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न्यूज क्लिपिंग्स् | संस्थाओं को सुदृढ़ करने का वक्त - डॉ. भरत झुनझुनवाला

संस्थाओं को सुदृढ़ करने का वक्त - डॉ. भरत झुनझुनवाला

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published Published on Oct 10, 2017   modified Modified on Oct 10, 2017
अर्थशास्त्रियों में इस बात को लेकर सहमति बन रही है कि आर्थिक विकास की असल कंुजी देश की संस्थाओं में निहित है। सस्ते श्रम से आर्थिक विकास हासिल होना जरूरी नहीं है। जापान में श्रम महंगा है, फिर भी आर्थिक विकास में वह देश आगे है। आवश्यक नहीं कि प्राकृतिक संसाधनों जैसे कोयले अथवा तेल के जरिए भी विकास हासिल हो ही जाए। सिंगापुर में प्राकृतिक संसाधन शून्यप्राय हैं, फिर भी उस देश की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका से भी अधिक है। तकनीकों से भी आर्थिक विकास जरूरी नहीं है। चीन के पास तकनीकें न्यून थीं, परंतु उनका आयात करके वह कहीं आगे निकल गया है। भारतीय मूल के वैज्ञानिक विदेशों मे जाकर नामी संस्थाओं के प्रमुख बन जाते हैैं और नोबेल पुरस्कार भी हासिल कर लेते हैं, क्योंकि वहां संस्थाओं में जवाबदेही और स्वतंत्रता, दोनों हैं।

 

शासकीय संस्थाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण नेताओं की विश्वसनीयता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम यानी विश्व आर्थिक मंच के अनुसार उत्तरी यूरोप के नार्डिक देशों के आर्थिक विकास का प्रमुख कारण वहां के नेताओं और अधिकारियों की ईमानदारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आज हमारे देश में शीर्ष स्तर पर विकास की यह प्रमुख शर्त पूरी हो रही है। विश्व आर्थिक मंच ने यह भी कहा है कि नेता और जनता के परस्पर सहयोग से आर्थिक विकास हासिल होता है, जैसे परिवार में बड़े और छोटे के बीच सामंजस्य हो तो परिवार आगे बढ़ता है।

 

देश की जनता को आज प्रधानमंत्री मोदी पर विश्वास है। हालांकि अर्थव्यवस्था में सुस्ती के कारण तमाम लोगों की जीविका प्रभावित हो रही है, परंतु उन्हें भरोसा है कि आने वाले वक्त में सब अच्छा हो जाएगा। जनता का अपने नेता में यह विश्वास सुखद है। इस क्रम में सरकार को जनता पर भी भरोसा करना चाहिए। किसी छोटे उद्यमी ने कहा कि हम टैक्स भी देते हैं और बेईमान भी कहलाते हैं, जबकि भ्रष्ट सरकारी कर्मियों को ईमानदार माना जाता है। इंदिरा गांधी ने बैंकों एवं कोयला कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके और शीर्ष उद्यमियों को जेल भेजकर एक नकारात्मक माहौल बनाया था, जिससे अर्थव्यवस्था दबाव में आई थी। नकारात्मक माहौल में उद्यमी की ऊर्जा का प्रस्फुटन नहीं हो सकता। नोटबंदी का आधार यह था कि जनता नंबर दो की कमाई को तिजोरी मे रखे हुए है। जीएसटी में खरीद एवं बिक्री का विस्तृत ब्योरा रिटर्न में मांगने का उद्देश्य है कि चोर को पकड़ा जा सके। जीएसटी की नजर में हर व्यापारी संदिग्ध है। हर शहर में रात में चोर घूमते हैं, लेकिन यदि पुलिस रात में अस्पताल जाने वाले के साथ चोर जैसा व्यवहार करे तो जनता दुबक जाएगी। सरकार को चाहिए कि हर नागरिक को ईमानदार समझे। जिन चुनिंदा लोगों पर शक हो, केवल उन लोगों से खरीद-बिक्री का ब्योरा मांगा जाए। जिस प्रकार देश की जनता को नरेंद्र मोदी पर विश्वास है, उसी प्रकार यदि प्रधानमंत्री जनता और संस्थाओं पर विश्वास करेंगे तो हमारा देश तेजी से आगे बढ़ेगा।

 

