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न्यूज क्लिपिंग्स् | सबसे बड़े हिरासती नरसंहार का सच- विभूति नारायण राय

सबसे बड़े हिरासती नरसंहार का सच- विभूति नारायण राय

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published Published on Mar 25, 2015   modified Modified on Mar 25, 2015
हाशिमपुरा नरसंहार में आये कोर्ट के फैसले के बाद, भारतीय राज्य के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. यदि आजादी के बाद के इस सबसे बड़े हिरासती नरसंहार में वह हत्यारों को सजा नहीं दिला पाया, तो उसका चेहरा पूरी दुनिया में स्याह हो जायेगा.

उत्तर प्रदेश के मेरठ स्थित हाशिमपुरा में 1987 में हुए नरसंहार के आरोपित जवानों को दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट ने ठोस सबूतों के अभाव में पिछले दिनों बरी कर दिया. इसके साथ यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि उन 42 लोगों का कत्लेआम किसने किया था? हाशिमपुरा नरसंहार स्वतंत्र भारत में कस्टोडियन किलिंग (हिरासत में कत्ल) की सबसे बड़ी घटना है.

इसके पहले कभी पुलिस ने इतनी बड़ी संख्या में लोगों को हिरासत में लेकर नहीं मारा था. इसके बावजूद किसी अपराधी को दंडित नहीं किये जाने के फैसले से मुङो आश्चर्य नहीं हुआ है. मुङो शुरू से यही अपेक्षा की थी. दरअसल, भारतीय राज्य का कोई भी स्टेक होल्डर नहीं चाहता था कि दोषियों को सजा मिले. राजनीतिक नेतृत्व, नौकरशाही, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, मीडिया- सभी ने 22 मई, 1987 से ही इस मामले की गंभीरता को कम करने की कोशिश की थी. भारतीय न्याय प्राणाली की चिंता का आलम यह है कि इतने जघन्य मामले का फैसला करने में अदालतों को करीब 28 साल लग गये.

जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होते हैं, जो एक दु:स्वप्न की तरह हमेशा आपके साथ चलते हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सीने पर सवार रहते हैं. हाशिमपुरा मेरे लिए कुछ ऐसा ही अनुभव है. मैं उस समय गाजियाबाद का पुलिस कप्तान था. 22 मई, 1987 की रात करीब साढ़े दस बजे मुङो इस नरसंहार की जानकारी हुई. पहले तो सूचना पर यकीन नहीं हुआ. जब कलक्टर और दूसरे अधिकारियों के साथ घटनास्थल पर पहुंचा, तब एहसास हुआ कि मैं धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य के सबसे शर्मनाक कत्लेआम का साक्षी बनने जा रहा हूं. पीएसी के जवानों ने मेरठ के हाशिमपुरा से 42 मुसलमानों को उठाकर मेरे इलाके में लाकर मार दिया था.

22-23 मई, 1987 की रात दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरनेवाली नहर की पटरी और किनारे पर उगे सरकंडों के बीच टॉर्च की रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना और हर अगला कदम उठाने से पहले यह सुनिश्चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पड़े- मेरी स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह आज भी अंकित है. मैंने पीएसी के विरुद्ध एफआइआर दर्ज करायी और करीब 28 वर्षो तक उन सारे प्रयासों का साक्षी रहा हूं, जो भारतीय राज्य के विभिन्न अंग दोषियों को बचाने के लिए करते रहे हैं. इस पर मैं एक किताब लिख रहा हूं.

हाशिमपुरा संबंधी मुकदमे गाजियाबाद के लिंक रोड और मुरादनगर थानों में दर्ज हुए थे. लेकिन, कुछ ही घंटों में उनकी तफ्तीशें राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के आदेश से सीआइडी को सौंप दी गयीं. सीआइडी ने पहले दिन से ही दोषी पुलिसवालों को बचाने के प्रयास शुरू कर दिये. अपनी किताब लिखने के दौरान मैंने सीआइडी की केस डायरियां पढ़ीं, तो ऐसा लगा कि मैं बचाव पक्ष के दस्तावेज पढ़ रहा हूं.

कुल 19 अभियुक्तों में सबसे वरिष्ठ ओहदेदार एक सब-इंस्पेक्टर था. मैं कभी यह नहीं मान सकता कि बिना वरिष्ठ अधिकारियों की शह और अभयदान के मजबूत आश्वासन के, एक जूनियर अधिकारी 42 लोगों के कत्ल का फैसला कर सकता है! सीआइडी ने छोटे ओहदेदारों के खिलाफ चार्जशीट लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, फौज की भूमिका की गंभीर पड़ताल नहीं की. अपनी किताब के लिए सामग्री एकत्र करते हुए मेरे हाथ ऐसे दस्तावेज लगे हैं, जो दंगों के दौरान मेरठ में तैनात फौजी के बारे में गहरे शक पैदा करते हैं.

