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न्यूज क्लिपिंग्स् | समाख्या की साथिनें- निवेदिता

समाख्या की साथिनें- निवेदिता

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published Published on Sep 6, 2015   modified Modified on Sep 6, 2015
हमारी मुलाकात ट्रेन में हुई थी। पहली बार जब मैं उससे मिली तो वह बेहद डरी और जिंदगी से हारी हुई दिख रही थी। वह परेशान थी अपने पति की लगातार हिंसा से। उसकी आंखों में मानो बादल तैर रहे थे, जिसे वह सबकी नजरों से बचा कर पोंछ लेती थी। जब हम बातें करने लगे तो पता नहीं उसके दिल का कितना कोना भीग रहा था। जैसे डूबते को तिनके का सहारा! वह मेरे करीब सरक आई थी। उसने अपनी जिंदगी के पन्ने खोल कर रख दिए। मैंने शायद उसके भीतर बैठी एक साहसी लड़की को जगा दिया था। फिर मैंने कागज पर उसे ‘महिला समाख्या' का नाम बताया और कहा कि शायद वहां तुम्हें मदद मिल सके। खैर, हाल में मैं उससे फिर मिली तो हैरान रह गई। गर्वीली और जीवन से भरी मिली वह। उसने बताया कि आपने हमें जो पता बताया था, उसी संगठन ने हमें रास्ता दिखाया। लेकिन आज सरकार इस संगठन को खत्म करना चाहती है। जिस संगठन ने मेरे जैसी जाने कितनी औरतों के जीवन को नई राह दिखाई है, वह इस तरह मर नहीं सकता। दरअसल, महिला समाख्या देश का अकेला संगठन है, जिसमें जुड़ने वाली पंचानबे प्रतिशत महिलाएं हैं। यह महिलाओं द्वारा महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए चलता है। ये महिलाएं राज मिस्त्री हैं, भवन निर्माण, खेतों, खदानों में काम करती हैं। ये कराटे जानती हैं, अपनी सुरक्षा खुद कर सकती हैं और स्त्री हिंसा के खिलाफ लोहा लेती हैं। देश की बीस लाख महिलाएं इस संगठन की हिस्सा हैं। एक ऐसे संगठन को बंद करने के पीछे किसी सरकार की आखिर क्या मंशा हो सकती है? केंद्र सरकार के एक फैसले के मुताबिक 2015-16 के बाद इस संगठन को बंद कर दिया जाएगा, जबकि बारहवीं पंचवर्षीय योजना के हिसाब से इसे 2017 तक काम करना है। यह त्रासदी है कि जिस संगठन ने एक बड़े दायरे में महिलाओं के जीवन को बदलने में इतनी बड़ी भूमिका निभाई, उसे बंद करने का निर्णय मौजूदा सरकार ने ले लिया है। कुछ समय पहले इस निर्णय के खिलाफ देश भर से आई हजारों महिलाओं ने दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना दिया। अब वे देशभर में पोस्टकार्ड अभियान चला रही हैं। महिलाएं कहती हैं- ‘या तो मरेंगे या अपना घर वापस लेंगे।' महिला समाख्या बीस लाख महिलाओं के लिए घर जैसा है। बिहार में इस संगठन की उम्र पच्चीस साल की है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत 1992 में महिला समाख्या कार्यक्रम बिहार के दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के बीच शुरू हुआ। राज्य में दस से तेरह करोड़ का सालाना बजट महिलाओं के लिए था जो किसी भी बजट से अनुपात में काफी कम है। उसे भी छीनने की तैयारी हो रही है। जबकि इन पच्चीस सालों में बिहार की दो लाख महिलाएं और दो लाख किशोरियां इसकी हिस्सा बनीं। यों देश के ग्यारह राज्यों में यह संगठन महिलाओं के बीच काम करता है। अलग-अलग प्रकार की हिंसा को झेल रही महिलाओं के लिए यह संगठन एक ताकत है, जिसकी मदद से वे अपनी लड़ाइयां लड़ पाती हैं। फिर ऐसा क्या हुआ कि इन निहत्थी महिलाओं से सरकार को खतरा लगने लगा। क्या कोई जानता है कि इन्होंने क्या सब झेला है अपनी जिंदगी में? इनमें से बहुत-सी महिलाओं को अलग-अलग वजहों से जला कर मारने की कोशिश की गई, कइयों की आंखों की रोशनी चली गई, बहुतों को डायन करार दे दिया गया, बच्चियों को गर्भ में मार दिया गया। लेकिन किसी तरह बच सकी ये महिलाएं सरकार और राजनीतिक दलों के लिए शायद सिर्फ वोट बैंक हैं। सवाल है कि क्या यह देश उनका नहीं है? इनसे सरकार को आखिर क्या डर है? सामाजिक हिंसा का मुकाबला करने वाली महिलाओं के इस संगठन ने तो समाज में बदलाव लाने की कोशिश की, ‘बिटिया जन्मोत्सव' की शुरुआत की। महिलाओं को कहा कि उन्हें अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग होना है। महिलाओं पर हिंसा करने वालों के खिलाफ ‘महिला अदालत' लगाया। जिस दौर में देश भर में शौचालय निर्माण के लिए अभियान चलाने की बात की जा रही है, ‘महिला समाख्या' ने पहले ही पिछले कुछ सालों में बिहार में एक लाख से ज्यादा शौचालयों का निर्माण किया है। इसने राज्य की लगभग पांच लाख किशोरियों को कराटे का प्रशिक्षण दिया और समाज में लैंगिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। तो समाज और सरकार को कहीं इस बात का डर तो नहीं है कि अपने अधिकारों के लिए सजग हो रही महिलाएं सत्ता के लिए खतरनाक हो सकती हैं? जो हो, महिलाएं जानती हैं कि सामाजिक असमानता और बेरहमी के विरुद्ध उन्हें लड़ना ही होगा। घोर दुखों के बीच अपने लिए जमीन तलाशनी होगी। वे जानती हैं कि उनकी दुनिया गुजर गई, पर वे इसका शोक नहीं मनाएंगी। अपनी घायल दुनिया के बावजूद वे भविष्य के लिए लड़ रही हैं। ( साभार-- जनसत्ता का कॉलम दुनिया मेरे आगे से )

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