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न्यूज क्लिपिंग्स् | सदिच्छा का सत्यानाश- इर्शादुल हक

सदिच्छा का सत्यानाश- इर्शादुल हक

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published Published on Feb 13, 2012   modified Modified on Feb 13, 2012

सैकड़ों करोड़ रु की जिस रकम से बिहार के स्कूलों की तस्वीर बदल सकती थी उसका ज्यादातर हिस्सा भ्रष्टाचारियों की जेब में चला गया. इर्शादुल हक की पड़ताल

सत्ता के शीर्ष से चले अच्छे इरादों का जमीन तक पहुंचते-पहुंचते किस तरह बंटाधार हो जाता है, इसका उदाहरण है यह घोटाला. इससे यह भी साफ होता है कि योजनाएं कितनी भी अच्छी बन जाएं, जब तक उन्हें अमली जामा पहनाने वाले तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होगी तब तक उन योजनाओं के लक्ष्य कागजों पर ही रहेंगे.

2005 में पहली बार सत्ता संभालने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिन क्षेत्रों में सबसे अधिक ध्यान देना शुरू किया था उनमें शिक्षा भी एक था. 2008-09 में सरकार ने राज्य भर के 1350 उच्च विद्यालयों (दसवीं तक) को उत्क्रमित करने का एलान किया. यानी इन्हें 10+2 विद्यालयों का दर्जा दिया जाना था. इसके लिए कुल पांच अरब 33 करोड़ 25 लाख रुपये का प्रावधान हुआ. हर स्कूल को 39 लाख 50 हजार रुपये मिले. इस पैसे से स्कूल की इमारत बननी थी. किताबें, फर्नीचर, खेल और प्रयोगशाला सामग्री जैसी बुनियादें चीजें खरीदी जानी थीं. यानी शिक्षा  के क्षेत्र में एक बड़े बदलाव का मार्ग प्रशस्त था.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तहलका की पड़ताल बताती है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान इस रकम का एक बड़ा हिस्सा छात्रों के भविष्य पर खर्च होने की बजाय भ्रष्टाचारियों की जेब में चला गया. पड़ताल के दौरान जो तथ्य सामने आए हैं उससे साफ होता है कि नियम-कायदों का मजाक उड़ाते हुए कूलों की प्रबंध समितियों, प्रशासनिक अधिकारियों और विभागीय इंजीनियरों के गठजोड़ ने नियमों को धता बताते हुए सैकड़ों करोड़ रुपये की बंदरबांट कर ली.

इसके नतीजे राज्य के 38 जिलों में फैले 1350 स्कूलों में देखे जा सकते हैं. कहीं भवन अधूरे ही बने हैं तो कहीं पूरे बन चुके भवनों में इतनी घटिया निर्माण सामग्री लगाई गई है कि छतों में दरारें पड़ चुकी हैं और फर्श धंस रहे हैं. कई भवन बन जाने के बाद स्कूल प्रबंधनों को सुपुर्द तो कर दिए गए हैं पर उनकी खिड़कियों के किवाड़ या तो लगाए ही नहीं गए या कहीं लगाए गए हैं तो उनकी गुणवत्ता इतनी घटिया थी कि वे छिन्न-भिन्न हो चुके हैं. ध्यान देने की बात यह है कि प्रत्येक स्कूल को भवन निर्माण के मद में 26 लाख रुपये दिए गए थे. इसी तरह खेल व प्रयोगशाला सामग्री और फर्नीचर की खरीद में भी भारी अनियमितताओं का बोलबाला है. इसके लिए प्रत्येक स्कूल को अलग-अलग 13 लाख 50 हजार रुपये आवंटित किए गए थे.

नियमों के अनुसार किसी भी सरकारी निर्माण, खरीददारी या सेवा के लिए संबंधित संस्था द्वारा प्राक्कलन यानी एस्टीमेट, नक्शा और सामग्री की गुणवत्ता निर्धारित करते हुए अखबारों में निविदा विज्ञापन प्रकाशित किया जाना चाहिए. लेकिन हैरत की बात है कि ऐसा नहीं हुआ. बल्कि कई मामलों में तो स्कूल के शिक्षकों, प्रधानाचार्यों या प्रबंधन समिति के अधिकारियों ने खुद ही भवनों का निर्माण करा डाला. इसी तरह आवश्यक सामग्रियों की खरीददारी भी वैसे ही कर ली गई जैसे एक आम आदमी अपनी जरूरतों का सामान किसी दुकान से जा कर ले लेता है.


हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी 1350 स्कूलों ने नियमों का उल्लंघन किया है. ऐसे भी स्कूल हैं जिन्होंने भवन निर्माण से लेकर सामग्रियों की खरीददारी के लिए अखबारों के माध्यम से निविदा आमंत्रित की और काम कराए. लेकिन इनकी संख्या 15-20 प्रतिशत के आसपास ही होगी. दूरदराज के इलाकों को छोड़िए, राजधानी पटना की हालत ही चौंकाने वाली है. लाख कोशिशों से भी जानकारी न मिलने के बाद शिक्षा विभाग से सूचना के अधिकार के तहत आंकड़े मांगे गए तो विभाग पिछले तीन महीने में अब तक ऐसे महज 18 स्कूलों की लिस्ट उपलब्ध करा सका जिन्होंने अखबारों में निविदा प्रकाशित करवाई थी जबकि 2008-09 में जिले के 104 स्कूलों और 2006-07 में 10 स्कूलों को धन उपलब्ध कराया गया था.

बड़ा सवाल

आखिर निर्माण और खरीददारी में नियमों को धता बता कर पैसे की बंदरबांट कैसे हुई? सरकार ने जब स्कूलों के प्रधानाचार्यों के बैंक अकाउंट में पैसे भेजे तो उसी के साथ लिखित निर्देश भी जारी किया गया था कि स्कूल कार्यकारी एजेंसियों का चयन खुद कर सकता है. शहरी क्षेत्र में कार्यकारी एजेंसी आम तौर पर भवन निर्माण विभाग होती है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में जिला परिषद या ग्रामीण विकास अभिकरण (एनआरईपी) होते हैं. नियमानुसार ये एजेंसियां अपने तकनीकी विशेषज्ञों यानी अभियंताओं द्वारा प्राक्कलन और नक्शा आदि बनवाती हैं और फिर निविदा आमंत्रित करके निर्माण से जुड़े रजिस्टर्ड ठेकेदारों के माध्यम से अपनी देखरेख में काम करवाती हैं.

पर अधिकतर मामलों में ऐसा नहीं किया गया. ज्यादातर स्कूलों में ग्रामीण विकास अभिकरण के अभियंताओं ने भवनों का प्राक्कलन और नक्शा बनाने के बाद स्कूलों की प्रबंध समितियों के साथ मिलीभगत करके अपने प्रिय ठेकेदारों को अपनी मर्जी से काम में लगवा दिया. कहीं स्कूल प्रबंधन ने खुद ही काम का मोर्चा संभाल लिया. राजकीय विद्यालयों में प्रबंध समिति के अध्यक्ष संबंधित जिलों के जिलाधिकारी या जिला शिक्षा पदाधिकारी होते हैं. राजकीयकृत विद्यालयों की प्रबंध समिति के अध्यक्ष संबंधित विधानसभा क्षेत्र के विधायक या उसके द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि होते हैं. सभी प्रबंध समितियों के सचिव स्कूल के प्रधानाध्यापक होते हैं. यह सारी धांधली इन सब व्यक्तियों के बिना चाहे संभव नहीं है.

तहलका ने जब इन अनियमितताओं की एक-एक कर पड़ताल शुरू की और उसके साक्ष्य जिला शिक्षा पदाधिकारियों के सामने पेश किए तो कई जिलों के शिक्षा पदाधिकारियों ने चुप्पी साध ली. कई ने खुल कर स्वीकार किया कि अनियमितताएं की गई हैं. सारण जिले में हाल ही में पदस्थापित जिला शिक्षा पदाधिकारी अनूप कुमार सिन्हा उनमें से एक हैं जिन्होंने बड़ी साफगोई से स्वीकार किया कि उनके यहां राशियों का बड़े पैमाने पर गबन हुआ है. हालांकि इस मामले में राज्य के शिक्षामंत्री पीके शाही से जब बात की गई तो उन्होंने अधिकतर मामलों में अनभिज्ञता व्यक्त की. निर्माण कार्य पर  वे बोले कि उनके विभाग ने तय किया है कि भविष्य में स्कूल भवनों के निर्माण में उनके विभाग में हाल ही में गठित निगम को लगाया जाएगा (देखें साक्षात्कार).

