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न्यूज क्लिपिंग्स् | संविधान और जनतंत्र-- मणीन्द्रनाथ ठाकुर

संविधान और जनतंत्र-- मणीन्द्रनाथ ठाकुर

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published Published on Nov 22, 2018   modified Modified on Nov 22, 2018
किसी देश का संविधान इस बात को सुनिश्चित करता है कि समाज में विधि का शासन है. यह एक तरह से आधुनिक विश्व की बड़ी उपलब्धि है. ऐसा नहीं है कि संविधान मात्र के होने से सुशासन होगा ही. लेकिन, इससे शासन की एक सीमा तय होती है. जिन संविधानों का निर्माण लंबे मुक्ति संघर्षों के बाद हुआ है, उनमें संघर्ष की आत्मा बसती है.


भारतीय संविधान इसका अच्छा उदाहरण है. यदि कोई गौर से संविधान सभा की कार्यवाही का लेखा-जोखा देखे, तो समझ में आता है कि संविधान निर्माताओं की नैतिकता बहुत ऊंची थी. भले ही अलग-अलग समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग अपने-अपने स्वार्थ का ध्यान रख रहे हों, इतना तो तय था कि किसी भी मुद्दे पर नैतिकता को मानने से इंकार नहीं कर सकते थे. इसीलिए, संविधान हमारे समाज के लिए आज की तारीख में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में एक है.


संभव है कि इसमें कई समूहों के मनोनुकूल नियम नहीं बनाये गये हों, फिर भी कुल मिलाकर इसका सम्मान करना जरूरी है. परिवर्तन की गुंजाइश के तहत नियमों को बदलकर और न्यायपूर्ण समाज बनाने की ओर प्रयास करना भी लाजिमी है. राष्ट्र को बनाये रखने के लिए संविधान हमारा ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' है.


संविधान न्यायपूर्ण समाज बनाने में कितना सफल होगा, यह केवल उसमें लिखी बातों पर निर्भर नहीं करता. संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले बाबा साहेब अंबेडकर भी बाद में यह मानने लगे थे कि संविधान न्याय के लिये आवश्यक शर्त तो है, लेकिन यथेष्ट नहीं है.


इसके सही संचालन के लिए लोगों में इसके प्रति विश्वास और जागृति होनी चाहिए. आम नागरिकों और राजनीतिज्ञों की नैतिकता पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है कि संविधान का कौन-सा हिस्सा ज्यादा कारगर है.


इसलिए यह जरूरी है कि संविधान को जन-जन तक पहुंचाने के लिए अलग-अलग उपाय किये जायें. हाल में, भारत के कुछ जनांदोलनों ने संविधान सम्मान यात्रा निकालकर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने का प्रयास किया है.


इस सम्मान यात्रा का उद्देश्य लोगों को संविधान के महत्व के बारे में बताना और उसके महत्वपूर्ण अधिनियमों की जानकारी देना है. साथ ही उन्हें इस बात के लिए भी आगाह करना है कि जनतंत्र पर आसन्न खतरे से लड़ने लिए संविधान को ही हथियार बनाना होगा और इसके लिए हर नागरिक में इसकी पूरी समझ होनी चाहिए.


लेकिन शायद यह काम केवल एक यात्रा से संभव न हो. इस महायज्ञ में आमजनों को भी लगने की जरूरत है. खासकर विश्वविद्यालयों के छात्रों को यह व्रत लेना चाहिए कि पहले तो संविधान को खुद पढ़ें और फिर साल में एक महीने की यात्रा कर आमलोगों तक उसे ले जायें.


यह काम आसान भी नहीं है, क्योंकि जिस कानूनी भाषा में संविधान लिखा गया है, उसे तो आम छात्रों को ही समझने में मुश्किल होगी, फिर लोगों को कैसे समझा पायेंगे. अलग-अलग भाषाओं में सरलता के साथ इसे समझाने के लिए प्रयास करने की जरूरत है.


