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न्यूज क्लिपिंग्स् | सरकारी स्कूलों में शिक्षा की खराब गुणवत्ता के लिए सिर्फ शिक्षकों को दोष देना उचित नहीं

सरकारी स्कूलों में शिक्षा की खराब गुणवत्ता के लिए सिर्फ शिक्षकों को दोष देना उचित नहीं

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published Published on Sep 5, 2016   modified Modified on Sep 5, 2016
देश के शिक्षा-संबंधी सभी अध्ययन और सर्वेक्षण इंगित करते हैं कि छात्रों का स्तर अपेक्षा से नीचे है. इस स्थिति के लिए आम तौर पर शिक्षकों को दोषी ठहरा दिया जाता है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि हमारे विद्यालयों का इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था बेहद लचर है. देश में एक लाख से अधिक विद्यालय ऐसे हैं, जहां सिर्फ एक शिक्षक है. अधिकतर विद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात समुचित नहीं है. ऐसे में छात्रों का खराब प्रदर्शन एक स्वाभाविक परिणति है. शिक्षकों पर दोष मढ़ने की जगह कमियों को दूर करने की कोशिश होनी चाहिए. शिक्षक दिवस के अवसर पर देश में स्कूली शिक्षा की दुर्दशा और शिक्षकों की बेबसी पर एक नजर...

अंबरीश राय

राष्ट्रीय संयोजक, राइट टू एजुकेशन फोरम

देश में सार्वजनिक क्षेत्र की स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर अक्सर चिंता जतायी जाती है. ऐसी रिपोर्ट भी आती रहती है कि सरकारी स्कूलों में पांचवीं-आठवीं के बच्चों को दूसरी-तीसरी के स्तर का ज्ञान भी नहीं होता. पहली नजर में बहुत से लोग इसके लिए सिर्फ सरकारी शिक्षकों को दोषी मान लेते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि शिक्षकों के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं.

देश में 1980 के दशक तक सरकारी स्कूलों का रिकॉर्ड बहुत अच्छा रहा और वहीं से पढ़े बच्चे आज कई क्षेत्रों में शिखर पर हैं. लेकिन, 1980 के दशक के बाद बड़े बदलाव हुए और शिक्षा को यूनिवर्सलाइज करने के नाम पर नॉन-फॉर्मल स्कूलिंग और पारा-टीचर्स, कम वेतनवाले संविदा अध्यापकों की संख्या बढ़ने लगी, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई. हमें यह समझना होगा कि शिक्षा की गुणवत्ता सिस्टम के कारण प्रभावित हुई, इसलिए शिक्षक को खलनायक की तरह पेश करना उचित नहीं है.

तमाम जद्दोजहद के बाद वर्ष 2002 में शिक्षा मौलिक अधिकार बनी और वर्ष 2009 में ‘राइट टू एजुकेशन एक्ट' आया. उस समय तय हुआ कि 2013 तक प्राइमरी लेवल पर 30 बच्चों पर एक शिक्षक और अपर-प्राइमरी लेवल पर 35 बच्चों पर एक शिक्षक होंगे. इसके अलावा और भी कई नियम तय किये गये. सर्व शिक्षा अभियान और अन्य कार्यक्रमों के तहत के तहत रखे गये सभी लो-पेड काॅन्ट्रेक्ट टीचर्स को मार्च, 2015 तक ट्रेनिंग मुहैया करा कर उन्हें नियमित किया जाना निर्धारित किया गया. इसमें शिक्षकों के सभी रिक्त पदों पर भरती कर लेने, छात्र-शिक्षक अनुपात, क्लासरूम की संख्या, लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट और प्लेग्राउंड समेत बुनियादी ढांचों के बारे में समग्रता से चीजें तय की गयीं. लेकिन, छह साल से ज्यादा समय बीतने के बावजूद हाल यह है कि अब तक 10 फीसदी से कम स्कूलों में ही ‘राइट टू एजुकेशन एक्ट' लागू हो पाया है.

बुनियादी सुविधाओं का अभाव है बड़ी वजह

मौजूदा समय में देश भर में 8.32 फीसदी स्कूल ऐसे हैं, जिनमें मात्र एक शिक्षक हैं. बहुत सारे ऐसे स्कूल हैं, जहां केवल दो शिक्षक सौ से दो सौ बच्चों को पढ़ाने के अलावा मिड-डे मील की देखरेख भी करते हैं.

