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न्यूज क्लिपिंग्स् | सामाजिक काम के वित्तीय मापदंड-- वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली

सामाजिक काम के वित्तीय मापदंड-- वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली

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published Published on May 1, 2017   modified Modified on May 1, 2017
सीएसआर फंड यानी कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी फंड यानी कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व कोष पर पहुंच बढ़ाना फंड खोजते गैर-सरकारी संगठनों की रणनीति का आज एक प्रमुख हिस्सा है। इन्ही संदर्भों में स्थितियां यहां तक पहुंच गई हैं कि कतिपय गैर-सरकारी संगठन अपनी वेबसाइटों में अपनी विशिष्टता यही बताते हैं कि वे कॉरपोरेट घरानों के लिए सीएसआर के काम करने व करवाने में पारंगत है, और इसके लिए उनसे संपर्क किया जाए। विडंबना तो यह है कि जो प्रावधान कॉरपोरेट को सामाजिक रूप से ज्यादा जिम्मेदार बनाने के लिए लाया गया है वही प्रावधान हमारे देश में सामाजिक गैर-सरकारी संगठनों, आम जन व कहीं-कहीं सरकारों को भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति अपेक्षित समर्पण से भटकाता हुआ भी दिख रहा है। सीएसआर से पैसा लेना व देना भी अवांछित तथा अनैतिक दलालों के माध्यम से होने लगा है। सीएसआर के धन को पारदर्शी ढंग से न बांटने के आरोप भारत सरकार के प्रतिष्ठानों पर भी लग रहे हैं। दो-तीन साल पहले की ही बात है कि भारत की नवरत्न कंपनियों में से एक का मामला उत्तराखंड में भी उठा था, और सही भी पाया गया था। स्पष्टता इस संदर्भ में भी करना चाहूंगा कि सीएसआर को लेकर अधिकांश की चिंता खांटी सामाजिक संगठन व सामाजिक व्यक्तियों को लेकर है, अन्यथा सीएसआर के धन के मोह में व उसे परोक्ष रूप से अपने पास रखने के लिए खुद सरकारें तथा कॉरपोरेट घराने अपने ही अधिकारियों व परिवारियों को लेकर गैर-सरकारी संगठन बना रहे हैं। कुछ राज्य सरकारें इस बात को लेकर भी खासी खफा दिख रही हैं कि कॉरपोरेट घराने अपनी ही संस्थाओं से सीएसआर के फंड से काम कराने लगे हैं, व उनके हिस्से कुछ नहीं आ रहा है। अत: अपने हित में इस संबंध में वे नियमन की भी बात करने लगी हैं।


अपनों को रेवड़ी बांटना शायद इसलिए भी हो पाता है कि सीएसआर का फंड किनको दिया जा सकता है, तथा किनसे कार्य करवाया जा सकता है और कहां खर्च किया जाना है, यह अधिकांशतया सीएसआर के लिए वित्त प्रदान करने वाली संस्था के ऊपर ही छोड़ दिया गया है। साथ ही यह भी अपेक्षा की गई है कि वे प्राथमिकता में धन उन्हीं क्षेत्रों में लगाएंगी जहां वे काम कर रही हैं। अनौपचारिक रूप से धनिकों द्वारा सामाजिक सरोकारों में धन लगाना तो सदियों से पूरे विश्व में प्रचलन में था, पर बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक उत्तरार्ध में ही पश्चिम में सीएसआर को ठोस रूप से प्रतिपादित व प्रचलित करने का काम हुआ। इसके अंतर्गत व्यावसायिक घरानों द्वारा एक अच्छे जिम्मेदार नागरिक के तौर पर आवश्यक रूप से सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का सिद्धांत दिया गया। आज तो कई देशों की सरकारों ने कॉरपोरेट घरानों को सामाजिक कार्यों में एक निश्चित लाभांश को लगाना कानूनन बाध्यकारी बना दिया है। भारत में भी मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में अगस्त 2013 में कंपनी विधेयक-2012 संसद से पारित हुआ था। इसके जरिए पांच सौ करोड़ नेटवर्थ से या उससे ज्यादा की कंपनियों या जिन कंपनियों का सालाना कारोबार एक हजार करोड़ रु. या उससे अधिक है या जिनका शुद्ध लाभ पांच करोड़ रु.या उससे ज्यादा है, उन्हें अपने पिछले तीन साल के शुद्ध लाभ के औसत का दो प्रतिशत सीएसआर में खर्च करने की वैधानिक बाध्यता तय की गई। कंपनियां खुद सामाजिक कार्य करें यह आवश्यक नहीं था। अनुमन्य फंडों में दान व अनुमन्य गतिविधियों में खर्च, दोनों भी एक साथ किए जा सकते थे। उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री राहत कोष में धनराशि देते हैं, तो वह भी उनका सामाजिक दायित्व निभाना माना जाएगा। दी गई राशि पर आनुपातिक टैक्स छूट दी जाती है।