ये 1350 स्कूल राज्य के38 जिलों में फैले हुए हैं.  तहलका ने  चार जिलों समस्तीपुर, सारण, वैशाली और पटना के स्कूलों का जायजा लिया.

नारायणी कन्या उच्च विद्यालय, पटना

पटना सिटी का नारायणी कन्या उच्च विद्यालय उन सैकड़ों स्कूलों में से एक है जहां बड़े पैमाने पर अनियमितता, नियमों का उल्लंघन और फर्जीवाड़ा देखने को मिलता है. इस विद्यालय की प्रबंधन समिति ने तो सरकारी धन के उपयोग के लिए न सिर्फ निविदा शर्तों को धता बताया बल्कि भवन निर्माण कार्य भी खुद ही करा डाला. स्कूल की प्रधानाध्यापिका लल्ली देवी ने ईंट, सीमेंट, सरिया से लेकर तमाम निर्माण सामग्री खुद खरीदी. और तो और, दिहाड़ी मजदूरों की मजदूरी भी उन्होंने खुद ही अदा की. इतना ही नहीं, भवन निर्माण उस स्थान पर कराया गया जहां पहले से भवन मौजूद था, उसे तोड़ा गया. पुराने भवन को तोड़ कर या ध्वस्त करके उस स्थान पर नया भवन बनवाना वैसे कोई अपराध तो नहीं है, पर स्थानीय लोगों का कहना है कि दो मंजिला पुराना भवन इतना पुराना और जर्जर नहीं था जिसे ध्वस्त किया जाता. इस भवन की मरम्मत की जा सकती थी.

इस बात का लिखित निर्देश भी था कि आवंटित राशि से अगर जरूरत हो तो पुराने भवन  की मरम्मत भी की जा सकती है. दूसरा सवाल यह कि अगर पुराना भवन तोड़ा गया तो उससे निकलने वाली पुरानी ईंट और दूसरी सामग्रियों का क्या उपयोग किया गया. क्या उसकी नीलामी की गई? तहलका को मिली जानकारी बताती है कि पुराने भवन की सामग्री का उपयोग इसी काम में किया गया. ऐसे में भवन निर्माण की लागत खुद-ब-खुद प्राक्कलन से कम हो गई. इस नवनिर्मित भवन की प्राक्कलित राशि 15 लाख से अधिक थी. एक दूसरा भवन भी बनवाया गया जिसकी प्राक्कलित राशि 4.95 लाख रुपये थी.  3.54 लाख रुपये की प्राक्कलित राशि से एक अन्य पुराने भवन की छत को ध्वस्त कराकर, मौजूदा दीवार पर ही नई छत बनवाई गई. स्कूल प्रबंधन समिति का तर्क था कि पुरानी छत जर्जर स्थिति में थी इसलिए उसे तोड़ना अनिवार्य था. पर इसी स्कूल के एक वरिष्ठ शिक्षक अपना नाम गुप्त रखते हुए कहते हैं कि पुराने भवन की मरम्मत करके उसे ठीक किया जा सकता था. वे बताते हैं कि इस मामले में अभियंताओं की भी मिलीभगत थी क्योंकि तीनों भवनों के निर्माण में विभागीय अभियंताओं को भरोसे में लेकर स्वीकृति ली गई. इन शिक्षक के मुताबिक उन भवनों का प्राक्कलन करने वाले इन अभियंताओं को पता था कि पुराने ध्वस्त भवन की सामग्री का इस्तेमाल नए भवन के निर्माण के लिए किया जाना है.


