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न्यूज क्लिपिंग्स् | संविधान की भावना को भी समझें-- योगेन्द्र यादव

संविधान की भावना को भी समझें-- योगेन्द्र यादव

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published Published on Dec 16, 2015   modified Modified on Dec 16, 2015
अदालतों के आदेश की आलोचना से मैं अकसर परहेज़ करता हूं। इसलिए नहीं कि अदालत का आदेश हमेशा सही लगता है। इसलिए भी नहीं कि अदालत की अवमानना डराती है। बल्कि इसलिए कि लोकतंत्र के खेल में किसी रेफ़री के आदेश का सम्मान तो करना पड़ेगा। रेफ़री मेरी पसंद का आदेश दे तो उसे सर -आंखों पर बैठाऊं, नहीं तो उसे आंखें दिखाऊं-ऐसे तो नहीं चल सकता। इसलिए कई बार अदालतों का फैसला पसंद न आने पर भी सर झुकाकर उसका सम्मान करना ही समझदारी है।
लेकिन पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान करना संभव नहीं है। हरियाणा की पंचायतों के चुनाव में उम्मीदवारों की शैक्षणिक और अन्य योग्यता का सवाल सिर्फ कुछ लोगों के व्यक्तिगत फायदे-नुकसान वाला मुकदमा नहीं है। यह संविधान की आत्मा और लोकतंत्र की मर्यादा का सवाल है। इसलिए मजबूर होकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की असहमति पर यह लेख लिख रहा हूं।
पहली नज़र में लग सकता है कि इस फैसले में इतनी बड़ी बात क्या है। हरियाणा सरकार ने पंचायत चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए कुछ नयी शर्तें लगा दीं। उम्र की शर्त तो पहले ही थी। कुछ साल पहले दो से अधिक बच्चे न होने की शर्त भी लग चुकी थी। इस बार शैक्षणिक योग्यता भी जोड़ दी गयी-सरपंच और पंच का दसवीं पास होना जरूरी है, औरत और दलित पंच को आठवीं पास और दलित-औरत को पांचवीं पास होना अनिवार्य बना दिया गया है। साथ में यह भी अनिवार्य बना दिया कि घर में शौचालय हो, उम्मीदवार पर कोई कर्जा या बिजली बिल बकाया न हो, उस पर किसी गंभीर अापराधिक मामले में चार्जशीट न हो। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी लेकिन न्यायालय ने इन शर्तों के पक्ष में फैसला सुना दिया।
बड़ी बात यह है कि इस आधार पर हरियाणा की दो-तिहाई आबादी चुनाव लड़ने से वंचित हो जाएगी। अगर सिर्फ शिक्षा की शर्त ही लें तो सामान्य वर्ग में 52 प्रतिशत और आरक्षित वर्ग में 62 प्रतिशत नागरिक चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। पक्का आंकड़ा किसी के पास नहीं है, लेकिन शिक्षा के साथ दूसरी शर्तें जोड़ दें तो इस कानून से सामान्य वर्ग के दो-तिहाई और महिलाओं और दलितों में उससे भी ज्यादा नागरिक लोकतांत्रिक प्रतिनिधि नहीं बन सकेंगे। कहीं-कहीं तो हो सकता है पूरे गांव में उस श्रेणी का एक भी योग्य उम्मीदवार न बचे। प्रदेश के सबसे पिछड़े मेवात जिले के हर गांव में आठवीं पास बच्चियां तो मिल सकती हैं, लेकिन औरतें कहां मिलेंगी? घुमन्तु जातियों के लिए तो राजनैतिक प्रतिनिधित्व के दरवाजे बंद हो जायेंगे।
कोई कह सकता है कि अगर शिक्षा की कमी के कारण बहुमत भी बाधित रह गया तो क्या गलत बात है? जब हर नौकरी में न्यूनतम योग्यता की शर्त होती है तो पंच-सरपंच की शैक्षणिक योग्यता तय करने में क्या बुराई है? इसे ध्यान से समझने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि कोई अपनी मर्जी से अनपढ़ नहीं रहता, लोग मजबूरी में शिक्षा से वंचित होते हैं-या तो गांव में स्कूल नहीं थे, या पैसे नहीं थे, या फिर शिक्षा का संस्कार नहीं था। वैसे भी देश में सभी नौकरियां पढ़े-लिखों के लिए हैं। सिर्फ राजनीति ही थी जहां हर नागरिक के लिए दरवाजे खुले थे, वहां भी बंदिश लग जाएगी। मतलब यह कि व्यवस्था के शिकार लोगों को अब ऊपर से सजा और मिलेगी।