मजेदार बात यह है कि ये तमाम तथ्य सीआइडी के पास भी थे, फिर उसने इसे क्यों नजरंदाज किया? क्या यह सिर्फ लापरवाही थी या अपराधियों को बचाने का प्रयास? मैं थोड़े-से प्रयास से उस महिला तक पहुंच गया, जो घटना की सूत्रधार थी. हैरानी है कि सीआइडी उस तक क्यों नहीं पहुंच सकी? निश्चित रूप से सीआइडी के अधिकारी मेरे मुकाबले ज्यादा साधन संपन्न थे और उनके पास कानूनी अख्तियारात भी थे. दरअसल, वे नहीं चाहते थे कि इस हत्याकांड के अभियुक्तों की सही शिनाख्त हो और उन्हें सजा मिले.

मामला सिर्फ पुलिस-प्रशासन और जांच एजेंसी का ही नहीं है, बल्कि नेताओं ने भी इस मामले में आपराधिक चुप्पी अख्तियार की. जिस समय यह कांड हुआ, लखनऊ और दिल्ली, दोनों जगह कांग्रेस की सरकारें थीं. दोनों जगह सरकारें बदलती रहीं, लेकिन किसी ने भी इस मामले को चुनौती के रूप में नहीं लिया. खास तौर से उत्तर प्रदेश की सरकारों ने तो गंभीर लापरवाहियों से हत्यारों को दोषमुक्त होने में मदद की.

वर्षो तक दोषियों को निलंबित नहीं किया गया, आरोपितों के खिलाफ अभियोजन में देरी की गयी. गाजियाबाद कोर्ट में अभियुक्त पेश नहीं होते थे, इसके बावजूद राज्य के कान पर जूं तक नहीं रेंगती थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यह मुकदमा दिल्ली की अदालत में आया भी, तो लंबे समय तक योग्य अभियोजक नहीं नियुक्त किया गया. ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि राज्य को यह चिंता नहीं थी कि इतने जघन्य हत्याकांड में दोषियों को सजा मिले.

कुछ वर्षो पहले जब मैं एक फेलोशिप के तहत ‘सांप्रदायिक दंगों के दौरान भारतीय पुलिस की निष्पक्षता की अवधारणा' पर काम कर रहा था, दो तथ्यों ने विशेष रूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया था. सबसे पहले तो इस सच्चाई से मेरा साबका पड़ा कि गंभीर से गंभीर सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में भी कानून और व्यवस्था के रखवालों को लगभग न के बराबर दंडित किया गया था.

अहमदाबाद (1969 और 2002), सिख विरोधी दंगे (1984) या बाबरी विध्वंस (1992) और उसके बाद के दंगों (1992,1993) जैसे गंभीर मामलों में भी राज्य की मशीनरी न सिर्फ असफल थी, बल्कि कई मामलों में तो बलवाइयों को सक्रिय समर्थन भी दिया था, उनमें भी किसी दोषी अधिकारी को चिह्न्ति कर पाना मुश्किल था. दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा था हिंसा के दौरान हुई जान-माल की क्षति के लिए राज्य द्वारा दिये जानेवाले मुआवजे में अराजक विवेक की उपस्थिति. इन दोनों स्थितियों के लिए जिम्मेवार भारतीय कानूनों में सांस्थानिक प्रावधानों का अभाव है. तब सांप्रदायिक हिंसा के विरुद्ध प्रस्तावित बिल इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रख कर बनाया गया था.

मेरा मानना है कि हाशिमपुरा नरसंहार में आये कोर्ट के फैसले के बाद, भारतीय राज्य के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. यदि आजादी के बाद के इस सबसे बड़े हिरासती नरसंहार में वह हत्यारों को सजा नहीं दिला पाया, तो उसका चेहरा पूरी दुनिया में स्याह हो जायेगा. उसे अविलंब हरकत में आना चाहिए. एक ऐसी हरकत, जिससे हाशिमपुरा नरसंहार की एक बार फिर से निष्पक्ष तफ्तीश हो सके, और समयबद्ध न्यायिक कार्रवाई के जरिये हत्यारों को सजा दिलायी जा सके.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/367833.html


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