Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | स्त्री उत्पीड़न की जड़ें- विकास नारायण राय

स्त्री उत्पीड़न की जड़ें- विकास नारायण राय

Share this article Share this article
published Published on Oct 24, 2013   modified Modified on Oct 24, 2013
जनसत्ता 23 अक्तूबर, 2013 : उत्पीड़न के साए में दिल्ली विश्वविद्यालय के आंबेडकर कॉलेज की कर्मचारी की आत्महत्या, महिला सशक्तीकरण को मात्र यौनिक सुरक्षा के चश्मे से देखने के प्रति गंभीर चेतावनी है। सभी मानेंगे कि देश की राजधानी के एक बड़े शिक्षा संस्थान के इस प्रचारित प्रकरण के चार वर्ष तक खिंचने की जरूरत नहीं थी, और इसका अंत न्याय में होना चाहिए था, न कि आत्महत्या में। काश, कानून का ध्यान ‘कार्यस्थल पर यौनिक उत्पीड़न से सुरक्षा’ तक सीमित रहने के बजाय ‘कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न से सुरक्षा’ तक विस्तृत होता। जहरीली हो चुकी पत्तियों, टहनियों को काटने के उतावले संतोष में क्या हमने जहरीली जड़ों के उन्मूलन से आंख नहीं मूंद रखी है?

लैंगिक न्याय के कठिन रास्ते को प्राय: सामाजिक व्यवहार के दो शतुरमुर्गी स्तरों पर देखा जा सकता है। एक, यह तर्क देने वालों की कमी नहीं है कि महिला कानूनों का व्यापक दुरुपयोग हो रहा है, और दूसरा, आम दावा होता है कि मर्द अपनी स्त्रियों के साथ जो भी कर रहे हैं उनके भले के लिए ही तो। दोनों में बस ऊपर-ऊपर से सच्चाई की झलक रहती है और अंदरखाने पूरा पाखंड भरा होता है। महिला कानून, अधूरे-अधकचरे-अप्रभावी नियमों का पुलिंदा हैं, जो उत्पीड़ित को उलझाते हैं, राहत नहीं देते। लिहाजा, अगर समस्या है घरेलू हिंसा, तो भी पीड़ित को गुहार लगानी पड़ती है दहेज उत्पीड़न की। और पुरुष वर्चस्व की तो पूर्व-शर्त ही है स्त्री का पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से कमजोर होना। इस समीकरण के दायरे में मर्द कुछ भी उपाय कर लें, स्त्री असुरक्षित ही रहेगी।

अगर बलात्कार या कामुकता, लंपटता से भरे तमाम तरह के महिला उत्पीड़न मात्र यौन अपराध होते तो इन्हें नियंत्रित कर पाना कठिन नहीं था। समूची कानून-व्यवस्था और न्याय-व्यवस्था के साथ-साथ सारा समाज भी कामुक और लंपट वहशियों के प्रतिकार में एकजुट हो ही जाता है। लिहाजा, कामकाजी स्त्रियों को ही नहीं, तमाम स्त्रियों और बच्चियों को इस हौवे से कब की राहत मिल चुकी होती। पर बलात्कार सहित यौन उत्पीड़न के विभिन्न अपराध, जो पहली नजर में महज कामुक, लंपट कृत्य लगते हैं, मुख्यत: पुरुष वर्चस्व से संचालित, लैंगिक अपराध भी हैं; स्त्री की लैंगिक असमानता इनकी उत्प्रेरक है तो उसकी लैंगिक विवशताएं इनकी उर्वर जमीन। बिना लिंग संवेदी वातावरण बनाए और लैंगिक न्याय की मंजिलें तय किए इन अपराधों को मिटा पाना तो दूर, कम भी नहीं किया जा सकता।

पुरुष वर्चस्व द्वारा स्त्री पर लादी गई ‘इज्जत’ की अवधारणा का उसके उत्पीड़नों-बलात्कारों, उसकी हत्याओं-आत्महत्याओं से सीधा संबंध होता है। परिवार में उसे संपत्ति और बाजार में भोग्या की हैसियत दी जाती है। सनातन सत्य है कि कमजोर वर्ग पर कैसी भी जवाबदेही लादी जा सकती है। खासतौर पर, कमजोर स्त्री पर, सामाजिक नैतिकता को ढोने की। शरद यादव जैसे तर्कशील व्यक्ति ने हाल में जबलपुर में कहा कि बेटी की इज्जत जाने से परिवार और मोहल्ले की इज्जत चली जाती है। इसी बोझ से दबी, हरियाणा में रोहतक के घरणावती गांव में, गोत्र-विवाह करने वाली लड़की कुनबे द्वारा कपट से मार दी गई कि वह परिवार, गांव, समाज, खाप की ‘इज्जत’ ले बैठी थी। अंतत: यह उसके कमजोर होने की ही सजा थी।

घरणावती जैसे समाजों में युवकों द्वारा बलात्कार भी किए जाते हैं, विशेषकर कमजोर वर्ग की स्त्रियों के साथ। ऐसा नहीं है कि वहां लोग इसे अनैतिक नहीं मानते, पर बलात्कारी को जान से नहीं मारा जाता। उलटे उसे कानूनी मदद की सुविधा और पुनर्वास का अवसर दिया जाता है। यह माना ही नहीं जाता कि पुरुष के ऐसे व्यक्तिगत कुकर्म सारे समाज को भी कलंकित करते हैं। शरद यादव ने भी हमलावर मर्द के परिवार और मोहल्ले की इज्जत जाने की बात नहीं की। मजबूत मर्द पर परिवार-मोहल्ले-समाज-खाप की नैतिक जवाबदेही लादी भी कैसे जा सकती है!

