इसके लिए सबसे आवश्यक है अध्यापकों का हर बच्चे की अभिरुचियों को जानना और फिर यह निर्धारित करना कि वह कौन-सी दिशा है जिसमें वह सबसे अधिक आगे बढ़ सकता है। किसी विषय में अभिरुचि को बढ़ाना या घटाना बहुत-कुछ अध्यापक के प्रयास पर भी निर्भर करता है। 17 अगस्त 1924 को गांधीजी ने लिखा: ‘किस विद्यार्थी का यह अनुभव नहीं है कि उसकी किसी विषय में दिलचस्पी उस विषय के कारण नहीं होती, बल्कि शिक्षकों के कारण होती है। मेरा अनुभव तो यह है कि जिस रसायन शास्त्र को पढ़ाते समय एक शिक्षक मुझे निद्रावश कर देता था, उसी विषय को पढ़ाते समय दूसरा शिक्षक मुझे जाग्रत रखता था और मेरे लिए रस उत्पन्न कर देता था। एक शिक्षक गणित का सवाल पढ़ाता है, विद्यार्थी को वह समझ में नहीं आता इसलिए अच्छा नहीं लगता और दूसरा शिक्षक पढ़ाता है तो ऐसा लगता है कि उसका घंटा समाप्त ही न हो। सवाल तो वही होता है। विद्यार्थी भी वही; अंतर सिर्फ यह है कि एक के पढ़ाने का ढंग सरस होता है और दूसरे का नीरस।'


इस समय यदि उनके कथन का विश्लेषण करे तो हमें स्कूल, ट्यूशन तथा कोचिंग संस्थान के परिदृश्य पर निगाह डालनी चाहिए। इन तीनों में पढ़ाने वाले तो अध्यापक ही होते हैं। मगर इन तीनों की स्थापना के मूल उद्देश्य ही अलग-अलग हैं। इस देश में परंपरागत तरीके से मिलने वाली शिक्षा तो निशुल्क ही दिए जाने की व्यवस्था थी। महामना मदन मोहन मालवीय ने जब बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की संकल्पना की थी तब उनका उद्देश्य भावी भारत के लिए एक ऐसी मानवीय संरचना प्रदान करने का था जो विश्व सभ्यता में भारत के योगदान की निरंतरता को बनाए रखे, ज्ञान परंपरा को जीवित और जाग्रत रखे। आज शिक्षा में जो निजीकरण लगातार बढ़ रहा है वह अधिकांश उन लोगों के हाथ में चला गया है जिन्हें न तो गांधी के विचारों से कोई लगाव है और न ही उन्हें महामना के शैक्षिक चिंतन और उद्देश्यों की कोई समझ है।


संचार तकनीकी के उद्भव से लेकर वृहत प्रचार-प्रसार-उपयोग के बाद यह अनुभव से सिद्ध हो चुका है कि अध्यापक तथा पाठ्यपुस्तक के महत्त्व में कोई कमी नहीं आने वाली है। इसके बरक्स इन दोनों का महत्त्व बढ़ेगा ही। अत: पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में पहले से अधिक सजगता और सतर्कता लाने की आवश्यकता होगी। अब किसी भी पाठ्यपुस्तक की संदर्भिता सुधारे या आवश्यक परिवर्तन किए बगैर लंबे समय तक बनी नहीं रह सकेगी। इनका सही उपयोग तभी हो सकेगा जब पढ़ने वाले भी लगातार नए ज्ञान और नई पद्धतियों से परिचित बने रहें। सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम को गांधीजी ने 10 अगस्त 1924 को सभी के सामने यों रखा था: ‘शिक्षक यदि आजीविका को भुला कर शिक्षा-दान के अपने कर्तव्य को ही याद रखे तो शालाओं में नवीन चेतना दिखाई देने लगे और वे सच्चे अर्थ में राष्ट्रीय हो जाएं।' जिन संस्थाओं में- देश और विदेश में- शिक्षकों का सम्मान सर्वव्यापी है, वह अध्यापकों की अपनी क्षमता, कर्मठता तथा तपस्या से ही सृजित हुआ है। वर्तमान परिस्थिति में शिक्षा सुधार में यह विचार नींव का पत्थर हो सकता है, भले वह कितना ही दुर्लभ क्यों न लगे।


https://www.jansatta.com/politics/jansatta-column-politics-the-foundation-of-education-reform-written-by-jagmohan-singh-rajput/577801/


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