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न्यूज क्लिपिंग्स् | सत्ता के गढ़ में सूचना की सेंध : हर्ष मंदर

सत्ता के गढ़ में सूचना की सेंध : हर्ष मंदर

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published Published on Jun 24, 2011   modified Modified on Jun 24, 2011
लगभग दो दशक पहले जब राजस्थान के गांवों में रोजगार और मजदूरी के लिए संघर्ष करने वाले लोगों के बीच सूचना के कानूनी अधिकार के विचार ने आकार ग्रहण करना प्रारंभ किया, तब बहुत कम लोगों ने यह अनुमान लगाया होगा कि यह विचार इस विशाल देश में लोकतंत्र के स्वरूप को बदल देगा और उसकी जड़ों को और मजबूत बना देगा।

आधुनिक भारत में राज्यतंत्र का दखल हमारे जीवन के लगभग सभी आयामों में है। सरकारें कई ऐसे कार्यक्रम संचालित करती हैं, जो लाखों गरीबों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। सरकारों का निर्वाचन भारत की जनता द्वारा किया जाता है, इसके बावजूद वे लोकसेवकों के स्थान पर स्वामियों की तरह व्यवहार करती हैं। स्वामियों की ही तरह सरकारें यह सोचती हैं कि सरकार से ‘बाहर’ के किसी भी व्यक्ति को सरकार के निर्णयों को प्रश्नांकित करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

इसीलिए 2005 में संसद द्वारा पास किया गया सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून लोक प्रशासन के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण सुधार साबित हुआ है। इस कानून ने यह स्थापित कर दिया कि जनता को उन लोकसेवकों को प्रश्नांकित करने का पूरा अधिकार है, जिन्हें उनके द्वारा दिए जाने वाले कर से वेतन का भुगतान किया जाता है।

यह अधिकार लोगों के हाथों में सौंपा गया एक ऐसा औजार था, जिसकी मदद से वे अपने संघर्षो को पैना कर सकते थे और सरकार को सवालों के दायरे में खड़ा कर सकते थे। जब ग्रामीणों ने सबसे पहले ‘मस्टर रोल’ नामक आधिकारिक पत्र की मांग की तो लगा कि यह अधिकार लोकतंत्र के स्वरूप को बदल रहा है। इस दस्तावेज की मदद से ग्रामीण उन्हें भुगतान किए जाने वाले पारिश्रमिक के विवरणों के बारे में जान सकते थे।

जब मैं स्वयं भारत के गरीब इलाकों में जिलाधिकारी के रूप में कार्यरत था, तब मुझे अक्सर यह देखकर कष्ट होता था कि किस तरह ग्रामीणों के लिए भेजी जाने वाली राशि हजम कर ली जाती थी और वे इस बारे में कुछ नहीं कर पाते थे। उनके सामने इसके सिवाय और कोई चारा नहीं होता था कि वे सरकार के समक्ष बार-बार अर्जी लगाएं, जबकि अधिकांश मौकों पर उनकी अर्जी पर कोई सुनवाई नहीं होती थी। जो कुछ लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करते थे, उनका साथ देने वाला कोई न होता था।

मैं अक्सर सोचा करता था कि एक लोकतांत्रिक प्रणाली में वंचितों और शोषितों के समूह के लिए कुछ भी कर पाना आखिर कैसे संभव नहीं था। इस सवाल का जवाब बहुत सरल था। यदि सरकारें भ्रष्टाचार की जांच करने को तैयार नहीं हैं तो लोगों को यह अधिकार और शक्ति होनी चाहिए कि वे ऐसा स्वयं कर पाएं। इसके लिए उन्हें आधिकारिक सूचनाओं की दरकार थी, जो उन्हें एक अधिकार के रूप में मिलनी चाहिए थी।

जनता के प्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं में जिन सूचनाओं की मांग कर सकते थे, उनसे उन लोगों को कैसे वंचित रखा जा सकता था, जिन्होंने उन्हें चुनकर वहां तक भेजा था? यह कानून पास होने के बाद पिछले लगभग पांच सालों में जनता ने साहस, रचनात्मकता और यहां तक कि उन्मुक्तता के साथ आधिकारिकता के गढ़ों और किलों में सेंध लगाई है। मार्च 2011 में शिलांग में देशभर से ये ‘सूचना के सिपाही’ जुटे और सूचना पर अधिकार के लिए एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया।

