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न्यूज क्लिपिंग्स् | सिर्फ प्रशासनिक सोच से नहीं रुकेंगे अपराध-- भारत डोगरा

सिर्फ प्रशासनिक सोच से नहीं रुकेंगे अपराध-- भारत डोगरा

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published Published on Jan 29, 2015   modified Modified on Jan 29, 2015
पिछले पूरे साल के दौरान दिल्ली में लगभग डेढ़ लाख अपराध दर्ज किए गए। वास्तविक अपराध अवश्य इससे भी कहीं अधिक रहे होंगे, क्योंकि अनेक अपराध दर्ज नहीं होते। दर्ज अपराध के आंकड़ों को ही लें, तो यह बहुत गंभीर स्थिति है। मान लीजिए कि एक अपराध से यदि छह व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर प्रभावित होते हैं, तो मात्र पांच वर्ष में तकरीबन 45 लाख इस तरह प्रभावित होंगे, यानी शहर की करीब एक चौथाई आबादी।

अपराध इतने बढ़ जाते हैं, तो निश्चय ही अपराधों की दहशत भी बढ़ जाती है। अपराध से बचे रहने पर भी अपराध से प्रभावित होने का डर बना रहता है। समाज में, खासकर निर्धन बस्तियों में अपराधियों का दबदबा बढ़ता है। साथ ही, वहां रहने वालों के जीवन में घुटन बढ़ जाती है और वे अनेक तरह का अन्यायपूर्ण व अनुचित व्यवहार अपराधियों के डर से सहन करते रहते हैं। सबसे अधिक दबाव महिलाओं पर पड़ता है। समाज की बहुत सी क्षमता सुरक्षा उपायों में लग जाती है, जबकि अन्य महत्वपूर्ण कार्य पीछे रह जाते हैं।

यह वास्तव में चिंता की बात है कि देश की राजधानी में ठोस सुरक्षा व्यवस्था होने के बावजूद साल 2013 और 2014 के बीच अपराध दो गुणा बढ़ गए, जबकि सुलझाए जाने वाले अपराधों का प्रतिशत 49 प्रतिशत से कम होकर 30 प्रतिशत तक पहुंच गया। यदि बढ़ते सुरक्षा बजट के बावजूद अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि इसके व्यापक सामाजिक कारण हैं। समाज में ऐसे बदलाव आ रहे हैं, जिससे अपराध वृत्ति बढ़ रही है। यह स्थिति महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में और भी चिंताजनक है। निर्भया त्रासदी के बाद महिलाओं के लिए सुरक्षा बढ़ाने के कई प्रयास हुए हैं। इसके बावजूद 2013-14 के बीच दिल्ली में बलात्कार के मामले 1,571 से बढ़कर 2,069 हो गए (32 प्रतिशत वृद्धि), जबकि छेड़खानी के मामलों में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई। इतने अपराध एक वर्ष में एक शहर में हों, तो इससे समाज के बारे में क्या पता चलता है? उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, ऐसे 96 प्रतिशत मामलों में पीड़िता को अपराधी पहले से जानता था। इस स्थिति में मात्र सुरक्षा के उपाय बढ़ाने से अपराध नहीं रुकेंगे। सुरक्षा के उपायों के साथ समाज में कहीं व्यापक सुधार भी जरूरी हैं।

पुलिस सुधार और सार्वजनिक स्थानों को अधिक सुरक्षित बनाना बहुत जरूरी है। लेकिन साथ ही इस बारे में समझ बनाना भी जरूरी है कि बढ़ते अपराधों का समाजशास्त्र क्या है? किस तरह के सामाजिक बदलाव में अपराध बढ़ते हैं व किसमें कम होते हैं? शहर ही क्यों, अनेक गांवों में भी अपराध व अपराधियों का भय तेजी से बढ़ा है। दूरदराज के गांवों में तो बढ़ते अपराधों के बीच लोग बहुत असुरक्षित महसूस करते हैं और कभी-कभी तो इस कारण गांव छोड़ भी देते हैं। अपराध नियंत्रण सिर्फ प्रशासन का मामला नहीं है, हमें इसके समाजशास्त्र पर भी ध्यान देना होगा।

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