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न्यूज क्लिपिंग्स् | समझें महिला सशक्तीकरण के सही मायने - क्षमा शर्मा

समझें महिला सशक्तीकरण के सही मायने - क्षमा शर्मा

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published Published on Jul 8, 2015   modified Modified on Jul 8, 2015
कुछ दिन पहले एक महिला वकील ने मुंबई में रात को शराब के नशे में गाड़ी सोते हुए लोगों पर चढ़ा दी थी। दो-तीन दिन पहले एक डिजाइनर ने एक चाय के ढाबे में शराब के नशे में ही गाड़ी दे मारी और दो रोज पूर्व गुड़गांव में ऐसा हुआ। कुछ लोग कह सकते हैं कि पुरुष तो सैकड़ों की संख्या में ऐसी दुर्घटनाएं करते हैं। दो-तीन महिलाओं ने ऐसा कर दिया तो शोर-शराबा क्यों? तो क्या मान लें कि चूंकि पुरुष ऐसा करते हैं तो औरतें भी ऐसा ही करें? पुरुषों को हर कदम पर महिलाएं पछाड़ना चाहती हैं तो इस मसले पर भी भला क्यों पीछे रहें।

लेकिन नशे में गाड़ी चलाना तो महिलाओं और पुरुषों, दोनों के लिए अपराध है। कानून जो भी तोड़े, उसे महिला-पुरुष के खांचे से दूर रखकर सजा मिलनी चाहिए। सिर्फ इसलिए किसी को कानून तोड़ने, लोगों की जिंदगी से खेलने और गरीबों को बेमौत मारने की इजाजत नहीं दी जा सकती कि शराब पीकर गाड़ी चलाने और एक्सीडेंट करने वाली कोई महिला थी, क्योंकि अकसर रात में सड़कों के किनारे या दुकानों और ढाबों के बाहर गरीबों को ही सोने की जगह मिलती है। उनके पास कोई दूसरा आसरा नहीं होता।

सलमान खान के मामले में उनके कई अंध-समर्थकों ने कहा ही था कि गलती सलमान की नहीं, उन लोगों की थी जो फुटपाथ पर सोए थे। पिछले दिनों कई सर्वेक्षणों ने यह बताया है कि महिलाओं में शराब पीने की आदत बढ़ती जा रही है। इसी सर्वे के साथ एक रिपोर्ट भी आई थी कि शराब पीना पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिए अधिक हानिकारक है। यहां महिलाओं के शराब पीने या सिगरेट पीने पर कोई मॉरल पुलिसिंग नहीं की जा रही है। यह उनकी खुद की रुचि और अरुचि का मामला हो सकता है, लेकिन इस सोच से महिलाओं का कोई हित नहीं होने वाला कि यदि पुरुष शराब पीते हैं और नाइट लाइफ की वकालत करते हैं तो हम भी क्यों ना करें।

कुछ दशक पहले पहले जहां कोई लड़की सिगरेट या शराब पीते क्या, उसका नाम लेती तक दिख जाए तो उसे फौरन उसके चरित्र और बदचलनी से जोड़ दिया जाता था। यहां तक कि लड़कियों का पान खाना भी इतना वर्जित था कि पान खाती लड़की चालू और मर्दों को अपने जाल में फंसाने वाली मानी जाती थी। पान की दुकान पर खड़ी लड़की भी निंदा योग्य थी। ये घोर औरत विरोधी विचार ही थे, जिनका इस तरह का परिणाम लड़कियों को भोगना पड़ता था कि वे बिना कुछ किए अपमान और जिल्लत झेलने को मजबूर होती थीं।

उन्हीं दिनों गांवों में औरतें हुक्का और बीड़ी पीती थीं। गांवों में इन कारणों से कोई औरतों पर उंगली नहीं उठाता था। आज भी गांवों में और शहरों में गरीब तबके की औरतों में तंबाकू का सेवन अनेक तरह से मौजूद है, जिसके कारण वे बहुत बार गंभीर रोगों का शिकार भी होती हैं। उन दिनों और आज तक भी प्रगतिशील होने और दिखने, अपने दु:खों से निजात पाने और सिस्टम तथा समाज को ना बदल पाने के दु:ख में प्राय: शायर और लेखक लोग आपको नशा करते दिखेंगे। इस तरह के पात्र लेखन में और जीवन में दोनों जगह दिखते रहे हैं। इन्हें एक तरफ तो आदर्शीकृत किया जाता है तो दूसरी तरफ सहानुभूति का पात्र भी बनाया जाता रहा है।