युद्धों की तरह, सांप्रदायिक और जातीय किस्म के दंगों में भी दूसरे समुदाय को नीचा दिखाने या उजाड़ने के लिए बलात्कार एक समाज-स्वीकृत लैंगिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होता आया है। 2002 के गुजरात दंगों में अमदाबाद का नरोदा पाटिया इसका जीता-जागता उदाहरण बना। हालिया मुजफ्फरनगर के दंगों के दौरान भी, वहां के फुगाना गांव में यही हुआ। ऐसे में बलात्कारी अपने समुदाय का हीरो बन जाता है और पीड़ित अपने समुदाय की इज्जत गंवाने का माध्यम। यहां कामुकता, लंपटता नहीं, लैंगिक सोच हावी रहता है। यहां तक कि खालिस यौनिक धरातल पर, बलात्कार जैसी शारीरिक बर्बरता के विरुद्ध जो व्यापक सामाजिक आक्रोश फूटता है उसमें भी समझ रहती है कि यह एक लैंगिक सेंधमारी है। आखिर, स्त्री का यौन किसी न किसी पुरुष की अमानत ही तो माना जाता है!

यौनाचार को सामाजिक, न्यायिक, सत्ता संस्थानों द्वारा ‘इज्जत’ के प्रिज्म से देखने का यही आधार है। इसी सोच का असर है कि स्व-विवेक से वर-चयन करने वाली बेटी को नतमस्तक करने के लिए उसका कुनबा, यहां तक कि तथाकथित महिला कानून भी, उसके पुरुष साथी को दुराचारी घोषित कर देते हैं। आंबेडकर कॉलेज की उत्पीड़ित कर्मचारी को भी लगातार लैंगिक कठघरे में खड़ा रखा गया; उसे चार वर्षों से झूठा ही सिद्ध किया जा रहा था। दरअसल यौनिक चश्मे से बने सुरक्षा-कानूनों से मर्द के लैंगिक हथियारों का स्त्री सामना कर ही नहीं सकती। इन कानूनों की बनावट उसके संभावित प्रतिरोध को भोंथरा ही करती है।

तभी, घरणावती हत्याकांड को सामाजिक जीवन मूल्यों, गोत्र परंपरा के उल्लंघन का मुद्दा बनाने वाले इलाके के चौधरियों से लेकर सूबे के मुख्यमंत्री तक की चिंता के ग्राफ से लैंगिक न्याय या समाज का संवेदीकरण नदारद रहता है। उनके लिए प्रमुख सवाल है- क्या समान गोत्र में, यानी उनके अनुसार, भाई-बहन की शादी हो जाने दें? सोलह दिसंबर 2012 के दिल्ली बलात्कार कांड पर चला विमर्श भी प्रमुखत: कानून-व्यवस्था के संदर्भ में ही सीमित रहा। हर ओर से एक जैसे स्वर गूंजे- पुलिस ज्यादा कारगर बने और दंड ज्यादा कड़े हों। दोनों वीभत्सतम अपराधों में पुरुष वर्चस्व के लैंगिक आयामों की भूमिका को अनदेखा करना इसीलिए संभव और स्वाभाविक हो सका, क्योंकि स्त्री कमजोर है।

सीधा समीकरण है कि पुरुष वर्चस्व को तोड़े बिना स्त्री को दैनिक हिंसा से मुक्ति नहीं मिलने जा रही। स्त्री-विरुद्ध हिंसा की रोकथाम के दिखावटी-बनावटी-मिलावटी-सजावटी उपायों को तो छोड़ ही दीजिए, यहां तक कि अच्छी से अच्छी कानून-व्यवस्था और कड़ी से कड़ी अपराध-न्याय व्यवस्था भी स्त्री-विरुद्ध हिंसा के घर-घर में पसरे ताने-बाने पर रोकथाम नहीं लगा पाती है। इन्हें समय-समय पर सुदृढ़ किए जाने के बावजूद नतीजा यही निकलता है कि स्त्री को कमजोर रख कर उसकी सुरक्षा के उपाय कारगर नहीं हो सकते। ऐसी स्त्री पहल, ऐसे लैंगिक कानून और ऐसे सामाजिक मंच चाहिए जो महिला सशक्तीकरण में ही इस सार्वभौम समस्या का हल देखें।

