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न्यूज क्लिपिंग्स् | सूचना अधिकार में सेंध- गौरव कुमार

सूचना अधिकार में सेंध- गौरव कुमार

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published Published on Nov 2, 2012   modified Modified on Nov 2, 2012
जनसत्ता 1 नवंबर, 2012: पारदर्शी, भ्रष्टाचार-मुक्त, लोकहित केंद्रित कल्याणकारी प्रशासन के वादों के साथ बारह अक्तूबर 2005 को यूपीए सरकार ने सूचना का अधिकार कानून लागू किया। देश में अपनी तरह का यह पहला कानून था, जिसने लोगों के हाथ में सूचना पाने का अधिकार दिया। इसके पहले 1923 का जो कार्यालय गोपनीयता कानून था वह ब्रिटिश-हितों के लिए बनाया गया था, जिसके अंतर्गत यह प्रावधान था कि जनता को सरकारी कामकाज के विषय में जानकारी पाने का कोई हक नहीं है। 2002 में सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम बनाया गया। पर यह देश की बदलती जरूरतों के अनुकूल नहीं था। 2005 के सूचना अधिकार कानून (आरटीआइ) से जब जनता के हाथ में यह ताकत आई कि वह किसी भी सरकारी कामकाज की जानकारी पा सकती है, तब यह आशा की गई कि भ्रष्टाचार से पीड़ित देश को कुछ राहत मिलेगी।
इसमें कोई शक नहीं कि इस कानून से जनता को काफी लाभ मिला है। लेकिन इसका लाभ उठाने में कुछ ही लोग सफल हो सके हैं। साथ ही इस कानून के कारण देश में भ्रष्टाचार के कई मामलों का खुलासा हुआ। लोगों में इसके प्रति उत्साह भी देखा गया है। लेकिन शासन-प्रशासन को यह कानून सिरदर्द लगने लगा है। जो लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं उनमें डर भी पैदा हुआ है। इसीलिए आरटीआइ कार्यकर्ताओं पर भ्रष्ट तत्त्वों के हमले की घटनाएं हुई हैं, कई कार्यकर्ताओं की हत्या तक हुई है।
जोखिम उठा कर भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने वाले कार्यकर्ताओं की सुरक्षा से ज्यादा फिक्र सरकार को इस बात की है कि कैसे सूचनाधिकार कानून के पर कतरे जाएं। दरअसल, अब सरकार को लगता है कि यह कानून उसके लिए कई परेशानियों का सबब बनता जा रहा है। शायद यही वजह है कि इस कानून की धार को कुंद करने का प्रयास शुरू हो गया है। इस तरह की कोशिश को औचित्य प्रदान करने के लिए कानून के दुरुपयोग के आंकड़े इकट्ठा किए जा रहे हैं।
हाल में प्रधानमंत्री ने सूचना आयुक्तों के सातवें सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि अगर सूचनाधिकार कानून से किसी की निजता का उल्लंघन होता है तो जरूर इस पर कड़ा नियंत्रण होना चाहिए। उन्होंने इस कानून के सहारे बेतुके मुद््दों पर जानकारी लेने वालों की भर्त्सना की और कहा कि व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए इस कानून का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जा रहा है, जो कि उचित नहीं है।
यह सही है कि कई तरह के व्यक्तिगत झगड़ों और बदले की भावना से इस कानून के दुरुपयोग की खबरें भी आ रही हैं। लेकिन इस समस्या का हल कानून को कम प्रभावी बना कर नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर देखें तो इस कानून की बदौलत ही भ्रष्टाचार के बहुत-से मामले उजागर हो रहे हैं। कई मंत्री और नेता तक आरोपों से घिरे हैं।
