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न्यूज क्लिपिंग्स् | सिर्फ नियमों से नहीं लगेगी लगाम-- नीलंजन राजाध्यक्ष

सिर्फ नियमों से नहीं लगेगी लगाम-- नीलंजन राजाध्यक्ष

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published Published on Mar 7, 2018   modified Modified on Mar 7, 2018
भारतीय बैंकिंग की एक बुनियादी समस्या है, अनुचित इन्सेंटिव यानी प्रोत्साहन राशि। नीरव मोदी मामले के खुलासे के बाद हम बेशक वर्षों से कर्ज बांटने की खराब परिपाटी के कारण बैंकों की साख पर बन आए संकट पर अपना ध्यान केंद्रित करें, पर इन्सेंटिव पर भी कहीं अधिक गौर करने की जरूरत है।

इस इन्सेंटिव समस्या को अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी, शॉन कोल और एस्थेर डूफ्लो ने एक शोध पत्र में बखूबी बताया था। शोध पत्र का विषय था, डिफॉल्ट ऐंड पनिश्मेंट : इन्सेंटिव्स ऐंड लेंडिंग बिहेवियर इन इंडियन बैंक्स। तीनों अर्थशास्त्रियों ने बताया था कि बैंकों को डिफॉल्ट यानी कर्ज न चुका पाने की स्थिति से बचाने के लिए नहीं, बल्कि कर्ज बढ़ाने के लिए अपने कर्मचारियों को इन्सेंटिव देते हैं, फिर चाहे वही बैंककर्मी उन पैसों का इंतजाम करने में कुछ कमा लें। इस व्यवस्था में गिरवी रखी संपत्ति की गुणवत्ता को संरक्षित करने की आवश्यकता नहीं होती, और यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि फ्रंट-लाइन बैंकर यानी ग्राहकों से सीधा वास्ता रखने वाले बैंककर्मी अपने प्रयासों के लिए किस कदर पुरस्कृत या दंडित किए जाते हैं।

 


पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के सुर्खियों में आने के बाद बैंकों के आंतरिक नियंत्रण, कॉरपोरेट प्रशासन और कायदे-कानूनों की विफलताओं पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। ये निश्चय ही हल्के मसले नहीं हैं। इन पर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। हालांकि इन्हीं के बरक्स यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि बैंक शाखाओं में मौजूद उन कर्मचारियों से कैसे पार पाया जाए, जो धोखेबाजों से सांठ-गांठ करते हैं?

 

 


भारतीय बैंकों की इन्सेंटिव प्रणाली बहुत खराब है। वेतन ग्रेड वरिष्ठता के कड़े कानूनों में फंसा है। इसमें किसी कर्मचारी को बर्खास्त करना लगभग नामुमकिन होता है। दंडित करने के लिए तबादले का डर दिखाया जा सकता है, लेकिन यह अस्त्र भी आमतौर पर उन्हीं ईमानदार कर्मचारियों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है, जो खेल में शामिल नहीं होते। इन तमाम पहलुओं को सार्वजनिक क्षेत्र की संस्कृति के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। यह ऐसी संस्कृति है, जिसमें वरिष्ठ बैंककर्मियों का प्रदर्शन क्वालिटी की बजाय क्वांटिटी से आंका जाता है, अथवा पूंजी पर रिटर्न की बजाय यह देखा जाता है कि सरकार के राजनीतिक हित को पूरा करने के लिए कितना कर्ज दिया गया है। मौजूदा डूबे कर्ज कुछ हद तक इसी ‘क्रेडिट बबल' का नतीजा है, साथ ही दबदबे वाली इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनियों को राजनेताओं के दबाव में दिए जाने वाले कर्ज का भी यह परिणाम है।

 

 


सवाल यह है कि क्या इन्सेंटिव का बेहतर ढांचा बैंककर्मियों द्वारा कर्ज देने के तरीके को बदल सकता है? शॉन कोल ने बाद में मार्टिन कैंज और लिओरा क्लेपर के साथ मिलकर एक अन्य शोध के जरिए यह जानने का प्रयास किया कि अलग-अलग इन्सेंटिव योजनाएं बैंकरों के व्यवहार को किस तरह बदल सकती हैं? उन्होंने इस प्रयोग के लिए विभिन्न भारतीय बैंकों से 209 लोन अधिकारियों को जमा किया। उन बैंकरों को एक बार फिर उद्यमियों के ऋण आवेदन पत्रों का रैंडम सैंपल दिखाया गया, पर उन्हें यह कह दिया गया कि वे इन तमाम आवेदन पत्रों को नया मानें। वे ऐसे काजगात थे, जिन पर पहले ही कर्ज दिए जा चुके थे और शोधार्थियों को प्रयोग से पहले ही यह पता था कि कौन से कागजात अब भी दुरुस्त हैं, और कौन से डूबे कर्ज में शामिल हैं।