स्त्री वर्ग को मजबूत होना है, क्योंकि स्त्री-विरुद्ध हिंसा की मुखालफत की मुहिम महिलाओं की सजग और सबल भागीदारी की मोहताज है। मामला उन्हें कृत्रिम सुरक्षा पहुंचाने का इतना नहीं है; बुनियादी मुद्दा यह है कि महिला सशक्तीकरण का कारगर रास्ता क्या है? लैंगिक न्याय संहिता (जेंडर जस्टिस कोड) और लिंग संवेदी समाज इस रास्ते की महत्त्वपूर्ण मंजिलें होनी चाहिए, पर राज्य-तंत्र के रडार से दोनों ही नदारद रहे हैं।

इन मंजिलों को पाने में नागरिक समाज स्वयं कोई बड़ी पहल करने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। मीडिया के लिए भी ये आयाम गौण रहे हैं। और, अकेले स्त्री इस दिशा में ज्यादा आगे नहीं जा पाई है।

एक स्त्री के लिए उसके सशक्तीकरण का मतलब क्या है? रोजमर्रा की लैंगिक-यौनिक हिंसा के हौवे से मुक्ति; पुरुषों जैसे बराबरी के दायित्व और बराबरी के अधिकार; आत्म-सम्मान, आत्म-निर्णय, आत्म-विश्वास और आत्म-विवेक से संचालित पारिवारिक और सामाजिक जीवन!

निश्चित रूप से स्त्री, परिवार से बाहर नई से नई श्रम वाली और दिमागी भूमिकाएं निभाने को आतुर है। उसे शिक्षा, शादी, कैरियर जैसे व्यक्तिगत निर्णयों में तो स्वतंत्रता चाहिए ही, वह परिवार और समाज की निर्णय प्रक्रिया में भी समान भागीदारी चाहेगी। उसकी पारिवारिक संपत्तियों और प्रतिभूतियों में बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए। जरूरी होगा कि राजनीति समेत तमाम सत्ता संबंधों में उसका दखल हो। उसे महिला-छवि को लेकर, हर तरह के अपमानजनक और उत्पीड़क ‘स्टीरिओ टाइप’ से मुक्ति पानी है। वह चाहेगी कि उसकी क्षमता को उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के आधार पर जाना-आंका जाए, न कि उसके लिंग से।

इन रास्तों में जो रुकावटें हैं, स्त्री उनसे भी वाकिफ है। नियमित उत्पीड़न, बलात्कार, हत्याएं, आत्महत्याएं उसके संसार से अचानक छूमंतर नहीं होंगे। स्त्री पर लदा ‘इज्जत’ का लैंगिक बोझ अपने आप नहीं जाएगा।

कानून भी सजा देने में चुस्ती वहीं तक दिखाता है जहां तक आरोप खालिस यौनहिंसा का हो। अन्यथा लैंगिक हिंसा के अधिकतर मामलों में तो सजा का प्रावधान ही नहीं है, और जहां है भी, वहां सालों बाद भी सजा दुर्लभ है। घरेलू हिंसा के कानून दूर भविष्य में हर्जाने का वादा देंगे, मौजूदा वक्त में राहत नहीं। लड़की को शोषक लैंगिक सांचे में ढालने वाले पैतृक कुनबे की कोई जवाबदेही नहीं होती। मीडिया में कभी यह सुर्खी देखने को नहीं मिलेगी कि सारे गांव या मोहल्ले में एक भी लड़की को पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मिला है। पिता और भाई बेशक यौनिक दुर्व्यवहार के प्रतिकार में अपनी जान भी दे दें, पर बेटी या बहन को उसके हक की एक इंच जमीन नहीं देना चाहेंगे।

देश में तीस फीसद लोग शाब्दिक निरक्षर हैं और इसलिए साक्षरता मिशन और सर्वशिक्षा अभियान भी हैं। इसी देश में 99 फीसद पुरुष-स्त्री एक दूसरे के अधिकारों के प्रति निरक्षर हैं। मगर इस मोर्चे पर राज्य का न कोई मिशन है न अभियान। स्त्री-विरोधी हिंसा की व्यापकता को देखते हुए क्या यह राज्य की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए कि उसके नागरिक इस मामले में संवैधानिक दृष्टि से संपन्न हों? राष्ट्रीय स्तर पर एक लैंगिक मिशन के तहत, शैक्षिक, नागरिक, सरकारी, गैर-सरकारी इकाइयों में लिंग-संवेदी मंच अनिवार्य हों।

आज स्त्री-पहल की अपनी विकट सीमाएं हैं। सोलह दिसंबर के दिल्ली कांड, हरियाणा में घरणावती हत्याकांड या आंबेडकर कॉलेज जैसी आत्महत्याएं अनवरत क्रम का हिस्सा हैं। पर इनसे स्त्री की पहल थमने वाली नहीं, हालांकि इसे शक्ति दे सकने वाले कानूनों और इसे व्यापक कर सकने वाले मंचों का गहरा अभाव है। महिला सशक्तीकरण के ये तीनों जरूरी आयाम- स्त्री पहल, लैंगिक कानून, संवेदी मंच- जो अस्त-व्यस्त नजर आते हैं, इस मोर्चे की प्राथमिकता होने चाहिए।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/53329-2013-10-23-04-32-58


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close