इसी प्रकार खेल सामग्री, प्रयोगशाला से जुड़े उपकरण, फर्नीचर और पुस्तकों के लिए 13.5 लाख रुपये की खरीददारी की गई. इस खरीददारी के लिए भी निविदा अखबारों में विज्ञापित नहीं की गई, बल्कि उसे स्कूल के सूचना पट्ट पर चिपका दिया गया. पुस्तकों की खरीददारी भारती भवन पब्लिकेशंस, एस चांद, पुस्तक केंद्र खजांची रोड, माडर्न पब्लिशर्स खजांची रोड आदि से की गई. स्कूल प्रबंधन समिति के दस्तावेज के अनुसार सभी पुस्तकों पर अंकित मूल्य पर 10 प्रतिशत की रियायत दी गई. भारती भवन पब्लिकेशंस से 20/02/2008 को जारी पत्रांक 31/08 में खरीददारी और दर का उल्लेख है. भारती भवन ने भी पुस्तकों की खरीद पर स्कूल को मूल्य पर दस प्रतिशत की रियायत की थी.
लेकिन तहलका की पड़ताल बताती है कि भारती भवन थोक मूल्य पर बिक्री की गई पुस्तकों पर कम से कम 30-40 प्रतिशत या कई मामलों में उससे भी अधिक की रियायत देता है. इस प्रकार स्कूल क्रय समिति ने या तो सरकारी धन के 20-30 प्रतिशत का नुकसान कराया या उन पैसों का गबन किया. इसी प्रकार खेल सामग्री, प्रयोगशाला के उपकरण और फर्नीचर आदि की खरीद के लिए कुछ दुकानों से कोटेशन लेकर सामान की खरीददारी की गई और बिल पर मनमानी दर अंकित कर ली गई.

सेंट जेवियर्स हाईस्कूल, पटना

अपनी पढ़ाई के लिए विख्यात यह एक अल्पसंख्यक विद्यालय है जिसकी प्रबंध समिति में स्थानीय जनप्रतिनिधियों की कोई भूमिका नहीं होती. यह उन विद्यालयों में से एक है जिसने उत्क्रमण के लिए मिली कुल 39 लाख 50 हजार की रकम का खर्च खुद अपने स्तर से किया. इसमें न तो किसी सरकारी एजेंसी की कोई भूमिका रही और न ही भवन निर्माण  या अन्य खरीददारी के मद में किसी निविदा का सार्वजनिक विज्ञापन किया गया. स्कूल के प्रिंसिपल  एसए जार्ज के पदनाम से विभिन्न मदों में 39 लाख 50 हजार रुपये 2008-09 में चेक द्वारा दिए गए थे. प्रिंसिपल ने स्कूल प्रबंधन समिति के अनुमोदन के बाद रमन ऐंड एसोसिएट्स नाम की एक निर्माण एजेंसी को चुना. जार्ज कहते हैं. 'हम रमन ऐंड एसोसिएट्स से पहले भी काम करा चुके हैं इसलिए हमने उस एजेंसी से भवन निर्माण कराया.' पर सवाल यह है कि रमन एंड एसोसियेट्स का चयन खुद स्कूल प्रबंधन ने किया और वह भी अपनी मर्जी से. स्कूल प्रबंधन ने भवन निर्माण से संबंधी कोई टेंडर अखबार में जारी नहीं किया. टेंडर निकालने की स्थिति में कई एजेंसियां सामने आतीं और उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते निर्माण में कम खर्च आता. इतना ही नहीं, सरकारी अभियंताओं ने भी स्कूल प्रबंधन के इस फैसले का समर्थन किया और निरीक्षण करके भवन को स्कूल के हवाले भी कर दिया. स्कूल प्रबंधन समित ने सिर्फ भवन निर्माण में ही मनमानी नहीं की. उसने पुस्तकों, प्रयोगशाला व खेल सामग्रियों के साथ-साथ फर्नीचर की खरीददारी में भी अपने मन से फैसला लिया. इसके लिए 13 लाख 50 हजार रुपये सरकार ने आवंटित किए थे. प्रिंसिपल जार्ज तर्क देते हैं कि उन्होंने सबसे कम कीमत और अच्छी गुणवत्ता उपलब्ध कराने वाली एजेंसियों से खरीददारी की. वे कहते हैं, 'हमें खुदरा बाजार से 25 प्रतिशत कम पर पुस्तकें मिली हैं.' लेकिन सच्चाई यह है कि पटना के कई प्रकाशक खुदरा खरीददारों को बिन मांगे ही 25-35 प्रतिशत तक रियायत कर देते हैं. इसी तरह खेल सामग्रियों की खरीददारी में भी मनमानी की गई. 