बहुत कम ही स्कूलों में क्लर्क हैं. स्कॉलरशिप से लेकर यूनिफॉर्म मैनेज करने जैसे स्कूल के तमाम क्लर्कियल काम शिक्षकों के ही जिम्मे हैं. इतना ही नहीं, केंद्र या राज्य सरकार द्वारा संचालित की जानेवाली अनेक योजनाओं, अभियानों या कार्यक्रमों के लिए जिला प्रशासन को जब किसी लोकल नेटवर्क की जरूरत होती है, तो इस काम में भी शिक्षकों को लगा दिया जाता है. इसके लिए उन्हें अनेक मीटिंग में भी शामिल होना पड़ता है. जनगणना और पल्स पोलियो जैसे स्वास्थ्य कार्यक्रमों से लेकर चुनाव ड्यूटी व डिजास्टर मैनेजमेंट संबंधी विविध प्रकार के कार्यों की जिम्मेवारी इन्हें सौंपी जाती है. राजस्थान सरकार ने हाल ही में स्वच्छता अभियान से शिक्षकों को जोड़ते हुए आदेश जारी किया है कि उनके इलाके में जो लोग बाहर शौच के लिए जाते हैं, उनकी सूची बनाएं.

दूसरी ओर केंद्रीय, नवोदय और प्रतिभा विद्यालयों के शिक्षकों के साथ ऐसा नहीं होता, लिहाजा वहां के बच्चों के बारे में ऐसी रिपोर्ट नहीं आती कि सातवीं-आठवीं के बच्चे तीसरी-चौथी का ज्ञान नहीं रखते. वहां सरकार ज्यादा धन खर्च करती है और शिक्षकों की संख्या भी समुचित है. उनके जिम्मे केवल पढ़ाने का काम होता है और किसी तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाया जाता है.

जरूरी है कि शिक्षक चिंताओं से मुक्त होकर पढ़ा सकें

विकसित देशों से जब आप शिक्षा की तुलना करते हैं, तो यह नहीं देखते कि वहां शिक्षक केवल पढ़ाने का काम करते हैं, उनके जिम्मे कोई अन्य काम नहीं होता और वेतन भी बेहतर दिया जाता है. वर्ष 1966 में इस संबंध में गठित एक आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि देश को ऐसे समर्पित शिक्षक चाहिए, जो आर्थिक चिंताओं से मुक्त होकर बच्चों को पढ़ा सकें.

कैबिनेट सेक्रेटरी को ढाई लाख वेतन दिया जा रहा है, जबकि भविष्य के राष्ट्र निर्माता तैयार करनेवाले कॉन्ट्रेक्ट टीचर्स को तीन हजार रुपये दिये जा रहे हैं. ऐसे में गुणवत्ता कहां से आयेगी. जहां तक स्कूलों में बुनियादी ढांचों की बात है, तो देश के 50 फीसदी से ज्यादा स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट नहीं है. झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा समेत देश के अनेक राज्यों में स्कूलों में बच्चों को पीने का साफ नहीं मिलता है. बिजली या पंखे की तो बात ही छोड़िए. ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात कैसे की जा सकती है.

शिक्षकों के लिए सपोर्ट सिस्टम को मजबूत करना होगा

जरूरी नहीं कि उच्च-शिक्षा हासिल व्यक्ति अच्छी तरह पढ़ा सके. इसके लिए उन्हें ट्रेनिंग मुहैया कराना जरूरी है. देश में शिक्षकों के लिए सपोर्ट सिस्टम का घोर अभाव है. देश भर में 400 से ज्यादा डायट (डिस्ट्रिक्ट इंस्टिट्यूट फॉर एजुकेशन एंड ट्रेनिंग) हैं, लेकिन इनमें से करीब 50 फीसदी में फैकल्टी और हॉस्टल सुविधा नहीं हैं. करीब 92 फीसदी टीचर्स ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट प्राइवेट सेक्टर में है, जहां की हालत बेहद खराब है. शिक्षक भरती प्रक्रिया में टीइटी यानी टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट में इन कॉलेज के छात्रों का उत्तीर्णांक महज सात फीसदी है. इसलिए सबसे पहले टीचर्स ट्रेनिंग की व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा और सपोर्ट सिस्टम विकसित करने के लिए अनेक इंतजाम करने होंगे.

