Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | सुलगते दार्जिलिंग की राजनीति-- हरिराम पांडेय

सुलगते दार्जिलिंग की राजनीति-- हरिराम पांडेय

Share this article Share this article
published Published on Jun 23, 2017   modified Modified on Jun 23, 2017
पर्यटन के लिए विख्यात दार्जिलिंग में चार दशक पुराना गोरखा आंदोलन फिर से भड़क उठा है। भाषा के नाम पर एक पखवाड़े से चल रहा यह आंदोलन दबने का नाम नहीं ले रहा। दबाने के सरकारी प्रयास आग में घी का काम कर रहे हैं। इस इलाके की सबसे बड़ी पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नेपाली भाषियों के लिए अलग राज्य की मांग कर रही है। इस आंदोलन से उत्तर बंगाल की माली हालत बिल्कुल चौपट हो गई है। कानून और व्यवस्था की स्थिति अत्यंत खराब है। आंदोलन को दबाने के लिए फौज बुलानी पड़ी है।


पिछले दिनों मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य में माध्यमिक स्तर तक बांग्ला की पढ़ाई अनिवार्य कर दी और इसी के विरोध में दार्जिलिंग और कलिम्पोंग जैसे नेपालीभाषी बहुल जिलों में गोरखा मैदान में उतर आए। गोरखा समुदाय के लोगों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर यह आंदोलन साल 1980 में पहली बार शुरू हुआ था। गोरखालैंड बनाने की मांग 1986-88 के बीच जोरों पर थी और इस दौरान लगभग एक हजार लोग मारे गए थे। तब इसके नेता थे सुभाष घीसिंग, और अब इसके नेता हैं बिमल गुरंग। हालांकि भाषा तो एक बहाना है, क्योंकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बांग्ला भाषा की अनिवार्यता का कानून पर्वतीय जिलों में लागू नहीं होगा।


हिंसक आंदोलन और इसे लेकर गोरखा जन मुक्ति मोर्चा, केंद्र व राज्य सरकार की रस्साकशी अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं, मगर हाशिये पर कई स्वतंत्र तथा अहिंसक मार्च और रैलियां भी होने लगी हैं, जो जमीनी स्तर पर असंतोष की ओर इशारा कर रहीं हैं। संपूर्ण गोरखा जनता को बिमल गुरंग पर पूरा भरोसा नहीं है। कुछ ऐसे भी गोरखा संगठन हैं, जो पृथक गोरखालैंड तो चाहते हैं, पर बिमल गुरंग के तहत नहीं। ये आगे भी कठिनाई पैदा कर सकते हैं। मंगलवार को पहाड़ के सभी दलों की एक बैठक हुई और सबने मिलकर संकल्प लिया कि पृथक राज्य की मांग को समर्थन देंगे। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के आह्वान पर हुई इस बैठक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट, गोरखा राज्य निर्माण मोर्चा, गोरखा परिसंघ, भाकपा (आरएम) और भाजपा शामिल थीं। गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता नीरज जिंबा के अनुसार, यह समर्थन गोरखालैंड के लिए है, न कि गोरखा जनमुक्ति मोचा के लिए। वैसे जिंबा ने 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल को समर्थन दिया था। जिंबा ने तो यहां तक कहा है कि गुरंग को गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना होगा। ऐसे भी दल हैं, जिन्हें इस साझा बैठक के लिए बुलाया गया था, पर वे नहीं आए। कुछ गोरखा नेता ममता बनर्जी पर ‘फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाने का आरोप लगा रहे हैं। उनका कहना है कि ममता बनर्जी ने विकास बोर्ड का गठन करके और उसमें लेपचा, तमांग, भूटिया इत्यादि को शामिल कर हम लोगों की ताकत को विभाजित कर दिया है। सर्वदलीय स्तर पर बिमल गुरंग की पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को समर्थन न मिलना इसकी सबसे बड़ी कमजोरी कही जा सकती है। इसका लाभ तृणमूल कांग्रेस उठा सकती है।