छपरा

छपरा शहर स्थित विश्वेश्वर सेमिनरी विद्यालय में फरवरी, 2011 में चोरों ने नवनिर्मित भवन की कमजोर व बेजान खिड़कियों को तोड़ कर कंप्यूटर चुराने का असफल प्रयास किया था. स्थानीय लोगों की सजगता और तत्परता से चोर भाग गए थे. स्कूल की प्रधानाध्यापिका सीता सिन्हा ने इसकी सूचना स्थानीय पुलिस को भी दी थी. उसके बाद भवन को सुरक्षित और मजबूत करने के लिए स्कूल निधि से 70 हजार रु खर्च करके इस भवन में लोहे की ग्रील और मज़बूत खिड़कियां लगाई गईं. यहां गौर करने वाली बात यह है कि जिस भवन को स्कूल निधि से पैसे खर्च करके मजबूती प्रदान की गई उसे एक साल पहले ही 39 लाख रुपये की लागत से बनवाया गया था. इस स्कूल की जर्जरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी छत और दीवार के बीच कई दरारें पड़ चुकी हैं. बरामदे और दोनों कमरों का फर्श धंस कर तहस-नहस हो चुका है.
खिड़कियों के दरवाजे नदारद हैं. गुणवत्ता के स्तर पर इतनी खामियों के बावजूद प्रबंध समिति और कार्यकारी एजेंसी एनआरईपी ने ठेकेदारों द्वारा बनाए इस भवन को स्वीकृति देकर स्कूल के हवाले भी कर दिया है. इस दोमंजिला भवन की प्राक्कलित लागत 26 लाख रुपये थी. पर थोड़ा भी अनुभव रखने वाला कोई आम आदमी यह कह सकता है कि इतना 'मजबूत' भवन बनाने में छह-सात लाख से ज्यादा का खर्च नहीं आया होगा. स्कूल की मौजूदा प्राचार्य सीता सिन्हा साफ आरोप लगाती हैं कि इस भवन के निर्माण में बड़े पैमाने पर घोटाला किया गया. भवन निर्माण के अलावा फर्नीचर की खरीददारी छपरा के दुकानदारों की बजाय हाजीपुर से की गई. छपरा शहर से खरीददारी करने की बजाय किसी दूसरे जिले जाने और वहां से ढुलाई का अतिरिक्त खर्च वहन करने की बात समझ से परे है.

राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय, छपरा

राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय, छपरा के प्रांगण में दाखिल होकर आप जैसे ही स्कूल के मुख्य भवन के पीछे पहुंचते हैं तो आपका सामना एक खंडहरनुमा नए भवन से होता है. यही वह भवन है जिसे राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय को उत्क्रमित करके 10 जमा दो विद्यालय के रूप में स्वीकृत करने पर बनवाया गया है. निर्माण की गुणवत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि निर्माण कार्य के दौरान ही भवन का एक हिस्सा धंस गया. भवन की आधी छत पूरी हो चुकी है. आधी अब भी अपने भविष्य को तरस रही है. स्कूल की तत्कालीन प्रधानाध्यापिका शशि प्रभा ने 2008 में इसके निर्माण के लिए 13 लाख का चेक एनआरईपी को सौंप दिया था. 2011 के अप्रैल तक इस भवन में कभी थोड़ा-सा काम करा दिया जाता तो कभी रोक दिया जाता.