शिक्षकों के पांच लाख से ज्यादा पद रिक्त पड़े हैं

नयी शिक्षा नीति के तहत आइएएस कैडर की तरह ही शिक्षकों का भी कैडर बनाने की बात कही जा रही है. इसमें गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है. 2015 के बाद से आरटीइ पर कोई काम नहीं हो रहा. देश भर में पांच लाख शिक्षकों के पद रिक्त हैं और करीब 4.5 लाख अप्रशिक्षित शिक्षक हैं.

कानून के मुताबिक, अप्रशिक्षित को शिक्षक नहीं माना जा सकता है. यानी करीब 9.5 लाख शिक्षकों की जरूरत है. मौजूदा सरकार ने अपने पहले बजट में सर्व शिक्षा अभियान के तहत रकम 27 हजार करोड़ से घटा कर 22 हजार करोड़ कर दिया और दूसरे बजट में इस रकम में केवल 500 करोड़ की बढ़ोतरी की. ऐसे में सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कैसे मुहैया करायी जा सकती है.

(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)

बदहाली के लिए शिक्षा नीति जिम्मेवार

रुक्मिणी बनर्जी

सीइओ, प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन

प्राथमिक स्तर पर सार्वजनिक क्षेत्र की स्कूली शिक्षा की हालत खराब है और इसे लेकर हम सभी ने काफी चिंता जतायी है. हमने अपने शोधों और रिपोर्टों में इस बात को पाया है कि प्राथमिक पाठशाला के बच्चे अपनी कक्षा तो दूर, अपने से निचली कक्षाओं की किताबें भी ढंग से नहीं पढ़ पाते हैं.

लेकिन, इस स्थिति के लिए सिर्फ शिक्षक (प्राइमरी टीचर) जिम्मेवार नहीं है. प्राथमिक सरकारी स्कूली शिक्षा की इस हालत के लिए सिर्फ शिक्षकों पर ही कोई दोष नहीं मढ़ा जाना चाहिए. शिक्षक तो हमारी पूरी शिक्षा-व्यवस्था का एक हिस्सा मात्र है, न कि पूरी शिक्षा-व्यवस्था. प्राथमिक शिक्षा की इस दुर्दशा के लिए कई अन्य तथ्य भी जिम्मेवार-जवाबदेह हैं, इस बात को हमें समझना होगा.

शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करनेवाले कई हैं कारक : सबसे पहले हमें शिक्षा-व्यवस्था की उस हालत को देखने की जरूरत है, जिस हालत में एक शिक्षक बच्चों को पढ़ाने का काम करता है. अगर एक शिक्षक से पढ़नेवाले बच्चों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है, तो यह जरूरी नहीं कि शिक्षक ने मन से नहीं पढ़ाया. एक शिक्षक की गुणवत्ता को प्रभावित करनेवाले कई कारक हैं, जिनको दूर किये बिना शिक्षक से यह उम्मीद कर पाना मुश्किल है कि वह बच्चाें में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का वाहक बनेगा.

पहला कारक तो यही है कि हमारे नीति-निर्माता जो पाठ्यक्रम बनाते हैं, वह बच्चों के सोचने-समझने की क्षमता के स्तर से मेल नहीं खाता. हमारे नीति-निर्माता यह भी नहीं समझ पाते कि शिक्षक और पाठ्यक्रम में कोई तालमेल है कि नहीं. सिर्फ शिक्षक को शुरुआती ट्रेनिंग देकर छोड़ दिया जाता है कि वह उस पाठ्यक्रम को पूरा करने की जिम्मेवारी उठायेगा. शिक्षक यही करता है, उस पाठ्यक्रम को पूरा करने में ही शिक्षक का सारा समय चला जाता है. पाठ्यक्रम तो पूरा हो जाता है, लेकिन उस पाठ्यक्रम का कितना हिस्सा एक बच्चे के दिमाग में दर्ज हुआ, यह सवाल वहीं खड़ा हो जाता है. इसलिए हमें प्राथमिक स्तर

पर ऐसे पाठ्यक्रम की जरूरत है, जो बच्चों की सोचने-समझने की क्षमता और स्तर के अनुकूल तो हो ही, शिक्षकों के भी अनुकूल है, ताकि उसे पढ़ाने का आनंद आये.