हाल में डीएलएफ और राबर्ट वडरा के बीच जमीन के संदेहास्पद सौदों का मुद््दा उठा। इसी बीच सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद के न्यास पर विकलांगों की मदद के लिए मिले अनुदान की हेराफेरी के आरोप लगे। ये सभी जानकारियां सूचना कानून के कारण ही आमजन के सामने आ सकी हैं। यह अलग बात है कि जब भी भ्रष्टाचार का मसला उठता है तो यूपीए सरकार यही हवाला देती है कि उसी ने सूचनाधिकार कानून लाने की पहल की। चुनाव के दौरान भी वह इस कानून का श्रेय लेने में कोई कसर नहीं छोड़ती। मगर आज जब सरकार की गर्दन फंस रही है तो इस कानून को निष्प्रभावी कर देने या इसका इस्तेमाल कठिन बना देने की तैयारी हो रही है। 
एक नीति का मसविदा भी इसके लिए  तैयार किया जा चुका है जो कि सूचना का अधिकार नियम-2012 के नाम से बना है। इस नीति को जल्द लाने पर विचार चल रहा है। इस नए नियम की अधिसूचना इकतीस जुलाई को ही जारी कर दी गई थी। हालांकि कहा तो यह भी जा रहा है कि नया नियम सूचना कानून के दायरे को और विस्तार देगा, जिससे जनता के हाथों में और भी अधिक और विस्तृत अधिकार आएंगे। पर प्रस्तावित प्रावधानों को देख कर ऐसा नहीं लगता कि इनसे सूचना अधिकार को और मजबूती मिलेगी।
नए नियम बनाने में कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग इक्कीस माह से लगा हुआ है। पंद्रह नए बदलावों के साथ संशोधित नीति बन कर तैयार है। इस नीति के दूरगामी नतीजे होंगे। क्योंकि हमारा देश इस कानून के प्रयोग में अब तक सशक्तनहीं हो सका है। बजाय इसके कि इसे और विस्तार दिया जाए, इस कानून में संशोधन करके लोगों के उत्साह पर पानी फेरने का प्रयास किया जा रहा है।
इस कानून से सरकार को हुई क्षति का आकलन करने से नए प्रावधानों के पीछे छिपे मकसद को समझना मुश्किल नहीं है। नए प्रावधानों की बाबत एक नौकरशाह-मित्र से बात हुई तो उनकी त्वरित टिप्पणी यह थी कि इस बदलाव से लोग आवेदन देने से हिचकेंगे, जिससे भ्रष्टाचार करने वालों को पकड़ना मुश्किल हो जाएगा। अब नौकरशाह और नेता दोनों जम कर भ्रष्टाचार कर सकेंगे। जाहिर है, देश में वैसे नौकरशाहों और राजनीतिकों की कमी नहीं है जो कि इन प्रावधानों का जोरदार स्वागत करेंगे। लेकिन जो लोग भ्रष्टाचार से कदम-कदम पर त्रस्त हैं, उनके लिए यह बदलाव बहुत निराशाजनक होगा।
नए नियम के कुछ प्रावधानों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार सूचनाधिकार कानून को कुंद किया जा रहा है। मसलन, नियम-तीन के तहत यह प्रावधान किया गया है कि इस कानून के तहत सूचना मांगने वालों को आवेदन में   अधिकतम पांच सौ शब्दों का प्रयोग करना होगा। कई राज्यों में- जैसे बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और कर्नाटक में- तो यह सीमा मात्र एक सौ पचास शब्दों की है। बिहार में यह भी प्रावधान रखा गया है कि एक आवेदन में केवल एक विषय पर सूचना मांगी जा सकती है।
हालांकि सरकार का कहना है कि शब्द-सीमा के आधार पर आवेदन निरस्त नहीं किए जाएंगे। पर कई आरटीआइ कार्यकर्ताओं में यह आशंका व्याप्त है कि इसको आधार बना कर आवेदन खारिज किए जा सकते हैं। इसके अलावा, इस बदलाव को लेकर यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या सरकार भूल गई कि देश में बहुत-से लोग निरक्षर हैं। फिर, साक्षरों में काफी लोग अल्पशिक्षित हैं। जिन्हें ठीक से लिखना भी नहीं आता वे शब्द-सीमा का कितना पालन कर सकेंगे? अपनी बातों को निर्धारित शब्द-सीमा में कहना शिक्षित और कुशल लोगों के लिए ही संभव है। जबकि सूचना अधिकार कानून सार्वभौम है यानी देश की समूची जनता को दिया गया है। आम लोग शब्द-सीमा का पालन न करने की तकनीकी गलतियां कर सकते हैं, जिसका नतीजा यह होगा कि उसे सूचना देने से मना कर दिया जाएगा।