 

 


शोध में तीन तरह के इन्सेंटिव रखे गए थे। पहली तरह का इन्सेंटिव वह था, जिसमें प्रत्येक लोन पर संस्थान द्वारा अधिकारी को कमीशन देने की व्यवस्था थी। दूसरी तरह का अपेक्षाकृत कम इन्सेंटिव था, जिसमें अधिकारी अच्छे लोन पर छोटा सा पुरस्कार और बुरे लोन पर कुछ दंड के भागीदार होते। और तीसरी व्यवस्था में कहीं अधिक इन्सेंटिव का प्रावधान रखा गया था, जिसमें अच्छे लोन पर अधिकारी को भारी पुरस्कार और लोन के डिफॉल्ट होने पर कहीं भारी दंड का प्रावधान था।

 

 


इसके नतीजे काफी दिलचस्प आए। बैंककर्मियों ने उन मामलों में अधिक कर्ज बांटे, जब गिरवी में रखी परिसंपत्ति कम थी, पर उन्होंने उन मामलों में कहीं अधिक सावधानी बरती, जब गिरवी में रखी परिसंपत्ति अधिक थी। 2008 की उत्तरी अटलांटिक वित्तीय संकट के बाद भी कई शोधों में इन्सेंटिव समस्या की बात कही गई थी। बैंकरों को तब अत्यधिक सालाना बोनस दिया जाता था, जो इस पर निर्भर था कि अल्पावधि में कर्जधारक कितनी अच्छी सक्रियता दिखाते हैं, मगर लंबे समय तक के उनके घाटे करदाताओं द्वारा पूरे किए जाते थे।

 

 


इस इन्सेंटिव समस्या को उन सुविधाओं के बरक्स भी देखना चाहिए, जो प्रौद्योगिकी के कारण हमें मिल सके हैं। वैश्विक अनुभव यही बताता है कि ज्यादातर बैंकिंग धोखाधड़ी के मामले उन क्षेत्रों में होते हैं, जो ग्रे एरिया हैं यानी वहां अब तक कायदे-कानूनों का बंधन नहीं पहुंच सका है। इसीलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि मुंबई में पंजाब नेशनल बैंक की ब्रैंडी हाउस शाखा में इसलिए हेराफेरी मुमकिन हो सकी, क्योंकि तमाम निर्देशों के बावजूद अंडरटेकिंग लेटर के आंकड़े कोर बैंकिंग सिस्टम में अपलोड नहीं किए जा सके। स्विफ्ट मैसेजिंग सिस्टम का दुरुपयोग भी तकनीक के इस्तेमाल पर नियंत्रण में एक स्तर की विफलता का उदाहरण है।

 

आज बैंकिंग का मतलब है, बाइनरी अंकों का यहां से वहां होना और इन दिनों बैंक धोखाधड़ी जाली चेक से कहीं ऊपर उठ चुकी है। ऐसे में, बैंकों को इस तरह की एडवांस्ड डाटा ऐनलिटिक को इस्तेमाल करने की जरूरत है, जो एक तरफ आंतरिक नियमों का उल्लंघन करने वालों की पहचान कर सके और दूसरी तरफ गारंटी गतिविधि को परे धकेल सके। अहमदाबाद के भारतीय प्रबंधन संस्थान के जयंत वर्मा ने भी काफी अच्छी सलाह दी है। वह कहते हैं कि बैंकों को आंतरिक गतिविधियों पर निगाह रखने के लिए ब्लॉकचेन तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि ऐसा करने से पहले बैंकिंग गोपनीयता के सिद्धांतों को फिर से परखने की जरूरत होगी।

 


अभी तमाम बहस बैंकों के विनियमन के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है। कुछ बहस इन्सेंटिव की समस्या और तकनीक की संभावना पर भी किए जाने की जरूरत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

 


https://www.livehindustan.com/blog/story-nilanjan-article-in-hindustan-on-7-march-1836682.html


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