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न्यूज क्लिपिंग्स् | सरकार ....! आखिर ये बौद्घिक नसबंदी क्यों ?-- आनंद पांडे

सरकार ....! आखिर ये बौद्घिक नसबंदी क्यों ?-- आनंद पांडे

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published Published on May 29, 2016   modified Modified on May 29, 2016
क्या अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर अब एक नई बहस का वक्त आ गया है? अभिव्यक्ति की आजादी कितनी हो और उसे किस तरह सार्वजनिक किया जाए...क्या इसको लेकर भी नए मापदंड बनाए जाने चाहिए? क्या अब बहस-विमर्श और समीक्षा इस बात को लेकर होनी चाहिए कि आजादी के इतने सालों बाद भी हमें समाज के एक बड़े बुद्घिजीवी वर्ग को सिर्फ इसलिए सामाजिक बहसों से दूर रखना चाहिए...क्योंकि वो प्रशासनिक अफसर हैं?

ये सारे सवाल हाल ही में फेसबुक पर नेहरू की तारीफ करने वाले बड़वानी कलेक्टर, अजय गंगवार(आईएएस) के तबादले और नरसिंहपुर कलेक्टर सिबि चक्रवर्ती को दिए गए कारण बताओ नोटिस के बाद उठ रहे हैं। चक्रवर्ती ने भी फेसबुक पर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को बधाई दी थी।

ऊपरी या सरसरी तौर पर ट्रांसफर की ये घटना महज एक प्रशासनिक फैसला भर दिखती है..तर्क दिए जा रहे हैं कि सरकार को ये फैसला मजबूरी में लेना पड़ा... क्योंकि प्रशासनिक अधिकारियों के लिए बना कोड ऑफ कनडक्ट...अधिकारियों को इस तरह सार्वजनिक टीका-टिप्पणी की कतई इजाजत नहीं देता है। तो सबसे पहले इसी कोड ऑफ कनडक्ट की चर्चा।

अखिल भारतीय सेवाओं पर नियंत्रण रखने वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) की वेबसाइट www.persmin.nic.in पर अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों के लिए जो आचार-व्यवहार संबंधी नियम (द ऑल इंडिया सर्विसेस (कनडक्ट) रूल्स,1968) दिए हैं उसमें कहीं भी ऐसा नहीं है। इन नियमों में 25 बिंदुओं के तहत दसवें क्रमांक के बिंदु में तीन नियम प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों की राजनीति में हिस्सेदारी,मीडिया से संबंध और सरकार की आलोचना के संबंध में दिए गए हैं।

बिंदु क्रमांक दस के अंतर्गत पांचवें क्रमांक पर (राजनीति और चुनाव में भागीदारी) बताया गया है कि प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों या उनके परिजनों को राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी नहीं रखनी चाहिए। छठवें क्रमांक के बिंदु(प्रेस और रेडियो से संबंध) के मुताबिक भी अधिकारियों की अभिव्यक्ति की आजादी को कहीं भी रोका नहीं गया है। हां, सातवें बिंदु (सरकार की आलोचना) में जरूर कुछ नियम ऐसे लिखे गए हैं जिनकी जरूरत के मुताबिक व्याख्या की जा सकती है।

इस नियम के तहत सिर्फ तीन ही सूरत में अधिकारियों को सरकार की आलोचना करने से रोका गया है। पहला तब जबकि आलोचना से राज्य या केंद्र सरकार की मौजूदा योजनाओं या गतिविधियों पर गलत असर पड़ रहा हो। दूसरा तब जबकि ऐसी आलोचना से केंद्र और राज्य के संबंध बिगड़ रहे हों और तीसरा तब जबकि आलोचना से केंद्र सरकार और किसी दूसरे देश के संबंधों पर असर पड़ रहा हो।

गंगवार का फेसबुक अकाउंट देखकर कतई ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने मोदी की आलोचना वाली जिस पोस्ट को लाइक किया था उससे ऊपर बताए गए किसी भी नियम का उल्लंघन हुआ हो। अगर उन्होंने नेहरू के कामकाज की तारीफ में कुछ लिखा भी था तो क्या नेहरू की तारीफ यानी मोदी की आलोचना है? एक सवाल ये भी उठता है कि फिलहाल प्रशासनिक अधिकारी जिन नियमों को मानने पर मजबूर हैं वो नियम आज से 48 साल पहले यानी 1968 में बनाए गए थे।

तब न तो इंटरनेट था...न फेसबुक थी और न ही सोशल मीडिया। ऐसे में किसी भी प्रशासनिक अधिकारी की तमाम काबिलियत को सिर्फ इसलिए खारिज कर देना और बतौर सजा उसका ट्रांसफर कर देना (हालांकि सरकार ट्रांसफर की वजह ऐसा नहीं मान रही) कि उसने एक पोस्ट को लाइक कर दिया है...किसी भी सूरत में उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

ये मान भी लिया जाए कि कलेक्टर के ट्रांसफर की वजह फेसबुक विवाद नहीं है तब भी टाइमिंग तो शक पैदा करता ही है। ऐसे में राजनीतिक सूझबूझ पर भी सवाल उठना तो लाजिमी है ही। असल में गंगवार का ट्रांसफर तो बहाना भर है...इस मौके को हमें एक नई और बड़ी सार्थक बहस की तरह देखना चाहिए।

ये बात सही है कि कोई भी सरकार, संगठन या व्यवस्था...अनुशासन और नियम-कायदों से ही चलती है। लेकिन क्या इस सब के नाम पर किसी विचार को व्यक्त करने की आजादी भी न देना बौद्घिक नसबंदी.. या बौद्घिक आपातकाल के समान नहीं है? विवेकशील विचारों को पल्लवित होने का पूरा मौका मिल सके ये किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी गुण और उसूल होना ही चाहिए।

अगर किसी अफसर का विचार तर्कसंगत है, समाज के हित में है, कोई अव्यवस्था नहीं फैला रहा है, कानून-व्यवस्था नहीं बिगड़ रही है तो उसे सार्वजनिक करने से क्यों रोकना चाहिए? वैेसे भी प्रशासनिक अफसरों के लिए जो नियम-कायदे बनाए गए थे वो अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के मुताबिक बनाए थे।

पहले की सरकारों ने अव्वल तो उन नियमों में ज्यादा बदलाव किए नहीं...दूसरा अगर किए भी तो सिर्फ दिखावटी। 2015 के पहले चौसठ सालों में अलग-अलग सरकारों ने सिर्फ 1301 कानून ही बदले थे जबकि सिर्फ पिछले दो सालों में ही मोदी सरकार ने 1151 गैरजरूरी कानूनों को बदल दिया है।

अपनी बात आम जनता तक पंहुचाने और जनता की राय जानने के लिए नरेंद्र मोदी खुद सोशल मीडिया का जबरदस्त और भरपूर इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में किसी कलेक्टर को इसी प्रसंग के तहत हटाए जाने से क्या अधिकारियों का मनोबल गिरेगा नहीं और क्या आखिरकार इसका खामियाजा आम जनता और लोकतंत्र को नहीं उठाना पड़ेगा? दुनिया का सिरमौर बनने का सपना देख रहा देश...ये लक्ष्य तभी हासिल कर पाएगा जब वैचारिक दरिद्रता और मानसिक दीवालियापन खत्म होगा...और ऐसा कम से कम सरकारों के इस तरह के फैसलों से होता तो कतई नहीं दिख रहा है।


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