नियम तीन और चार के तहत यह कहा गया है कि आवेदक को डाक-खर्च वहन करना होगा, अगर वह पचास रुपए से अधिक होता है। साथ ही संबंधित विभाग में जाकर कागजात के निरीक्षण के लिए पहले एक घंटे के बाद हर अगले एक घंटे के लिए पांच रुपए देने पड़ेंगे। आवेदक को अपेक्षित दस्तावेज पाने के लिए प्रति कॉपी दो रुपए भी देने होंगे।
कुल मिला कर आम आदमी के लिए इस कानून को खर्चीला बनाने की कोशिश हो रही है, ताकि लोग हतोत्साह हों। हालांकि सरकार का दावा है कि बीपीएल परिवारों को कुछ प्रकाशन मुफ्त में दिए जा सकते हैं। लेकिन हमें यह भी देखना चाहिए कि आरटीआइ के तहत आवेदन करने वालों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या काफी कम है।
इसके अलावा, नए नियम आठ और नौ में कहा गया है कि जब आवेदकसंबंधित विभाग से सूचना नहीं पा सका है और उसे दूसरी अपील करनी है तो नियम नौ के अनुसार उसे संपूर्ण वांछित सबूतों और दस्तावेजों को प्रस्तुत करना होगा। अगर वह निर्धारित दस्तावेज प्रस्तुत नहीं कर पाता तो उसकी अपील खारिज कर दी जाएगी। यह एक ऐसा तकनीकी पहलू है जो आवेदक को हतोत्साह करने वाला है। इसकी पूरी संभावना है कि दो कारणों से अपील खारिज हो सकती है। पहला, आवेदक उन दस्तावेजों को जुटाने में काफी दिक्कत का सामना करेगा और संभव है कि वह इसमें सफल न हो पाए। दूसरा, जुटाए गए दस्तावेजों को भी अपर्याप्त कह कर अपील खारिज की जा सकती है। सभी आवेदक इतनी तकनीकी जानकारी से लैस नहीं होंगे कि वे इसकी काट ढूंढ़ सकें।
नए प्रावधान का नियम बारह कहता है कि सूचना आयोग के पास दूसरी अपील की सुनवाई के दौरान आवेदक को सशरीर या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या अधिकृत प्रतिनिधि के माध्यम से उपस्थित होना होगा। दूरदराज के आवेदक के लिए यह खर्चीली और कठिनाई भरी प्रक्रिया होगी। इस वजह से भी बहुत-से आवेदक  दूसरी अपील नहीं कर पाएंगे। नियम तेरह में कहा गया है कि जिस प्राधिकरण को लेकर अपील की गई है उसे अपने बचाव में वकील रखने का अधिकार है। इससे आवेदक को भी वकील रखने की मजबूरी हो सकती है। अंतत: यह एक खर्चीली प्रक्रिया हो जाएगी जिसे एक आम आदमी वहन करने में सक्षम नहीं होगा।
इस प्रकार के प्रावधानों से कानून का मूल स्वरूप धीरे-धीरे नष्ट होता जाएगा। लोग इस कानून का सहारा लेना कम कर देंगे। सात वर्षों के दौरान आरटीआइ कानून इतना सशक्त नहीं हुआ है और न ही हमारा लोकतंत्र पैंसठ वर्षों में इतना जागरूक हो सका है। अधिकार देने से ही सफलता हासिल नहीं हो सकती। अधिकार के साथ उसके उपयोग की जानकारी भी सही तरीके से उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
साथ ही देश में जब तक गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी व्याप्त है, आरटीआइ बहुत सफल नहीं हो सकता। कुछ गिने-चुने कार्यकर्ताओं की उपलब्धियों से इसकी सफलता आंकना गलत होगा। सरकार को इस कानून में बदलाव लाने से पहले गंभीरता से सोचना चाहिए कि क्या वह भ्रष्टाचार रोकने और पारदर्शी शासन-व्यवस्था के लिए कटिबद्ध है? फिर, इस बदलाव का मकसद क्या है? क्या इसके पीछे सूचना के अधिकार को कमजोर करने का इरादा नहीं है!

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/31865-2012-11-01-05-31-46


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