दूसरी प्रमुख संस्था न्याय तंत्र है। अपने देश में न्याय तंत्र बीमार हो चला है। निचले स्तर की अदालतों में भ्रष्टाचार व्याप्त है। यद्यपि युवा जजों के आने से नई लहर आई है, लेकिन पेशकार और वकीलों की मिलीभगत से वादी परेशान रहता है। मैंने किसी किरायेदार के विरुद्ध मामला दाखिल किया था। दो वर्षों तक किरायेदार कोर्ट में हाजिर नहीं हुआ। जब निर्णय का समय आया तो किरायेदार हाजिर हो गया, फिर से पूरी प्रक्रिया चालू हुई। इस प्रकार के तमाम पैंतरों पर विराम लगाने की जरूरत है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की भी हालत अच्छी नहीं है। किसी भी केस का निर्णय आने में 10 से 20 वर्ष लगना आम बात है। इस दिशा में सुधार के लिए सरकार को पहल करनी चाहिए।

 

नॉर्वे के नॉर्वेजियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अनुसार टिकाऊ आर्थिक विकास के लिए न्याय तंत्र की स्वतंत्रता जरूरी है। सरकार के निर्णयों पर न्यायालय द्वारा की गई समीक्षा से सही निर्णय पर पहुंचा जा सकता है, जैसा सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम के निर्णय में किया था। सरकार को चाहिए कि न्यायालय की समीक्षा को सकारात्मक दृष्टि से देखे। न्यायालय की स्वतंत्रता का सरकार सम्मान करेगी तो सही निर्णयों पर पहुंचेगी। इस मुद्दे पर सरकार को अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। सरकार ने जजों की नियुक्ति के लिए एक कमेटी बनाने का कानून बनाया था। इस कमेटी में अधिक संख्या में सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जानी थी। इन सदस्यों के माध्यम से सरकार मनचाहे व्यक्तियों को जज नियुक्त कर सकती थी। मैं न्यायतंत्र पर बाहरी नियंत्रण का पक्षधर हूं, क्योंकि न्यायाधीशों द्वारा अपने परिजनों-परिचितों को जज बनाया जाता है, परंतु यह बाहरी नियंत्रण सरकार का नहीं होना चाहिए। कमेटी में कानूनी तौर पर चुने गए पेशेवर लोगों जैसे बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं इंस्टीट्यूट आफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया के अध्यक्ष को नियुक्त किया जा सकता है। इसी क्रम में सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को अपंग बनाने की व्यवस्था कर दी है। वर्तमान में ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं। सरकार ने कानून में संशोधन करके अफसरों को ट्रिब्यूनल का प्रमुख बनाने का रास्ता खोल दिया है। मनचाहे अफसर को नियुक्त करके सरकार ट्रिब्यूनल द्वारा सरकार के निर्णयों की समीक्षा पर रोक लगाना चाहती है, जो दीर्घकाल में सरकार के लिए ही हानिप्रद होगा जैसा नॉर्वेजियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने कहा भी है।

ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि सफल अर्थव्यवस्था के लिए स्वतंत्र केंद्रीय बैंक जरूरी है, जो कि अल्पकालीन राजनीति से ऊपर उठकर निर्णय ले सके। चुनाव के पहले सरकार का प्रयास रहता है कि मतदाताओं को लुभाने के लिए लोक-लुभावन योजनाओं पर भारी खर्च करे, जैसे 2009 में कांग्रेस ने किसानों के कर्ज माफ किए थे। इन खर्चों को पोषित करने के लिए सरकार को बाजार से कर्ज लेना होता है। यहां केंद्रीय बैंक यानी हमारे भारतीय रिजर्व बैंक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यदि रिजर्व बैंक अधिक मात्रा में नोट छापकर मुद्रा की तरलता बनाए रखे तो सरकार के लिए कर्ज लेकर अनुपयुक्त खर्च करना आसान हो जाता है जो कि बाद में अर्थव्यवस्था को ले डूबता है, परंतु यदि रिजर्व बैंक स्वतंत्र है तो नोट नहीं छपेगा। सरकार कर्ज नहीं ले सकेगी। गलत दिशा में नहीं जाएगी। वर्तमान सरकार ने व्यवस्था बनाई है कि अब मौद्रिक नीति समिति यानी एमपीसी द्वारा मुद्रा नीति निर्धारित की जाएगी। इसमें तीन सदस्य रिजर्व बैंक के अधिकारी होंगे और तीन सदस्य सरकार द्वारा नामित होंगे। अल्पकाल में यह सरकार के लिए आरामदेह हो सकता है, परंतु जैसा कि ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन द्वारा कहा गया, यह व्यवस्था देश के दीर्घकालीन विकास के लिए ठीक नहीं है। नरेंद्र मोदी पर देश को भरोसा है। इस भरोसे को फलीभूत करने के लिए सरकार को हर नागरिक और प्रत्येक स्वायत्त संस्था को मित्र की दृष्टि से देखना होगा, अन्यथा इंदिरा गांधी की तरह यह सरकार भी देश को दीर्घकालीन विकास की पटरी पर नहीं ला सकेगी।

 

(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्राध्यापक हैं)


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