मैं एक उदाहरण देती हूं. साल 2008 की गर्मियों में हमने बिहार के एक स्कूल में समर कैंप किया था. उस कैंप का उद्देश्य यह समझना था कि स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा बच्चों को वे कौन सी चीजें सिखायी जायें, ताकि उनमें शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ सके. इसके लिए हमने बच्चों के सोचने-समझने के स्तरों और क्षमताओं का अध्ययन किया. उस अध्ययन के आधार पर हमने उन्हें बहुत सी चीजें सिखायीं. शिक्षक भी वही थे और बच्चे भी वही थे. फर्क यह था कि शिक्षक, बच्चे, उनके मानसिक स्तर और माहौल, इन सब में एक गहरा और सकारात्मक तालमेल था, जिससे बच्चों को सीखने में आसानी हुई और शिक्षकों को सिखाने में. हमारी प्राथमिक शिक्षा-व्यवस्था में इसी तालमेल की जरूरत आज महसूस की जा सकती है.

पाठ्यक्रम में बदलाव के लिए शोध की जरूरत : प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था बच्चों को पढ़ाने के लिए है, उन पर पाठ्यक्रमों का बोझ लादने के लिए नहीं. वह भी ऐसे पाठ्यक्रम का बोझ, जिसे वे समझ ही नहीं पायें. अगर कोई शिक्षक बहुत ही अच्छा हो, पाठ्यक्रम उसके अनुकूल हो, लेकिन बच्चों का मानसिक स्तर उस पाठ्यक्रम के अनुकूल न हो, तो वह अच्छा शिक्षक भी उन बच्चों को अच्छी तरह नहीं समझा पायेगा. खासतौर पर पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों के ऐतबार से हमें पाठ्यक्रम में सुधार करना होगा. यह शोध का विषय है.

देशभर में यह शोध किया जाये कि हर राज्य-क्षेत्र-विशेष में बच्चों के सोचने-समझने की क्षमता का स्तर क्या है. उस स्तर के आधार पर ही पाठ्यक्रमों का निर्धारण हो. इस शोध में आंचलिकता, भाषा, बोली, व्यवहार, माहौल आदि भी शामिल होने चाहिए. मान लीजिए, एक बच्चा अपने घर में कोई भाषा बोलता है, घर के बाहर एक अलग भाषा को सुनता है, वहीं स्कूल में किसी और ही भाषा में उसे शिक्षा लेनी पड़ती है, ऐसे में वह यह समझ पाने में असमर्थ हो जाता है कि उसे आखिर चुनना किसे है. इस कशमकश में उसके दो-तीन साल निकल जाते हैं और जब वह अगली कक्षाओं में पहुंचता है, तो पिछली कक्षा की चीजें भी उसे याद नहीं रहतीं. अब ऐसे में शिक्षक को जिम्मेवार मान लेना तो कतई उचित नहीं होगा.

शिक्षकों को समय-समय पर शैक्षणिक सहयोग जरूरी : शिक्षकों के साथ एक और बड़ी समस्या है कि वे अपने काम से संतुष्ट नहीं हो पाते, क्योंकि उन्हें शैक्षणिक सहयोग (एकेडमिक सपोर्ट) नहीं मिल पाता है. प्राथमिक शिक्षकों को ट्रेनिंग के बाद एकदम से अकेला छोड़ दिया जाता है कि वे सब कुछ संभाल लेंगे. उन पर यह जिम्मेवारी धर दी जाती है कि वे किसी भी तरह से पाठ्यक्रम को पूरा उन्हें भी मार्गदर्शन की जरूरत है, कई मौकों पर मदद की जरूरत होती है, लेकिन वैसी स्थिति में वे अक्सर असहाय नजर आते हैं. हम शिक्षकों काे सहयोग नहीं करते हैं और हर छोटी बात के लिए उन्हें जिम्मेवार मान लेते हैं.

