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न्यूज क्लिपिंग्स् | सोशल मीडिया नहीं, हमें सुधरना होगा-- हरजिंदर

सोशल मीडिया नहीं, हमें सुधरना होगा-- हरजिंदर

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published Published on Jul 16, 2018   modified Modified on Jul 16, 2018
वे अपने-अपने ढंग से सफाई में जुट गए हैं। ट्व्टिर ने उन एकाउंट को बंद करना शुरू कर दिया है जो उसके हिसाब से फर्जी हैं। व्हाट्सएप ने अपने नए अपडेट के साथ ऐसी व्यवस्था की है कि अब अगर कोई संदेश फॉरवर्ड होगा तो पता पड़ जाएगा कि यह मूल रूप से तैयार किया हुआ संदेश नहीं है बल्कि इधर का माल उधर है। हालांकि इन सबका बड़ा नतीजा निकलेगा इसकी उम्मीद कम ही है। फर्जी खबरें बंद हो जाएगी यह यकीन किसी को नहीं है। टिव्टर पर लोगों को धकियाने, गरियाने या बेज्जत किए जाने का सिलसिला अभी रुका नहीं है। व्हाट्सएप पर वे सिलसिले अभी भी चल रहे हैं जो नफरत के किस्से गढ़ते हैं और हिंसक माहौल बनाने वाली चिंगारियां छोड़ते रहते हैं। लेकिन टिव्टर और व्हाट्सएप के पास कोई विकल्प नहीं था, हर तरफ हाय-तौबा हो रही थी, सरकार की तरफ से भी दबाव था, इसलिए उन्हें कुछ करते हुए दिखना था, सो उन्होंने यह अनुष्ठान कर दिया। हालांकि यह भी जरूरी काम था और दोनों इसे दबाव आने से पहले ही कर देते तो शायद ज्यादा अच्छा होता।


ट्व्टिर, व्हाट्सएप या उन सभी मोबाइल एप और वेबसाइट ने क्या किया जिन्हें हम सोशल मीडिया कहते हैं। उन्होंने हमें इस भागदौड़ वाली जिंदगी में आपसी संपर्क के मंच दिए। हमें वह स्थान दिया जहां हम अपने दोस्तों, रिश्तेदारों या अपने जैसे विचार वालों को संवाद कर सकें। संवाद के बारे में हमारी धारणा यह है कि बात करने से नजदीकियां बढ़ती हैं और गलतफहमियां दूर होती हैं। शायद एक दूसरेसे आमने सामने बात करने के मामले में यह धारणा सही भी है। इंटरनेट के सोशल मीडिया ने हमारी इस धारणा की सीमा भी बता दी है। जहां बात आमने-सामने न हो और छद्म नाम के पीछे छुपने की सुविधा भी हो वहां संवाद गलतफहमियां दूर तो पता नहीं कितनी कर सकता है लेकिन उसे पैदा करने और फैलाने में बहुत कुशल साबित होता है। वैसे आमने सामने बात में भी हम एक दूसरे के बारे में ही गलतफहमियां दूर कर पाते हैं। ऐसा करते हुए हम तीसरे के बारे में गलतफहमी के शिकार हो सकते हैं और बाद में उसे चौथे या पांचवें तक पहुंचा सकते हैं। इसी तरह अफवाहों के बारे में सोचें तो वे कोई नई चीज नहीं हैं, वे जमाने में भी थीं जब कोई ऐसी तकनीक नहीं थी। तब भी उनकी वजह से दंगे हो जाया करते थे। इंटरनेट युग के सोशल मीडिया ने एक ही काम किया है कि उसने संवाद का एक कुशल और तेज माध्यम दिया है, जिससे गलतफहमियां और अफवाहें बड़ी तेजी से बनती बिगड़ती और फैलती हैं। नफरत पहले भी प्यार पर हावी रहती थी, लेकिन इस तेजी से प्यार को उसी तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया है जैसे बाजार में खोटे सिक्के खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं। फिर इसमें वे लोग भी हैं जिनकी दुकान या राजनीति इसी नफरत से चलती थी, वे अब अपने काम को ज्यादा कुशलता से अंजाम दे लेते हैं।