भारत में जटिल दार्शनिक विचारों को भी कहानी के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने की तकनीक उपलब्ध है. उपनिषदों की कहानियां उदाहरण के रूप में देख सकते हैं. इसी तरह का एक उदाहरण पंचतंत्र की कहानियां हैं.


भारतीय दर्शन के यथार्थवादी चिंतकों द्वारा आम जनता तक नीतियों को पहुंचाने का यह प्रयास सराहनीय था. क्या यह संभव है कि संविधान को भी वाचक परम्परा में ढालकर आम लोगों तक पहुंचाया जा सके!


यह ध्यान रखने की बात है कि खास नीतियों के साथ-साथ संविधान का मूल-भाव भी सम्प्रेषित हो सके. हमारे संविधान का मूल-मंत्र क्या है? संविधान की प्रस्तावना में जो बातें कही गयी हैं, उसकी सही व्याख्या ही संविधान की आत्मा है. लेकिन, संविधान की आत्मा को जनता की आत्मा बनाने के लिए भी आंदोलन की जरूरत है.


समझने की बात यह है कि हमारे जनतंत्र को खतरा किस बात से है? सबसे बड़ा खतरा है, अस्मितावादी उन्माद से है. भारत का समाज अनेक धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों से बना है.


स्वतंत्रता के बाद देश के विभाजन ने भारतीय समाज के समक्ष एक बड़ी चुनौती रखी. हर अस्मिता को यह डर लगने लगा कि कहीं स्वतंत्रता के बाद उन्हें हाशिये पर न डाल दिया जाये और इसी तरह राष्ट्र-निर्माण के लिए चिंतित नेतृत्व को यह लगता था कि कहीं अस्मिताओं की लड़ाई में राष्ट्र का विघटन ही न हो जाये.


इस डर को खत्म करने में संविधान का बड़ा योगदान है. इन अस्मिताओं को जब इस बात का विश्वास होगा कि यहां संविधान का शासन है, उनमें एक तरह का आत्मविश्वास पैदा होगा, उस आत्मविश्वास पर ही हमारे राष्ट्र की अस्मिता भी टिकी है. लेकिन विश्वास को बनाये रखने के लिए संविधान को जानना जरूरी है. और इसीलिए जनआंदोलनों की जरूरत है.


जनतंत्र को दूसरा सबसे बड़ा खतरा है, आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण से. संविधान के नीतिनिर्धारक तत्वों को, जिसमें इस तरह के केंद्रीकरण से बचने का निर्देश दिया गया है, कानूनी ताकत नहीं प्राप्त है. इसलिए सरकारों को उसकी चिंता नहीं होती है और कुछ पूंजीपतियों की आर्थिक शक्ति में अकूत वृद्धि हो रही है. इसका परिणाम है कि जनतंत्र की चुनावी प्रक्रिया में उनकी दखलंदाजी बढ़ती जा रही है.


अब यदि चुनाव में उनका धन खर्च होगा, तो निश्चित रूप से नीतिगत फैसलों में उनका हस्तक्षेप भी बढ़ेगा. सुचारू ढंग से और समय पर चुनाव होने मात्र से जनतंत्र की सुरक्षा संभव नहीं है. नीति-निर्धारक तत्वों की असली ताकत होती है जनसमर्थन. इसलिए, संविधान सम्मान यात्रा को नीतिनिर्धारक तत्वों को शक्तिशाली बनाने के लिए जनसमर्थन जुटाने की जरूरत है.


एकबार फिर मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि हमारा जनतंत्र तभी सुरक्षित हो पायेगा, जब संविधान हमारे समाज के हर तबके के लोगों तक पहुंच जाये, हर घर में उसकी प्रति हो और लोग उसे समझ पायें, उसका सम्मान करें.


इस महायज्ञ में हमें जनांदोलनों के साथ खड़ा होना चाहिए. हमें अपने खर्चे पर संविधान की प्रतियों का दान करना चाहिए. समय दान, संविधान दान, ज्ञान दान हमारे देश के जनतंत्र को बचाने की आवश्यक शर्तें है. यही आज का युग धर्म है.

 


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/constitution-democracy/1225761.html


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