यह समझे बिना कि एक स्कूल में अगर 50 बच्चे हैं, तो वे सभी एक-दूसरे से बहुत अलग हैं और एक शिक्षक को हर एक बच्चे के बाल-मानसिक स्तर पर जा कर उन्हें पढ़ाना पड़ता है. यह बहुत आसान नहीं है. कई अन्य सुधारों के साथ हमारी नयी शिक्षा नीति के तहत हमें तीन मुख्य बिंदुओं पर सुधार करना होगा. पहला, स्कूली पाठ्यक्रम को बच्चों और शिक्षकों के अनुकूल बनाना होगा. दूसरा, बच्चों की भाषा-बोली पर विशेष ध्यान देना होगा. तीसरा, शिक्षकों को एकेडमिक सपोर्ट देना होगा.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

जानें, किस देश में कितने फीसदी बच्चे बनना चाहते हैं शिक्षक?

ओइसीडी देशों में 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के बीच हुए सर्वे के नतीजे चौंकानेवाले हैं

क्या है ओइसीडी : वर्ष 1960 में 18 यूरोपीय देशों और अमेरिका व कनाडा ने मिल कर आर्थिक विकास के लिए समर्पित एक खास संगठन का निर्माण किया, जिसे ओइसीडी यानी ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवपलमेंट नाम दिया गया. उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका से लेकर यूरोप और एशिया-पेसिफिक तक दुनियाभर में इसके 35 सदस्य देश हैं.

इस संगठन में दुनिया के सर्वाधिक उन्नत देशों के अलावा मैक्सिको, चिली और तुर्की जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को भी शामिल किया गया है. इसके अलावा यह संगठन पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना, भारत और ब्राजील जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में ज्यादातर विकासशील देशों के संपर्क में रहता है. मौजूदा समय में इसका मकसद एक मजबूत, स्वच्छ और साफ-सुथरी दुनिया के निर्माण करने में सतत योगदान बनाये रखना है.

भारत में बच्चों में शिक्षक बनने की कितनी जिज्ञासा?

आप किसी बच्चे (15 वर्ष से कम उम्र) से पूछेंगे कि वह क्या बनना चाहता है, तो ज्यादातर का जवाब होगा- वैज्ञानिक, इंजीनियर, पायलट आदि. बहुत कम ही बच्चे ऐसे मिलेंगे आपको, जिनका जवाब होगा कि वे शिक्षक बनना चाहते हैं. हालांकि, भारत में कितने फीसदी बच्चे शिक्षक बनना चाहते हैं, इस संबंध में कोई खास सर्वे या रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक आकलन के मुताबिक, बहुत कम ही बच्चे शिक्षक बनना चाहते हैं. यह बात अलग है कि बाद में वे इस सोच के साथ उन्मुख होते हैं कि किसी न किसी प्रोफेशन को तो उन्हें अपनाना ही होगा, लिहाजा इसे ही अपना लिया जाये. ऐसे में यदि आप ओइसीडी के देशों से भारत की तुलना करेंगे, तो यहां शिक्षक बनने में रुचि रखनेवाले बच्चों की संख्या बहुत कम मिलेगी.

 

देश के एक लाख से अधिक स्कूलों में सिर्फ एक शिक्षक

वर्तमान में देश में एक लाख पांच हजार 630 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल ऐसे हैं, जहां केवल एक शिक्षक पूरी स्कूल की सभी कक्षाओं को पढ़ा रहा है. हाल में संसद में पेश सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, सबसे खराब स्थिति मध्यप्रदेश की है, जहां 17,874 ऐसे स्कूल हैं.

उत्तरप्रदेश में 17,602 और बिहार में 3,708 स्कूलों में एक शिक्षक वाली स्थिति है. यह सरकारी रिपोर्ट भारत में स्कूली शिक्षा की बदहाल तसवीर पेश करती है. जमीनी तौर पर स्थितियां इससे भी बदतर हो सकती हैं. शिक्षण व्यवस्था एवं अन्य कार्यों के लिए शिक्षकों के उपयोग के चलते बहुत से स्कूलों में शिक्षकों के अभाव में ताला जड़ा भी मिल सकता है.


http://www.prabhatkhabar.com/news/special-news/story/855679.html


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