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न्यूज क्लिपिंग्स् | सरकारी बेरुखी से बदहाल किसान--- संजीव पांडेय

सरकारी बेरुखी से बदहाल किसान--- संजीव पांडेय

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published Published on Dec 28, 2017   modified Modified on Dec 28, 2017
इस साल आलू की अच्छी फसल के बावजूद किसान बहुत परेशान हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक के किसान दस पैसे प्रति किलो आलू बेचने के लिए मजबूर हैं। हाल ही में पंजाब में किसानों ने जानवरों को ही आलू खिलाना शुरू कर दिया था। उधर उत्तर प्रदेश में सरकार ने इस बार आलू का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया था। इसके बावजूद आगरा और मथुरा के इलाके में किसानों ने कई जगहों पर मुफ्त में आलू बांटे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बाजार में आलू की कीमत न के बराबर होने के कारण किसानों ने कोल्ड स्टोरेज में पड़े अपने आलू को उठाना उचित नहीं समझा, क्योंकि बाजार में आलू बेचने के बाद भी वे कोल्ड स्टोर का किराया देने की स्थिति में नहीं थे। यह स्थिति केवल आलू उत्पादकों की नहीं है। गुजरात में मूंगफली उत्पादकों के हालात भी खराब हैं। कुछ यही हाल दाल उत्पादक किसानों का भी है। कई राज्यों में दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर खरीद केंद्रों की शुरुआत समय पर नहीं होने के कारण किसानों को बाजार पर निर्भर होना पड़ा। बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम कीमत पर किसानों को दाल बेचने के लिए बाध्य होना पड़ा। सवाल यही है कि क्या सरकार घोषणाओं के बावजूद जानबूझ कर किसानों को बाजार के हवाले कर रही है! अगर ऐसा नहीं है तो बाजार में हो रही खरीद का नियमन करने से सरकार क्यों भाग रही है?

 

हालांकि शायद अब राजनीतिक दलों को किसानों की नाराजगी का अहसास हो रहा है। उन्हें यह भी लगने लगा है कि किसान अब इस मसले पर आंदोलन करेंगे। गुजरात में ऐसे संकेत मिलने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा को किसानों और गांवों की तरफ ध्यान देने की सलाह दी। किसान इस समय लगभग हर राज्य में सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं। अगर सरकारी तंत्र समय रहते नहीं चेता, तो उसे एक बड़े किसान आंदोलन का सामना करना पड़ सकता है। यों भी इस देश के किसान आजादी से पहले और आजादी के बाद आंदोलनों में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं।

 


दरअसल, किसानों को समर्थन मूल्य के नाम पर भी बेवकूफ बनाया जा रहा है। देश में बाईस फसलों का समर्थन मूल्य सरकार तय करती है। लेकिन दिलचस्प है कि ये समर्थन मूल्य कागजों में तय होते हैं। सरकार केवल गेहूं और धान खरीदती है। गेहूं और धान की खरीद की बेहतर व्यवस्था भी चुनिंदा राज्यों में है। सरकार की सबसे बड़ी विफलता यह भी है कि उसने निजी क्षेत्र और खुले बाजार को अभी तक निर्धारित समर्थन मूल्यों के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया है। यही नहीं, जिन फसलों के समर्थन मूल्य तय हैं, उनके बारे में किसानों को जानकारी नहीं है।

 

 


राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के एक अध्ययन के मुताबिक देश के सिर्फ बत्तीस प्रतिशत किसानों को धान के समर्थन मूल्य की जानकारी है। जबकि उनचालीस प्रतिशत किसानों को गेहंू के समर्थन मूल्य की जानकारी है। अरहर की दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होता है, लेकिन उसकी खरीद तक नहीं होती। खुले बाजार में किसान अरहर की दाल न्यूतनम समर्थन मूल्य से कम पर बेचने को मजबूर हैं। कई राज्यों में जानबूझ कर सरकार खरीद केंद्रों की शुरुआत समय पर नहीं करती, ताकि किसान मजबूरी में बाजार में जाए। मध्यप्रदेश में किसानों को कई इलाकों में मूंग की दाल बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से लगभग दो हजार रुपए प्रति क्विंटल कम कीमत पर बेचनी पड़ी, क्योंकि समय पर खरीद केंद्र की शुरुआत कई इलाकों में नहीं की गई।

 

 


