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न्यूज क्लिपिंग्स् | 'सबके लिए घर' के मायने - सुषमा रामचंद्रन

'सबके लिए घर' के मायने - सुषमा रामचंद्रन

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published Published on Jul 3, 2015   modified Modified on Jul 3, 2015
वर्ष 2022 तक प्रत्येक देशवासी को अपना एक घर मुहैया कराने की केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना यूं तो सराहनीय है, लेकिन इसके समक्ष कई अहम सवाल भी मुंह बाए खड़े हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि अगर घर बना भी दिए गए, तो उनकी गुणवत्ता कैसी होगी? उन तक बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, सफाई आदि की पहुंच कैसे होगी? उनके इर्दगिर्द जरूरी बुनियादी ढांचा जैसे स्कूल, अस्पताल होगा या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सोवियत शैली के कांक्रीट के बड़े-बड़े अपार्टमेंट ब्लॉक बनाकर लक्ष्यपूर्ति की औपचारिकता पूरी कर ली जाएगी? क्या इसका मतलब समाज के निचले तबके के लोगों को एक दूसरे तरीके से हाशिये पर धकेल देना तो नहीं होगा? इस महत्वाकांक्षी योजना को अमलीजामा पहनाने से पहले इस तरह के अनेक सवालों से सरकार को जूझना होगा। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन नीति-निर्माताओं को आगाह करने वाला हो सकता है कि हमें ऊपर से नीचे के बजाय नीचे से ऊपर का रुख रखना चाहिए, यानी समाज के अंतिम व्यक्ति को अपनी सोच में रखकर नीतियां बनानी होंगी।

जहां तक घरों की जरूरत का सवाल है तो देश की मौजूदा आबादी के मद्देनजर 6 करोड़ नए आवासों के निर्माण की जरूरत होगी। वर्ष 2022 तक यह संख्या बढ़कर 11 करोड़ हो सकती है। इसके लिए दो लाख करोड़ डॉलर के निवेश की दरकार होगी, जबकि घर बनाने के लिए केवल शहरी क्षेत्र में ही 1.7 से 2 लाख हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होगी। सरकार की नई योजना के तहत आगामी सात वर्षों में दो करोड़ नए घर बनाए जाएंगे। इसके अलावा कमजोर तबके को 6.5 प्रतिशत की दर पर कर्ज मुहैया कराए जाने के साथ ही झुग्गियों में रहने वाले लोगों के पुनर्वास के लिए प्रत्येक घर के लिए औसतन एक लाख रुपए की केंद्रीय अनुदान राशि उपलब्ध कराई जाएगी।

ये बहुत महत्वाकांक्षी प्रावधान हैं।

सबसे पहली चुनौती तो यही होगी कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि की उपलब्धता की स्थिति क्या है। रियल एस्टेट डेवलपर्स ने पहले ही कह दिया है कि यह योजना तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक कि सरकारी एजेंसियों के आधिपत्य वाली अनुपयोगी भूमि को मुक्त नहीं कराया जाता। इसमें रेलवे जैसे शासकीय महकमों और राज्य सरकारों की भूमियां शामिल हैं। यहां तक कि रक्षा विभाग के पास भी काफी मात्रा में जमीन है, जिसका कि या तो कोई उपयोग नहीं हो रहा है या अगर हो भी रहा है तो गोल्फ कोर्स जैसे गैरजरूरी कार्यों के लिए। इस संबंध में बाकायदा एक सर्वेक्षण कराने की जरूरत है कि आज सरकार के पास कितनी मात्रा में अनुपयोगी भूमि है और प्रस्तावित आवास परियोजना के लिए उसमें से कितनी भूमि का इस्तेमाल किया जा सकता है।

