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न्यूज क्लिपिंग्स् | स्कूली शिक्षा और कोर्ट का फैसला- योगेन्द्र यादव

स्कूली शिक्षा और कोर्ट का फैसला- योगेन्द्र यादव

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published Published on Sep 9, 2015   modified Modified on Sep 9, 2015
इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के दो दिन बाद मेरे पास इमेल से एक अनजाने व्यक्ति की चिठ्ठी आयी. लिखनेवाली महिला कभी उत्तर प्रदेश सरकार में काम कर चुकी थीं, आजकल विदेश में हैं.

चिठ्ठी बड़ी ईमानदारी और शालीनता से लिखी गयी थी. चिठ्ठी में उन्होंने पूछा कि हमने और स्वराज अभियान से जुड़े साथियों ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के उस फैसले का स्वागत क्यों किया, जिसमें सभी सांसदों, विधायकों, सरकारी अफसरों सहित सभी सरकारी कर्मचारियों को हिदायत दी है कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएं? उनका तर्क सीधा था- मैंने ईमानदारी से नौकरी की, कोई भष्टाचार नहीं किया, तो नेताओं और भ्रष्ट अफसरों की करतूतों की सजा मेरे बच्चों को क्यों मिले? अगर मैं ईमानदार रहते हुए अपने बच्चों को बेहतर अवसर दिला सकती हूं, तो मुझे क्यों रोक जाये? क्या यही आपका न्याय है? आप इसको स्वराज कहते हैं?

उनके सवाल तीखे थे, लेकिन अनर्गल नहीं. सवालों ने मेरा अपना अपराध बोध जगाया. मेरी पत्नी और मैंने अपने पहले बच्चे को पड़ोस के सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाने की ठानी थी. शुभचिंतकों ने समझाया कि बच्ची को बस्तियों और झुग्गियों के ‘ऐसे-वैसे' बच्चों के साथ बैठना पड़ेगा. लेकिन हम तो वही चाहते थे. बताया गया कि स्कूल में सुविधाएं कम होंगी, बच्ची की अंगरेजी कमजोर रहेगी. हमने सोचा कि वो कमी हम घर पर पूरी करवा देंगे.

जब मन बना कर राजकीय सर्वोदय विद्यालय पहुंचे (दिल्ली में सर्वोदय विद्यालय आम सरकारी स्कूलों में बेहतर माने जाते हैं), तो प्रिंसिपल साहब हैरान हुए. फिर खुशी-खुशी हमें अपनी सबसे अच्छी कक्षा दिखाने ले गये. उस ‘आदर्श' कक्षा में गुरुजी बच्चों को समाज विज्ञान के सवालों के जवाब लिखवा रहे थे.

पूछने पर पता लगा कि कक्षा में अध्याय पढ़ाये नहीं जाते, सिर्फ सवाल-जवाब लिखवाये जाते हैं. एक ही कमरे में आधे बच्चे हिंदी में प्रश्नोत्तर लिख रहे थे, आधे अंगरेजी में. प्रिंसिपल साहब को धन्यवाद कर हम जल्द रवाना हुए. उसके बाद बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने की हिम्मत नहीं हुई. चिठ्ठी लिखनेवाली महिला यह भी पूछ सकती थीं कि अगर खुद नहीं कर पाये, तो दूसरों को सजा क्यों देते हो?

इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के बारे में चल रही बहस में यही दिक्कत है. हर कोई इसे सजा की तरह देख रहा है. जनता खुश है कि उनसे बदतमीजी करनेवाले नेताओं और अफसरों की किसी ने तो नकेल खींची. सरकारी कर्मचारी परेशान हैं कि उन्हें किसी और के किये की सजा मिल रही है. हर कोई मान कर चलता है कि बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना एक सजा है.

देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों के पास साधारण प्राइवेट स्कूलों से बेहतर बिल्डिंग है, ज्यादा जमीन है, ज्यादा डिग्रीवाले और बेहतर वेतन पानेवाले अध्यापक हैं. फिर भी कोई भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहता. इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला इस विसंगति को ठीक करने का तरीका है, सरकारी कर्मचारियों से बदला लेने का प्रयास नहीं है.

यह विसंगति पूरे देश में दिखायी देती है. सरकारें शिक्षा पर बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करती हैं, नये स्कूल खुलते हैं, बिल्डिंग बनती है. लगभग सभी बच्चे आज स्कूल जा भी रहे हैं.

लेकिन सरकारी स्कूल में शिक्षा नहीं है. प्रथम संस्था के असर सर्वेक्षण के 2014 के आंकड़े उत्तर प्रदेश में शिक्षा की बदहाली की तस्वीर पेश करते हैं. उत्तर प्रदेश के ग्रामीण सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले अधिकतर बच्चे न भाषा जानते हैं, न गणित. पांचवीं कक्षा के सिर्फ 27 प्रतिशत विद्यार्थी दूसरी कक्षा की हिंदी की किताब ठीक से पढ़ सकते हैं. पांचवीं के सिर्फ 12 प्रतिशत बच्चे भाग हल कर सकते हैं. तीसरी के महज 7 प्रतिशत बच्चे हासिल से घटाना जानते हैं. सात साल पहले की तुलना में हर आंकड़े में गिरावट आयी है. अन्य राज्यों की स्थिति बहुत अलग नहीं है.

जाहिर है, अभिभावक प्राइवेट स्कूलों की ओर जा रहे हैं. 2006 में ग्रामीण उत्तर प्रदेश के 30 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते थे, लेकिन 2014 तक यह संख्या 52 प्रतिशत हो गयी थी. गांव में भी जिसे सामर्थ्य है, वह अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजता है. गांव के सरपंच का बच्चा गांव के सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ता. सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजते हैं.

अफसरों और नेताओं के बच्चे तो ऊंचे दर्जे वाले महंगे प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ते हैं. कुल मिला कर सरकारी स्कूली शिक्षा के तमाम कर्ता-धर्ता लोगों का उन स्कूलों से कोई निजी वास्ता नहीं हैं. स्कूल अच्छे हों या खराब, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. कहते हैं, जिसके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर परायी.

ऐसे में इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला एक ऐतिहासिक फैसला है. यह फैसला िसर्फ एक फैसला भर नहीं, बल्कि यह हमारी सरकारी स्कूली व्यवस्था को बचाने का एक नायाब मौका भी है. जरा कल्पना कीजिये, अगर डीएम साहब की बिटिया खुद सरकारी स्कूल में पढ़ेगी, तो क्या उसमें साफ शौचालय नहीं होगा, महीनों तक विज्ञान के अध्यापक का पद खाली पड़ा रहेगा?

यह फैसला न तो सजा है और न ही कोई सरकारी योजना. यह देश को एक इशारा है, सरकार को एक चेतावनी है. यह फैसला हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी के रूप में सरकारी स्कूलों की सही शिनाख्त करता है. इस कमजोरी की जड़ में राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी को चिन्हित करना भी एकदम सही है.

यह फैसला देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे गुनहगारों की ओर उंगली उठाने का साहस करता है. इस फैसले पर बहस करना हमें देश में गैर-बराबरी के नंगे सच से रूबरू होने को मजबूर करता है. इस फैसले पर जितना जल्दी अमल होगा, हमारे देश की कमजोर शिक्षा व्यवस्था के लए उतना ही अच्छा होगा.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/539853.html


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