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न्यूज क्लिपिंग्स् | सोशल मीडिया की ताकत-- आकार पटेल

सोशल मीडिया की ताकत-- आकार पटेल

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published Published on Jan 11, 2018   modified Modified on Jan 11, 2018
हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा भी एक बौद्धिक व्यक्ति हैं और दुनियाभर में उनका सम्मान है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कुछ लोग दोनों को असफल नेता मानते हैं, या तो इस कारण कि मनमोहन सिंह के पास करिश्मा व व्यक्तिगत शक्ति नहीं है, या फिर इस वजह से कि ओबामा नस्लीय तौर पर एक अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं. वे बहुत प्रतिभाशाली लोग हैं और दूसरे नेताओं की तरह हमेशा भले ही नहीं बोलते हों, पर जब वे बोलते हैं, तो इन्हें सुनना निश्चित तौर पर बेहद फायदेमंद होता है.

कुछ दिनों पहले बराक ओबामा ने ब्रिटेन के राजकुमार हैरी को एक अद्भुत साक्षात्कार दिया था. इसमें उन्होंने सोशल मीडिया और आधुनिक दुनिया पर इसके प्रभाव से जुड़े कुछ पहलुओं के बारे में बात की थी.

आेबामा ने स्वीकार किया कि सोशल मीडिया समान रुचि वाले लोगों को जोड़ने और उन्हें एक-दूसरे को जानने और संपर्क में बने रहने का वास्तव में एक शक्तिशाली औजार है. इसके बाद उन्होंने आगे यह भी कहा, 'लेकिन उन्हें ऑफलाइन होकर पब में, पूजा स्थल पर, पड़ोस में जाकर लोगों से मिलना और उन्हें जानना भी जरूरी है.'

इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि 'सच तो यह है कि इंटरनेट पर हर बात बहुत सरल दिखायी देती है और जब हम लोगों से आमने-सामने मिलते हैं, तो पता चलता है कि वे बहुत जटिल हैं. इंटरनेट का एक खतरा यह भी है कि यहां लोगों की वास्तविकता एकदम अलग-अलग हो सकती है. वे अपने पूर्वाग्रहों को मजबूत करनेवाली सूचनाओं तक ही सीमित रह सकते हैं.'

मुझे लगता है कि हम जिस तरह इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, उससे जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों को ओबामा ने रेखांकित किया है. व्यक्तिगत तौर पर मैं सोशल मीडिया पर नहीं हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि यह बहुत ध्यान भटकानेवाली चीज है. हालांकि, कभी-कभार जब भी मैं ऑनलाइन लेख के कमेंट सेक्शन में जाता हूं, तो निराश हो जाता हूं. यहां जिस मात्रा में क्रुद्ध और भ्रामक बातें कही जाती हैं और अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, वह किसी को भी इससे दूर करने के लिए पर्याप्त है.

हालांकि, सच्चाई तो यह है कि इस तरह की बेकार बातें हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में देखने को नहीं मिलती हैं. ऐसे लोग जब आमने-सामने होते हैं, तब राजनीति व धर्म को लेकर उनके तर्क-वितर्क अभद्रता की सीमा तक नहीं पहुंचते. यह इंटरनेट पर अनाम बने रहने की शक्ति है, जो हमें अनर्गल बातें करने-कहने का साहस देती है. व्यक्तिगत तौर पर हम ज्यादा संतुलित रहते हैं, क्याेंकि हम जानते हैं कि लोगों की नजर हम पर है.

ओबामा ने उस साक्षात्कार में जो दूसरी महत्वपूर्ण बात कही, वह यह कि इंटरनेट पर हम दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को तब तक जान पाते, जब तक कि हम विशेष रूप से उस व्यक्ति तक नहीं पहुंच जाते.