हालांकि पहली नजर में ऐसा लगता है कि इससे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को घाटा होगा। लेकिन इसका राजनीतिक गणित इतना सरल नहीं है। एक राय यह है कि इससे तृणमूल को लाभ पहुंचेगा, क्योंकि इस अलगाववादी आंदोलन से बंगाली मानस क्षुब्ध है। जब यह खत्म होगा, तब राजनीतिक तौर पर बंगाली पहचान के एजेंडे को बल मिलेगा। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व का एजेंडा उठाया और उसके मुकाबले के लिए ममता बनर्जी ने बंगाली पहचान को हवा दे दी। उन्होंने यह आरोप लगाया कि भाजपा एक नई संस्कृति थोप रही है। इसे उन्होंने बंगाली संस्कृति पर उत्तर भारत की संस्कृति थोपने की कोशिश के रूप में प्रचारित कर दिया।


वह इसी को पुख्ता करने के लिए बांग्ला भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर रही हैं। इसी कोशिश से दार्जिलिंग इलाके के गोरखाभाषी उखड़ गए और उन्होंने विरोध का झंडा उठा लिया। आठ जून को दार्जिलिंग में कैबिनेट की बैठक थी और उसी दौरान गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने आंदोलन का बिगुल बजा दिया। हालांकि तब तक ममता बनर्जी ने गोरखाभाषी इलाकों में बांग्ला की अनिवार्यता खत्म करने की घोषणा कर दी थी।


ताजा आंदोलन के बाद पश्चिम बंगाल में कहा जाने लगा है कि एक बार फिर बंग-भंग की कोशिश हो रही है। 1986 में जब गोरखालैंड आंदोलन शुरू हुआ था, तो राज्य में माकपा का शासन था और उसने जनता को पक्का आश्वासन दिया था कि बंगाल की क्षेत्रीय अखंडता बनी रहेगी। यहां तक कि माकपा ने सिलीगुड़ी में बंगाली चेतना को जगाने के लिए कई मंचों को पैसा भी दिया था। 2011 के चुनाव में माकपा हार गई और तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी, पर इस मामले में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। दार्जिलिंग कोलकाता से ही शासित होता रहा। दरअसल, बंगाली बहुल इस राज्य में क्षेत्रीय मोह बहुत ज्यादा है। यहां के समाज को बंगभूमि के नाम पर किसी भी हद तक उकसाया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि बंगाली मीडिया राष्ट्रीय मीडिया से इस मामले में अलग है। बंगाली मीडिया दार्जिलिंग मसले पर मुख्यमंत्री के साथ है और केंद्र की आलोचना में जुटा है। कोलकाता से प्रकाशित होने वाले एक अंग्रेजी दैनिक ने तो दार्जिलिंग की समस्या की तुलना कश्मीर से करते हुए केंद्र पर आरोप लगाया कि उसने कश्मीर में पत्थरबाजों को सख्ती से काबू करने की कोशिश की, जबकि गोरखालैंड के मामले में चुप बैठी है।


इस बंगाली पहचान की समरनीति से भाजपा परेशानी में पड़ गई है। भाजपा ने पहाड़ पर जनमत तैयार करने की दूरगामी नीति गढ़ी थी। 2009 में सुषमा स्वराज ने लोकसभा में पृथक गोरखालैंड की मांग का समर्थन किया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि वह गोरखालैंड की बहुत पुरानी मांग पर सहानुभूति पूर्वक विचार करेगी। इसके बाद गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने भाजपा को समर्थन दिया और वह दार्जिलिंग सीट आसानी से जीत गई। लेकिन 2017 में भाजपा की राज्य इकाई ने साफ कह दिया कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से चुनावी गठबंधन था, इसमें गोरखालैंड के समर्थन की कोई बात नहीं थी। दरअसल, भाजपा को मालूम है कि यदि वह बंगाल में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर आना चाहती है, तो इसके लिए गोरखालैंड का समर्थन घातक होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


http://www.livehindustan.com/blog/latest-blog/story-tourism-darjeeling-gorkha-movement-gorkha-janmukti-morcha-1151661.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close