सम्मेलन में निर्धन भूमिहीन खेतिहरों के साथ राज्यपाल, सर्वोच्च और उच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीशों और वरिष्ठ लोक अधिकारियों ने कंधे से कंधा मिलाकर इस कानून का उत्सव मनाया, जिसने जनता को भ्रष्ट तंत्र के विरुद्ध संघर्ष करने की आशा और शक्ति दी थी। लेकिन यह लड़ाई इतनी आसान नहीं थी। आधिकारिक सूचना की मांग करने वाले 17 व्यक्तियों की हत्या यह याद दिलाती है कि ये प्रयास कितने जोखिम भरे हो सकते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए किस तरह की दृढ़ता की दरकार है।

आज भी हर लोक अधिकारी कार्यभार संभालने से पहले गोपनीयता की शपथ तो लेता है, लेकिन पारदर्शिता की नहीं। यहां तक कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कैबिनेट सदस्य और न्यायाधीश भी यदा-कदा यह कहते रहे हैं कि उन्हें इस कानून के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। केंद्र और राज्य के 90 फीसदी सूचना आयोग सेवानिवृत्त लोकसेवकों से भरे पड़े हैं। वे एक ऐसी आधिकारिक संस्कृति से वास्ता रखते हैं, जो ऐतिहासिक रूप से पारदर्शिता का प्रतिरोध करती रही है।

शिलांग सम्मेलन में शामिल हुए प्रतिनिधियों ने यह पुष्टि की कि किस तरह अधिकारी सूचना देने से कतराते हैं। सूचना के लिए आग्रह करने पर वे किस तरह टालमटोल करते हैं, सौजन्यहीनता का परिचय देते हैं और यहां तक कि धौंस-डपट पर भी उतारू हो जाते हैं।

इसके बावजूद कुछ छोटी किंतु महत्वपूर्ण सफलताओं की रोचक कहानियां हैं। बुजुर्गो की पेंशन हजम कर जाने वाले डाकियों, कागज पर सड़कें और कुएं बनवाने वाले अधिकारियों, राशन की दुकानों के स्थान पर निजी खुदरा दुकानों में पहुंच जाने वाले अनाज, मध्याह्न् भोजन हड़प जाने वाले शिक्षकों और बिना डॉक्टरों और दवाइयों के संचालित हो रहे अस्पतालों का पीपुल्स ऑडिट के माध्यम से भंडाफोड़ किया गया।

पीढ़ियों से ये सभी चीजें आम जनता और गरीबों के जीवन का हिस्सा बनी हुई थीं, लेकिन आज वे इन पर सवाल खड़े कर सकते हैं। आंध्रप्रदेश में ग्रामीण शासकीय स्कूलों का सोशल ऑडिट करवाए जाने पर सौ करोड़ रुपयों के भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ। भ्रष्ट अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों को अंतत: इनमें से 30 करोड़ रुपए लौटाने पर विवश होना पड़ा।

लेकिन कुछ निराशाजनक स्थितियां भी निर्मित हुईं। शिलांग सम्मेलन में कश्मीर और मणिपुर के प्रतिनिधि यह बताते हुए रुआंसे हो गए कि जब उन्होंने आरटीआई एप्लिकेशन भरकर यह जानना चाहा कि सालों पूर्व सुरक्षा बलों द्वारा धर लिए गए उनके प्रियजन जीवित हैं या मृत, तो उन्हें कोई जवाब नहीं दिया गया। उनके आंसू हमें एक बार फिर इस बात की याद दिलाते हैं कि जहां आरटीआई आधिकारिक सत्ता के कई किलों में सेंध लगा सकता है, वहीं यह अब भी उनकी बुनियाद पर चोट करने में कामयाब नहीं हो पाया है।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-dent-power-of-information-in-the-heartland-2213153.html?SL1=


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