सोशल मीडिया से जुड़ी जो भी खबरें इन दिनों हमें मिल रही हैं वे मोटे तौर पर सोशल मीडिया की नहीं हमारे खुद के सामाजिक खोट की तरफ इशारा करती हैं। चाहे वह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से ट्व्टिर पर दुव्र्यवहार का मामला हो या फिर बच्चे चुराने या गोहत्या की अफवाह फैला कर किसी को भीड़ द्वारा मार दिए जाने का मामला हो, इनके पीछे की प्रवृत्तियां मोबाइल के किसी एप से नहीं निकली बल्कि हमारे जनमानस के कोनों में बैठी कुंठाओं और भय वगैरह का अचानक उबल पड़ना है। हमारे ये समस्याएं मूल रूप से या तो सामाजिक हैं या राजनीति, हमारी दिक्कत यह है कि हम इनका तकनीकी समाधान निकलना चाहते हैं, जो शायद संभव नहीं है। तकनीक से कुछ चीजों को कुछ हद तक रोका जा सकता है, निगरानी के तंत्र विकसित किए जा सकते हैं (जिनके साथ ही उनके दुरुपयोग के खतरे भी आएंगे ही), लेकिन इन प्रवृत्तियों को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता।


इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम पूरी तरह असहाय हैं, समस्या यह है कि हम समाधान तकनीक से मांग रहे हैं, समाज और राजनीति से नहीं मांग रहे। पिछले एक दशक में पूरी दुनिया में और खासकर भारत में एक साथ नफरत के कईं नैरेटिव तैयार हुए हैं, भले ही उन्हें सोशल मीडिया के जरिये फैलाया गया हो लेकिन राजनीति ने उन्हें पाला पोसा है। आत्म गौरव के नाम पर तैयार इन नैरेटिव ने दुनिया को अक्ल में भरे भूसे के ऐसे कईं सूखे ढेर दिए हैं जो हर दम किसी चिंगारी का इंतजार करते रहते हैं। इसी के सामांतर एक नैरेटिव अविश्वास का भी चलता है, या शायद पहले से ही चल रहा है। हमारे सामाजिक विमर्श में न तो राजनीति पर विश्वास किया जाता है, न पुलिस पर, न न्यायपालिका पर, और परंपरागत मीडिया अविश्वास करना तो सोशल मीडिया का सबसे बड़ा फैशन है। ऐसे में जो लोग भड़कते हैं वे वहीं और उसी क्षण फैसला सुना कर सजा दे देना चाहते हैं। इस फटाफट न्यायतंत्र में वकील तो छोड़िये दलील के लिए भी कोई जगह नहीं है।


इस समस्या का समाधान हमें उसी रास्ते से निकालना होगा जहां से यह समस्या आई है। तकनीक से समधान निकालने की बात हम इसलिए करते हैं कि यह सबसे आसान रास्ता दिखाई देता है। इसके मुकाबले समाज की सोच बदलने, नफरत की जगह सहिष्णुता और समरसता को कायम करने का रास्ता काफी जटिल है। सच तो यह है कि पिछले कईं दशकों से हम इस रास्ते को भूल भी चुके हैं। समाज सुधार की बात अब कोई नहीं करता। सच तो यह है कि विकास की होड़ में किसी भी तरह के सुधार की बात सोचनी हमने बंद कर दी है। कुछ समय पहले तक हम न्यायिक सुधार, प्रशासनिक सुधार और पुलिस सुधार वगैरह की बाते करते थे, अब इनकी कहीं चर्चा भी नहीं होती। आज जो हर तरफ तनाव दिख रहे हैं उसमें इनका भी पूरा योगदान है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/latest-blog/story-opinion-hindustan-column-on-13-july-2065916.html


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