दूसरा अहम पहलू है योजना में किराए के मकानों को शामिल करना। वास्तव में यह योजना मूल रूप से किराए के मकानों के निर्माण के संबंध में ही थी, लेकिन बाद में इस विचार को त्याग दिया गया। मीडिया में आई खबरों पर यकीन करें तो बड़े पैमाने पर किराए के मकानों के निर्माण की योजना को भी बाद में नीतिगत रूप से अमल में लाया जाएगा, लेकिन माना जा रहा है कि नेशनल हाउसिंग मिशन की तरह उसके लिए राशि का आवंटन नहीं किया जाएगा। किराए के घरों के निर्माण की योजना बेघरबार और निर्वासित मजदूरों के लिए थी और यह पूरी तरह से उचित ही था। यदि इस वर्ग के लोगों को सस्ती दरों पर किराए के मकान मुहैया कराए जाएंगे तो निश्चित ही झुग्गी झोपड़ियों के निर्माण पर अंकुश लगाया जा सकेगा। लेकिन योजना को केवल मकानों के स्वामित्व तक सीमित करके सरकार ने एक बड़ी मजदूर आबादी को एक झटके में इससे दूर कर दिया है। ये लोग काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहते हैं। उन्हें न तो एक स्थायी आवास की जरूरत है और न ही वे उसे खरीदना वहन कर सकते हैं। नतीजा यह है कि सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना के बावजूद हमें इस तरह के नजारे दिखाई देते रहेंगे कि निर्माण श्रमिक सड़कों पर रह रहे हैं और उनके बच्चे निर्माणाधीन अपार्टमेंट ब्लॉक्स में खेल रहे हैं।

सरकार की योजना में चार श्रेणियों के आवास निर्माण का उल्लेख है, जिनका सरोकार झुग्गियों के पुनर्विकास, क्रेडिट-लिंक्ड सबसिडी, सहभागिता से निर्मित अफोर्डेबल आवास और घर निर्माण और मरम्मत के लिए हितग्राहियों को सबसिडी से है। दूसरे शब्दों में जो अतिनिर्धन लोग हैं, जिन्हें कि अपने सिर पर एक छत की सबसे ज्यादा दरकार है, उन्हें इन श्रेणियों से बाहर छोड़ दिया गया है। और जिस वर्ग के लोगों के लिए ये भवन बनाए जा रहे हैं, उनके लिए भी उचित गुणवत्ता के आवास और बुनियादी सुविधाओं का सवाल सामने है। कहीं ऐसा न हो कि डीडीए शैली के घटिया अपार्टमेंट बनाकर रख दिए जाएं, जैसा कि दिल्ली में हुआ है। उन अपार्टमेंटों के निर्माण के बहाने अधिकारियों से मिलीभगत करके अतिक्रमण करने की शिकायतें भी सामने आई हैं। और सबसे जरूरी बात यह कि नई आवासीय परियोजनाएं मूल बसाहटों से अलग-थलग न हों। वे हाशिये पर विकसित समुदायों की तरह न हों, जो मुख्यधारा से कटे हों।

जहां तक पीपीपी मॉडल का सवाल है तो हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि निजी क्षेत्र ने अभी तक गरीब और निम्न वर्ग के लोगों के लिए आवास निर्माण में न के बराबर रुचि दिखाई है। रियल एस्टेट क्षेत्र में हाल के दिनों में आई गिरावट के बावजूद उच्च और मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर ही आवासों का निर्माण किया जा रहा है। कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं, जबकि बड़ी संख्या में पहले ही निर्मित फ्लैट्स और मकान खाली पड़े हुए हैं। जो लोग इन अपार्टमेंट्स में फ्लैट खरीदना वहन कर सकते हैं, उन्हें भी अकसर बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझना पड़ता है और रहवासी संगठनों द्वारा डेवलपरों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराए जाने के मामले सामने आते रहे हैं। डीएलएफ विवाद इसी तरह का एक चर्चित मामला था, जिसमें प्रतिस्पर्धा आयुक्त द्वारा फ्लैटधारकों की शिकायतों को जायज ठहराया गया था।

इन तमाम कमियों और चुनौतियों के बावजूद सबके लिए घर परियोजना सरकार का एक सराहनीय कदम है। लेकिन लक्ष्यों को जमीनी रूप से अर्जित करने के लिए सरकार को अपनी योजना के प्रावधानों पर एक बार फिर से नजर डालना होगी।

(लेखिका आर्थिक मामलों की वरिष्ठ विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 


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