यही हाल गुजरात में मूंगफली की खरीद के साथ इस साल हुआ। सरकार ने मूंगफली का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4450 रुपए जरूर रखा, जो पिछले साल से दो सौ रुपए ज्यादा था। लेकिन खरीद केंद्रों पर किसानों से मूंगफली की खरीद नहीं की गई। किसान मूंगफली लेकर बैठे रहे। राज्य में कुल पैंतीस लाख टन मूंगफली का उत्पादन हुआ, लेकिन सरकार के पास खरीदने की क्षमता दो करोड़ बोरियों की थी। सत्रह करोड़ बोरियों की खरीद का कोई इंतजाम नहीं था। मूंगफली बेचने वाले किसानों का आरोप था कि सरकार के खरीद केंद्र इतने कम थे कि कई किसानों का खरीद केंद्रों पर नंबर ही नहीं आया। किसान लाइन में लगे रहे। यही नहीं, खरीद केंद्र पर जम कर भ्रष्टाचार हुआ।

 

 


पूरे देश से किसानों की आत्महत्या की खबरें अभी भी आ रही हैं। सरकारी आंकड़ों में माना गया है कि इसकी बड़ी वजह किसानों पर चढ़ा कर्ज है। कम से कम चालीस प्रतिशत किसानों ने कर्ज के बोझ के कारण आत्महत्या की। इसके अलावा, फसलों को बाजार के हवाले किया गया है। विदेशों से आयातित खाद्य पदार्थों ने किसानों की हालात काफी खराब कर दी है। सरकार विदेशों से आने वाले कृषि उत्पादों पर जानबूझ कर आयात शुल्क कम करती जा रही थी। इस कारण भारतीय किसानों को उनके उत्पादन की सही कीमत देश में नहीं मिल रही है।

 

 

 

अभी गेहूं की फसल के साथ यही हुआ है। गेहूं पर आयात शुल्क घटा कर दस प्रतिशत कर दिया गया था। यह किसानों का दबाव था कि नवंबर में आयात शुल्क बढ़ा कर बीस प्रतिशत कर दिया गया है। दरअसल, आस्ट्रेलिया, यूक्रेन समेत कई देशों से आयातित सस्ते गेहूं ने भारतीय किसानों की हालत खराब कर दी। जबकि बीते साल देश में 9.84 करोड़ टन गेहूं का रिकार्ड उत्पादन हुआ था। किसानों का तर्क है कि सरकार जानबूझ कर भारतीय कृषि को नुकसान पहुंचाने के लिए कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क कम करती जा रही है। ऐसे में किसानों के पास आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता है। 2014 में कृषि क्षेत्र में कुल 12,360 और और 2015 में लगभग 12,600 लोगों ने आत्महत्या की।

 


खुद सरकार स्वीकार कर रही है कि देश के किसानों की हालत खराब है। पिछले साल ही राज्यसभा में यह बताया गया था कि इस समय देश के किसानों पर कुल 12.60 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। इसमें से 1.45 लाख करोड़ रुपए का कर्ज क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने दिया है। 1.57 लाख करोड़ रुपए का कर्ज सहकारी बैंकों से संबंधित है। जबकि 9.57 लाख करोड़ रुपए का कर्ज वाणिज्यिक बैंकों ने किसानों को दिया है। किसानों की कर्ज माफी के मसले पर सरकार का बहाना होता है कि रिजर्व बैंक इसके लिए तैयार नहीं है, क्योंकि इससे बैंकों की सेहत पर असर पड़ता है। मगर दिलचस्प है कि जब कॉरपोरेट घरानों की कर्ज माफी की बात आती है तो यही सरकार तुरंत इस ओर कदम उठा लेती है। जबकि कॉरपोरेट घरानों द्वारा लिए गए कर्ज नहीं लौटाए जाने के कारण बैंकों का एनपीए (गैर निष्पादित संपत्तियां) दस लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। खासतौर पर मौजूदा सरकार के कार्यकाल में तेजी से एनपीए बढ़ा है।

 

 


सरकार कॉरपोरेट घरानों को दिए कर्ज को वसूलने के बजाय बैंकिग क्षेत्र के लिए एक कानून बना रही है। इस कानून में कॉरपोरेट घरानों के कर्ज से बैंकों की खराब हुई सेहत को आम आदमी के पैसे से सुधारा जाएगा। इस कानून से सबसे ज्यादा लाभ कॉरपोरेट घरानों को होगा। कॉरपोरेट घरानों द्वारा कर्ज नहीं लौटाए जाने के बाद बैंकों की खराब सेहत को सुधारने के लिए बैंक आम आदमी के पैसे का इस्तेमाल करेंगे। जाहिर है, यहां भी किसानों का नुकसान होगा। उनकी भी जमा पूंजी बैंकों में होती है, जिसका इस्तेमाल बैंक अपने सेहत को सुधारने के लिए करेंगे। गौरतलब है कि बैंकों का सकल एनपीए अनुपात में 19.3 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इसके लिए जिम्मेवार देश के किसान नहीं, बल्कि कॉरपोरेट क्षेत्र है।

 


https://www.jansatta.com/politics/besides-of-bumper-production-of-potato-farmers-are-unhappy/531906/


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