अप्रैल के बाद से अब यह काम पूरी तरह ठप पड़ा है. मौजूदा प्रधानाध्यापिका मंजुलता ने जब देखा कि भवन निर्माण का कार्य अधूरा पड़ा है और इसकी कार्यकारी एजेंसी यानी एनआरईपी से जुड़े इंजीनियर और ठेकेदार अप्रैल, 2011 से काम छोड़ चुके हैं तो उन्होंने एक सितंबर, 2011 को एनआरईपी को दिए जाने वाले बाकी 13 लाख रुपये सरकार को वापस कर दिए. मंजू लता कहती हैं, 'हमें आज तक इस बात की विधिवत जानकारी नहीं दी गई कि एनआरईपी इस भवन को किस भवन निर्माता से बनवा रहा है.' जिले के शिक्षा पदाधिकारी अनूप कुमार सिन्हा भी अनभिज्ञता जताते हैं. पर मंजूलता इतना जरूर बताती हैं कि एनआरईपी के अधिकारी इस भवन को किसी स्वतंत्र बिल्डर को देने की बजाय खुद ही बनवा रहे हैं. नियमानुसार कार्यकारी एजेंसी को नक्शा और प्राक्कलन बनाने के बाद किसी स्वतंत्र व रजिस्टर्ड ठेकेदार से भवन निर्माण का कार्य करवाना चाहिए. स्कूल की प्रधानाध्यापिका स्वीकार करती हैं कि इसके लिए अखबारों में टेंडर भी नहीं निकाला गया. अनूप कुमार सिन्हा मानते हैं कि गड़बड़ी हुई है और वह भी बड़े पैमाने पर. चूंकि तत्कालीन जिलाधिकारी प्रभात साह, तत्कालीन जिला शिक्षापदाधिकारी सैलेंस्टिन हंस्दा और विद्यालय की तत्कालीन प्रधानाध्यापिका शशि प्रभा प्रबंधन समिति के पदाधिकारी थे, इसलिए उनकी भूमिका इस निर्माण में महत्वपूर्ण है. यानी जवाबदेही भी उनपर जाती है. इसके अलावा पुस्तकों, प्रयोगशाला सामग्री और फर्नीचर की खरीददारी में भी नियमों की धज्जी उड़ाने का खुल्लमखुल्ला खेल किया गया. 
 
समस्तीपुर व वैशाली

समस्तीपुर और वैशाली दो ऐसे जिले रहे जहां घपले की प्रकृति कम गंभीर और  घपलों के संभावित खतरे का आतंक अधिक दिखा. वैशाली के दिग्घी स्थित एसएमएस श्री मुल्कजादा सिंह हाई स्कूल के प्राचार्य  शिवजी ने पैसों की बंदरबांट के डर से उनका इस्तेमाल ही नहीं किया और बाद में यह रकम लौटा दी. स्कूल के एक कर्मी बताते हैं कि स्कूल प्रबंधन समिति के कई सदस्य इस पैसे के खर्च होने से पहले ही अपने हिस्से की मांग करने लगे थे, जिसके कारण महीनों तक भवन निर्माण या खरीददारी का फैसला नहीं लिया जा सका.

जिले में पैसों का उपयोग न करके बाद में उसे वापस कर देने के और भी कई मामले हैं. समस्तीपुर के तिरहुत एकेडमी में भवन बनाने का काम तो शुरू हुआ पर तीन साल के बाद भी वह भवन अभी तक अधूरा पड़ा है. स्कूल के प्रधानाचार्य अमरनाथ ठाकुर बताते हैं कि उन्होंने भवन निर्माण के लिए 26 लाख रुपये का चेक एनआरईपी के हवाले 2008 में ही कर दिया था. लेकिन जो जानकारी सामने आई है उससे पता चलता है कि विभाग के एक सहायक अभियंता स्तर के अधिकारी वीके सिंह ने अपने स्तर पर ही किसी ठेकेदार के सहयोग से काम शुरू करवाया था. इस बात की पुष्टि अमरनाथ ठाकुर भी करते हैं. ठेकेदार के चयन की प्रक्रिया में किसी नियम का पालन करने के बजाए अपने करीबी ठेकेदार को तरजीह दी गई. फरवरी 2009  में शुरू हुआ यह काम अब भी अधूरा पड़ा है.

साफ है कि जिस पैसे का ठीक से इस्तेमाल करके शिक्षा की तस्वीर बदली जा सकती थी उससे निजी स्वार्थ पूरे कर लिए गए. इसका खामियाजा छात्रों और बड़े संदर्भ में कहें तो समाज को उठाना पड़ रहा है.


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