निस्संदेह व्यावसायिक कंपनियां सीएसआर के धन का खर्च चैरिटी के रूप में तो नहीं करेंगी, क्योंकि कंपनियों में अंशधारकों का भी पैसा लगा होता है, जो अपने लगाए गए पैसे में बढ़ोतरी चाहते हैं। अत: रणनीतिक रूप से कंपनियां ऐसे धन से अपनी गिरती साख को बचाने, सत्ता व काम के लोगों से अपने संबंध ठीक करने, अपने खिलाफ क्षेत्रीय असंतोष को कम करने, परोक्ष रूप से अपने उत्पादों के बिक्री क्षेत्रों को बढ़ाने की भी कोशिश में लगी रहती हैं। जब इस तरह के जाल में सामाजिक कार्यकर्ता, सामाजिक संस्थाएं, आंदोलनकारी फंस जाते हैं तो उनमें अन्याय के प्रतिरोध और सही के पक्ष में खड़े होने की नैतिक प्रतिबद्धता में कमी आती है। जल विद्युत परियोजनाओं, खनन कार्यों, जीएम फसलों, रासायनिक खेती से पैदावार बढ़ाने वाली कंपनियां, जंक फूड तथा कोका कोला जैसे जल का बेहद उपयोग करने वाले या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योग जब सीएसआर में धन लगाते हैं तो उनके छुपे एजेंडे की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।


सामान्य समझ से तो यह मान ही लिया जाना चाहिए कि कोई भी व्यावसायिक प्रतिष्ठान सीएसआर में भी जो पैसा लगाएगा, उससे व्यावसायिक लाभ अवश्य लेना चाहेगा। यह चैरिटी या दान का काम या परलोक सुधार का काम तो हो ही नहीं सकता। समय आ गया है कि सीएसआर को हम अपने विवेक व न्याय के तराजू में तोलें व धन की ग्राह्यता पर विचार करें। एक तो है खुद गंदगी करते हुए, नुकसान करते हुए धनवान बनना और फिर दूसरों को गंदगी उठाने, नुकसान कम करने के कामों के लिए पैसा देकर अपने को सामाजिक जिम्मेदारियों में खरा दिखाना, और दूसरा है, खुद समाज को नुकसान न पहुंचाते हुए सकारात्मक सामाजिक कार्यों में अपना लाभांश लगाना।


सीएसआर केवल समाज के लिए धन देने से नहीं आंका जा सकता। आकलन में यह देखा जाना चाहिए कि वह लाभांश कैसे कमाया गया। कालाबाजारी से, भ्रष्ट तरीकों से अथवा सामाजिक-प्राकृतिक साझा संपदाओं भूजल भंडारों, जैव विविधता व आमजन के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा कर? लाइसेंस-परमिट राज में धन कमाने, काम हासिल करने में भ्रष्ट तरीकों तथा ‘पहुंच' की असरदार भूमिका थी। इस प्रक्रिया में जगह-जगह काला धन भी पैदा होता था। इस तरह अर्जित धन को कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी में इस्तेमाल करना यानी सीएसआर में ईमानदारी व नैतिकता के मानदंडों की अवहेलना करना क्या ठीक होगा? कौटिल्य ने भी नैतिकता से व्यापार करने की बात कही है । बापू तो उद्योगपतियों को कमाए गए धन का खुद को मालिक मानने के बजाय ट्रस्टी मानने की सलाह देते हैं। यदि इस सलाह का पालन हो जाए तब तो यह सीएसआर का उच्चतम मानदंड स्थापित करना होगा।


जैसे धन को कमाने के तरीके में सामाजिक जिम्मेदारी वाली नैतिकता की बात हो वैसे ही उसे संस्थाओं को देने में व उनके द्वारा खर्च करने में भी सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारी की बात होनी चाहिए। खासकर जब एनजीओ संचालकों पर तरह-तरह के आरोप लगते हैं, कि परियोजनाओं के लिए मिले धन को वे व्यक्तिगत हितसाधन व कभी-कभी विलासता में भी लगाते हैं। एक महत्त्वपूर्ण कसौटी यह होनी ही चाहिए कि जो प्रतिष्ठान सीएसआर के अंतर्गत सामाजिक कार्यों के लिए सामाजिक संस्थाओं को अपने लाभांश का हिस्सा दे रहे हैं, क्या वे अपने व्यावसायिक व्यवहारों में सामाजिक कर्तव्य-पालन करते रहे हैं? जिनका व्यवहार ऐसा नहीं है, क्या सामाजिक संस्थाओं को उनसे जुड़ना चाहिए? या पहली प्राथमिकता में क्या सामाजिक संस्थाओं के लिए यह ज्यादा सही नहीं होगा कि वे ऐसे घरानों को अपने को सोशल आॅडिटिंग के लिए प्रस्तुत करने को प्रेरित करें। हालांकि यह बहुत आदर्शवादी विचार है, पर जब तक ऐसा नहीं होता तब तक यह डर तो बना ही रहेगा कि सामाजिक दायित्वों के लिए निर्धारित कॉरपोरेट धन आम जन और सामाजिक संस्थाओं को उनके अपने सामाजिक दायित्वों से डिगा सकता है।


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