शराब या सिगरेट को उन दिनों आज की तरह स्त्री सशक्तीकरण से नहीं जोड़ा जाता था। जैसे कि शराब पीकर औरतें अधिक मजबूत और दिलेर हो जाती हैं। वे कुछ भी कर सकती हैं। लड़के जिस तरह का फन और एडवेंचर करते हैं, तो वे भी क्यों न करें। अगर सचमुच शराब और स्त्री सशक्तीकरण में कोई रिश्ता होता तो भारत में ही ऐसे बहुत से इलाके मौजूद हैं, जहां पारंपरिक रूप से औरतें शराब पीती हैं और बड़ी तादाद में मर्दों के हाथों हिंसा का शिकार होती हैं। इसके विपरीत अपने आसपास की अन्य गरीब कामगार औरतों से पूछिए तो वे शराब को अपने जीवन और गृहस्थी के लिए सबसे बड़ा खलनायक मानती हैं। इनमें से अधिकांश के पिता, भाई या पति ना केवल अपनी कमाई, बल्कि इनकी कमाई भी शराब में उड़ा देते हैं। घर के लोग बहुत बार शराबजनित बीमारी का शिकार होकर जान दे देते हैं। ऐसे में परिवार को पालने की पूरी जिम्मेदारी इन औरतों पर आन पड़ती है।

गरीब, शहरी, ग्रामीण इलाकों की औरतों ने ही शराबबंदी के बड़े अभियान अपने देश में चलाए हैं। उनका कहना यह है कि पहले जहां भी नई फैक्ट्री खुलती है या नई मजदूर बस्ती बसती है, वहां सबसे पहली दुकान शराब की ही खुलती है। बहुत बार आंदोलनों के दबाव में ये ठेके बंद किए गए हैं। मगर सरकारें राजस्व के चक्कर में इन्हें फिर से खोल देती हैं। यही नहीं, हर साल जहरीली और नकली शराब पीकर भी हजारों लोग मर जाते हैं। यह कैसा सशक्तीकरण है जो लोगों की जान ले रहा है, बड़ी संख्या में औरतों को उजाड़ रहा है, तबाह कर रहा है? मगर हमारे तमाम प्रचार माध्यमों से ये बहुसंख्यक औरतें गायब हैं।

आज इन माध्यमों की नायिकाएं ब्रांड द्वारा प्रचारित-प्रसारित वे औरतें हैं जो अपने ऐश्वर्य के बल पर ताकतवर दिखती हैं, अपनी जेब से पैसे खर्च करके कुछ भी खरीद सकती हैं। अगर ध्यान से देखें तो आजकल दावतों और होटलों के बारे में एक वाक्य लिखा जाता है - वाइन एंड डाइन। यानी कि खाने का जरूरी हिस्सा शराब भी है। कुछ दिन पहले कुछ नौजवान और किशोरों का खुशी मनाते चित्र छपा था कि शराब पीने वालों की उम्र घटाई जा रही है। पहले भी यह तर्क दिया जाता रहा है कि अगर अठ्ठारह वर्ष की उम्र में कोई वोट दे सकता है तो शराब क्यों नहीं पी सकता। ठीक बात है। लेकिन एक तो शराब पीने के लिए पूर्वजों की नहीं, खुद की कमाई होनी चाहिए। दूसरे, शराब पीने के बाद अगर कार चलाएं तो इतना होश तो रहना ही चाहिए कि किसी की जान न चली जाए। और किसी की क्या, अपनी जान भी जा ही सकती है। मौत ना तो आदमी-औरत देखती है, ना ही यह कि वह किस शक्तिशाली के घर आ पहुंची।

-लेखिका स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं।

 


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