 

योगेंद्र यादव
दूसरी बात यह कि अगर ये सब शर्तें इतनी अच्छी हैं तो इन्हें विधायकों, सांसदों और मंत्रियों पर लागू क्यों नहीं किया जाता? सरकार इसके पक्ष में हास्यास्पद तर्क दे रही है कि सरपंच को चेक पर हस्ताक्षर करने होते हैं, मंत्री और विधायक को नहीं। तो क्या सरकार यह कर रही है कि मंत्री फ़ाइल नहीं पढ़ते, विधायक सदन के पटल पर रखी रिपोर्ट और विधेयक नहीं पढ़ते? अब हरियाणा में एक निरक्षर व्यक्ति संसद और विधानसभा में बैठ सकता है लेकिन गांव की पंचायत में नहीं! संगीन अपराध के आरोपी लोकसभा और हरियाणा विधानसभा के सदस्य हैं, और वहां बैठकर नियम बना रहे हैं कि आपराधिक आरोप तय होते ही पंच-सरपंच नहीं बन सकते।
सबसे बड़ी बात यह है कि जनप्रतिनिधि होना कोई नौकरी नहीं है। पंच-सरपंच या फिर विधायक-सांसद होने की एक ही योग्यता है-जनता के दुःख-सुख को समझना और उनकी आवाज़ उठाना, उनके काम करवाना। उनमें यह योग्यता है या नहीं इसका एक ही पैमाना है-जनमत। उसके अलावा और कोई शर्त लगाना लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। कभी-कभार कोई न्यूनतम शर्त लगायी जा सकती है। जैसे पक्के अपराधी के डर से जनता को बचाने के लिए उसकी उम्मीदवारी पर पाबंदी लग सकती है। लेकिन लोग अपनी आवाज़ उठाने के लिए पढ़े-लिखे को पसंद करें या अनपढ़ को, लोकतंत्र में यह फैसला तो जनता पर ही छोड़ना होगा। राजनीति के ज्ञान को डिग्री से नहीं नापा जा सकता।
सवाल यह है ही नहीं कि शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए या नहीं। आज कौन नहीं चाहता कि उसके बच्चे ज्यादा से ज्यादा पढ़ें? सवाल ये भी नहीं है कि लोकप्रतिनिधि ज्यादा पढ़े-लिखे होने चाहिए या नहीं। संसद से लेकर पंचायत तक हर जगह डिग्रीधारी लोगों का बहुमत है और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। जनता खुद पढ़े-लिखे लोगों को पसंद कर रही है। सवाल ये है कि क्या इसलिए उन कम-पढ़े लिखे नागरिकों के लिए दरवाजे बंद कर देने चाहिए, जिन्हें जनता आज भी पसंद कर रही है?
हरियाणा सरकार के इस फैसले ने लोकतंत्र के बुनियादी जनप्रतिनिधियों को एक अदना सरकारी कर्मचारी बना दिया है। इस फैसले पर मुहर से संविधान की लोकतांत्रिक भावना से खिलवाड़ करने की अनुमति दे दी गई है। इस फैसले ने अंतिम व्यक्ति के हक़ में कई यादगार फैसले सुनाने वाले सर्वोच्च न्यायालय का कद छोटा किया है। उम्मीद है सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ इस मामले पर गौर करेगी और इसे सुधारेगी।

 


http://dainiktribuneonline.com/2015/12/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%AD%E0%


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