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न्यूज क्लिपिंग्स् | सुधार से उपजी चुनौतियां

सुधार से उपजी चुनौतियां

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published Published on Nov 3, 2009   modified Modified on Nov 3, 2009

यथास्थिति बनाए रखने वाली मौद्रिक नीति की घोषणा को एक सप्ताह भी नहीं बीता है कि विश्लेषक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा दिसंबर से पहले सख्त कार्रवाई का अनुमान जताने लगे हैं।

एक वाजिब सवाल यह है कि क्या अगले दो महीनों के दौरान नाटकीय रूप से ऐसा बदलाव आएगा कि हालात बेहतर हो जाएं। इसका जवाब किसी मौद्रिक प्रतिक्रिया के सही समय से निर्धारित होगा।

फिलहाल ज्यादातर लोग अनुमान लगा रहे हैं कि प्रतिक्रिया की शुरुआत नकद आरक्षित अनुपात में बढ़ोतरी से होगी और उसके बाद तेजी से बेंचमार्क रेपो और रिवर्स रेपो दरों में बढ़ोतरी की ओर कदम बढ़ाए जाएंगे। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि इन प्रतिक्रियाओं से मुद्रास्फीति के दबावों में तेजी से बढ़ोतरी होगी और ऐसे में माहौल और जटिल हो जाएगा।

विभिन्न कारक अर्थव्यवस्था को विभिन्न दिशाओं में बढ़ा रहे हैं और इनमें से किसी एक से निपटने के लिए उठाया गया नीतिगत कदम, किसी दूसरे कदम के असर को खत्म कर सकता है या किसी और जगह समस्या को बढ़ा सकता है।

यहां कुछ ऐसे कारणों का उल्लेख करना महत्त्वपूर्ण है जो उच्च विकास दर और व्यापक आर्थिक स्थिरता की दिशा में धीमी प्रगति को बाधित कर सकते हैं। पहला, तेल कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और फिलहाल यह 80 बैरल प्रति डॉलर के स्तर से अधिक है। कुछ हद तक वैश्विक सुधार के प्रति व्यापक आशावादिता के कारण ऐसा हो रहा है।

ऊर्जा की कीमतों में तेज बढ़ोतरी से अमेरिकी सुधार संकट में पड़ जाएंगे और ऐसे में वैश्विक संभावनाएं भी धूमिल हो जाएंगी। सुधार के कारण पूंजी उपयोगिता के कुल स्तर में बढ़ोतरी हुई है, ऐसे में तेल कीमतों के कारण मुद्रास्फीति में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। केंद्रीय बैंक 2008 के शुरुआती महीनों जैसी प्रतिक्रिया का दबाव महसूस कर सकते हैं। इस झटके में एक और मंदी की आशंका छिपी हुई है।

दूसरा कारक भारत के साथ ही उभरते हुए बाजारों के लिहाज से महत्त्वपूर्ण है। प्रतिफल की चाहत के कारण नकदी के अंतर्प्रवाह के रूप में परेशानी बढ़ सकती है। इस समय केंद्रीय बैंक नकदी की स्थिति को सख्त कर मांग को सामान्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में यह विदेशी मुद्रा अंतर्प्रवाह ऐसा करने की उनकी योग्यता को बाधित कर सकता है।

मुद्रा में तेजी हमेशा से एक विकल्प है लेकिन यह अपने साथ कुछ व्यवधानकारी असर भी लाती है। तीसरा, ऐसा लगता है कि संकट का मुकाबला करने के लिए उठाए गए राजकोषीय, मौद्रिक और वित्तीय नीतिगत उपायों ने मिलकर काम किया है, लेकिन इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि सकल पैकेज के किस घटक ने काम किया है और किसने काम नहीं किया है।

ऐसे में निकास की प्रक्रिया काफी जोखिमपूर्ण हो सकती है। दुनिया भर में व्यापक आर्थिक नीति इस समय निकास पर ही फोकस कर रही है। ऐसी स्थिति में इस बात की आशंका अधिक है कि नीतिनिर्माता गलत समय पर गलत कदम उठा लें।

ऐसे हालात में ताश के महल को ढहने से कोई रोक नहीं सकेगा है। इस संदर्भ में मौद्रिक कार्रवाई के समय और तीव्रता के बारे में कोई भी फैसला इस बात को ध्यान में रखकर करना चाहिए कि घरेलू और अंतराष्ट्रीय स्तर पर राजकोषीय और वित्तीय मोर्चे पर क्या हो रहा है। आगे बढ़ने का रास्ता मुश्किल से ही सुगम होगा।


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