वास्तविक जीवन में जब हम किसी से जुड़ते हैं, तो हम उसकी बात भी अवश्य सुनते हैं और इससे हम विश्वास और पूर्वाग्रह को लेकर कम आग्रही और मुखर होते हैं. ओबामा ने जो बातें कही हैं, उनमें से हम कई बातों को अपना सकते हैं. पहला, यह बात विशेष रूप से वैसे कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के लिए महत्वपूर्ण है, जो अपने काम के जरिये बदलाव लाना चाहते हैं, कि वे इंटरनेट की दुनिया से बाहर निकलकर लोगों से मिलें और उनसे जुड़ें.

कुछ सप्ताह पहले जिग्नेश मेवाणी मेरे कार्यस्थल पर आये और उन्होंने अपने दृष्टिकोण और महत्वाकांक्षाओं के बारे में बातचीत की. चुनावी राजनीति के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि यह अल्पावधि का लक्ष्य नहीं है, वे जीत को अभी एक दशक या 15 वर्षों बाद होती हुई मान कर चल रहे हैं.

मुझे नहीं पता है कि उन्हें भी इस बात की जानकारी थी या नहीं कि कुछ दिन बाद ही राजनीतिक रूप से सर्वाधिक विभाजित राज्य में बतौर निर्दलीय आसानी से चुनाव जीत सकते हैं.

आखिर यह कैसे हुआ, खासकर दो दलों की प्रमुखता वाले राज्य में, जहां उनके पास लोकप्रिय चुनाव चिह्न होने का लाभ भी नहीं था और उन्हें केवल अपनी विश्वसनीयता पर ही भरोसा करना था? मुझे लगता है कि ऐसा व्यापक तौर पर हुआ, क्योंकि तेजतर्रार और प्रभावशाली वक्ता मेवाणी ने व्यक्तिगत रूप से हजारों लोगों से संपर्क स्थापित किया था.

ठीक इसी तरह से मेरे जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता के लिए यह जरूरी है कि ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के साथ मिल-बैठकर बातचीत की जाये. मैं विशेष रूप से ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि सामाजिक सक्रियता की दुनिया में हमारा ध्यान सोशल मीडिया पर है, क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचने का यह सबसे कारगर माध्यम है. लेकिन, वहीं इसका दूसरा पक्ष यह भी है, जैसा ओबामा ने ध्यान दिलाया, यहां पर कृत्रिम तरीके से ध्रुवीकरण का माहौल भी है.

जो व्यक्ति मुस्लिम, दलित, आदिवासी, कश्मीरी या पूर्वोत्तर के जैसे हाशिये पर रहनेवाले समूहों के अधिकारों के लिए काम कर रहा है, उस पर अगंभीर प्रतिक्रिया नागरिकों के अधिकारों के ऊपर सेना व राज्य के अधिकारों को रखने की होती है. इस तरह का बेबुनियाद दोतरफा खेमें बहुत आसानी से इंटरनेट पर बने और जमे रहते हैं. व्यक्तिगत तौर पर किसी दूसरे मनुष्य की चिंताओं को खारिज करना इतना आसान नहीं होता है.
अंत में, ओबामा की अंतदृष्टि हमसे कहती है कि चीजें जिस दिशा में जा रही हैं, उसकी वजह से हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए, जैसा मैं अक्सर करता हूं. हम इस बात पर ध्यान दिलाते हुए इस चर्चा को समाप्त करेंगे कि ओबामा के कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि सोशल मीडिया पूरी तरह से खराब ही है.

उन्होंने कहा कि 'हमारे सामने यह प्रश्न है कि हम इस तकनीक का इस्तेमाल किस तरह करें, ताकि इस प्लेटफाॅर्म पर अनेक आवाजों और विविध विचारों को जगह मिल सके. समाज को बांटने का लोगों को मौका न मिले और इसके जरिये आम सहमति पर पहुंचने का रास्ता तलाशा जा सके.' इन शानदार शब्दों को हमें 2018 के लिए याद रखना चाहिए, जो कि भारत के लिए एक निर्णायक वर्ष है.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1110058.html


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