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न्यूज क्लिपिंग्स् | स्त्री सशक्तीकरण और महिला बैंक

स्त्री सशक्तीकरण और महिला बैंक

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published Published on Nov 21, 2013   modified Modified on Nov 21, 2013
जनसत्ता 21 नवंबर, 2013 : किसी गंभीर समस्या और उसके समाधान को प्रतीक तक सीमित कर देने की ताजा मिसाल भारतीय महिला बैंक है।

यूपीए सरकार ने उषा अनंतसुब्रमण्यम को भारतीय महिला बैंक की प्रबंध निदेशक नियुक्त किया और शुरुआती पूंजी के तौर पर बैंक के लिए एक हजार करोड़ रुपए की रकम मंजूर की है। दो रोज पहले इस बैंक ने काम करना शुरू कर दिया, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और वित्तमंत्री की मौजूदगी में इसका उद्धघाटन किया। सात शाखाओं के साथ इसकी शुरुआत की गई है और अगले साल मार्च तक शाखाओं की संख्या पच्चीस तक ले जाने का लक्ष्य तय किया गया है। एक ऐसे दौर में जब हर रोज बलात्कार और महिलाओं पर तेजाब फेंकने की खबरें आतीं हैं, यूपीए सरकार भारतीय महिला बैंक का पदक लेकर अपना सीना फुलाने में लगी हुई है। क्या महिला बैंक की इस कवायद से देश की औरतों को कुछ फायदा होगा?

 

दुष्कर्म की घटनाओं के मद्देनजर संस्कृति के पेटेंटधारी महिलाओं के लिए आचार संहिता जारी करते हैं। महिलाओं को पूरे कपड़े पहन कर रहना चाहिए और सांझ ढलने के बाद सार्वजनिक जगहों पर नहीं जाना चाहिए। सार्वजनिक जगहों पर घूमने वाले गुंडों या गलत नजर वालों को नहीं, बल्कि महिलाओं को ही सुधरना होगा। लेकिन क्यों, इसलिए कि शील-रक्षकों का गहरा विश्वास है कि सार्वजनिक जगहों पर पुरुषों का ही एकाधिकार है और महिलाओं को इन जगहों पर समायोजित नहीं किया जा सकता। भारतीय महिला बैंक इसी वर्चस्व को मजबूत करने की एक और कवायद है। महिलाओं को खास तरह की सहूलियतें देने के नाम पर यह लिंग आधारित भेदभाव है। महिलाओं के लिए अलग पिंजरा बना दिया गया है जिसके भीतर वे बैंकिंग सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं। प्रतीकवाद का यह सबसे खतरनाक रूप है, जो किसी समाज की मानसिकता पर गहरे घाव छोड़ता है।

सवाल है, महिलाओं के लिए अलग बैंक खोलने की क्या जरूरत है। क्या पुरुषों की तरह महिलाएं मौजूदा बैंकों की मार्फत लेन-देन नहीं कर सकती हैं। क्या देश में पहले से मौजूद ग्रामीण, सरकारी, निजी और विदेशी बैंकों ने महिलाओं को बैंकिंग सुविधाएं देने से मना कर दिया है। हां, देश की अधिकतर महिलाएं बैंकिंग सुविधाओं से महरूम हैं। इसलिए नहीं कि मौजूदा बैंकों में उनको बैंकिंग सेवाएं नहीं मिलती हैं, बल्कि इसलिए कि इस देश के रोम-रंध्र में धंसे सामंतवादी सोच ने उन्हें वित्तीय दायरे से बाहर रखा है। परिवार के आर्थिक लेन-देन पर पुरुषों का कब्जा है, महिलाओं में अशिक्षा पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है, समाज में हर पायदान पर उनको पीछे धकेला जाता है और देश का बड़ा हिस्सा बैंकिंग संस्थाओं के दायरे से बाहर है। भारतीय महिला बैंक के जरिए इनमें से एक भी मुश्किल का समाधान नहीं होगा। महिला बैंक, महिला डाकघर जैसी प्रतीकवादी कवायदों के कारण महिलाओं के जन्मजात अधिकारों को सरकार ने खैरात या रियायत में बदल दिया है।

सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के बराबर अधिकार की जगह ऐसे प्रतीकों के जरिए सरकार खास दड़बे खड़े करती जा रही है। ऐसी कसरतों से महिलाओं के साथ बरता जाने वाला भेदभाव और ज्यादा मजबूत होता जाता है। महिलाओं के लिए अलग बैंक बना कर सरकार क्या यह जताना चाहती है कि देश में पहले से ही मौजूद छब्बीस राष्ट्रीयकृत बैंकों और दस से ज्यादा निजी बैंकों में महिलाओं के लिए जगह नहीं है। क्या महिला बैंक से महिलाओं को कम ब्याज दर पर ऋण मिलेगा या महिलाओं से कम परिचालन शुल्क लिया जाएगा? अगर नहीं तो इस बैंक से क्या हासिल होगा? विडंबना यह है कि मौजूदा बैंकों से बैंकिंग सुविधाएं हासिल करने के महिलाओं के अधिकार को सरकार ने पुरुषों के विशेषाधिकार में बदल दिया है। महिला विशेष बैंक के जरिए ऐसे दड़बे बनाए जा रहे हैं जहां महिलाओं को अपने कुदरती अधिकार को इस्तेमाल करने के लिए सरकार या कथित समाज की सहमति लेनी पड़ती है। अगर वाकई यूपीए सरकार उन्हें संस्थागत बैंकिंग के दायरे में लाना चाहती है तो इस समस्या की जड़ पर वार क्यों नहीं किया जाता।

एक पल के लिए सरकार के इरादों को नेक मान भी लिया जाए तो भी उसके फैसले इस विश्वास को तोड़ते हैं। सरकार के पास चौबीस राष्ट्रीयकृत और अस्सी ग्रामीण बैंकों का जखीरा पहले से मौजूद है। अहर यह कम मालूम होता है तो मौजूदा सरकारी बैंकों की शाखाओं का विस्तार क्यों नहीं किया जाता है? देश की साठ फीसद से ज्यादा आबादी बैंकिंग-सुविधाओं से वंचित है। महिलाएं ही नहीं, शहरों के ‘इंडिया’ से बाहर रहने वाले लोगों के लिए भी बैंकिंग-सुविधाएं आसमान का सितारा बनी हुई हैं। संस्थागत बैंकिंग तक पहुंच नहीं होने के कारण देश की आबादी का यह बड़ा हिस्सा साहूकारों, चिटफंड और सूक्ष्मसाख कंपनियों के चंगुल में फंसा हुआ है। आए दिन सामने आने वाले चिटफंड घोटाले इस बात का सबूत हैं कि ग्रामीण लोग भी बेहतर प्राप्ति की आस में निवेश करना चाहते हैं। बेशक उनकी रकम छोटी है। चूंकि भारतीय वाणिज्यिक बैंक महानगरों की सीमाओं से बाहर नहीं निकल पाए हैं और शेयर बाजार में निवेश करने

के लिए जरूरी वित्तीय जानकारी का अभाव है, लिहाजा ग्रामीण लोग अपनी खून-पसीने की कमाई कई गुना प्रतिफल का लालच दिखाने वाली चिटफंट कंपनियों की भेंट चढ़ा देते हैं।

भारतीय महिला बैंक भी पहले से बनी हुई लकीर से हट कर नहीं चलने जा रहा है। सबसे पहले महिला बैंक की शाखाएं देश के पांच बड़े महानगरों में खोली जाएंगी। याद रहे, पांच बड़े महानगर ही नहीं, बल्कि दस लाख से ज्यादा आबादी वाले देश के सारे नगर बैंक शाखाओं की अधिकता की समस्या से जूझ रहे हैं। शहरी इलाकों में कारोबार ज्यादा है और लागत कम होने के कारण एक नई बैंक शाखा महज एक साल के भीतर ही ‘ब्रेकइवन’ (न नफा न नुकसान की स्थिति) में आ जाती है। जबकि ग्रामीण इलाकों में खराब आधारभूत ढांचे के चलते लागत ज्यादा है और कारोबार कम होने के कारण एक नई बैंक शाखा को न नफा न नुकसान की स्थिति में आने के लिए तीन से पांच साल लगते हैं।

सवाल उठता है कि भारतीय महिला बैंक दिल्ली और मुंबई में शाखाएं खोल कर कौन-सी मिसाल कायम करना चाहता है। देश में परिचालन कर रहे हर एक देशी-विदेशी और निजी-सरकारी बैंक की शाखाएं इन शहरों में मौजूद हैं। अगर महिलाओं को बैंकिंग सुविधाओं का फायदा पहुंचा कर उन्हें आर्थिक तौर पर मजबूत बनाना सरकार का मकसद था तो भारतीय महिला बैंक रूपी प्रतीक की शुरुआत नई दिल्ली के बजाय लखीमपुर खीरी या कालाहांडी से की जानी चाहिए थी। दरअसल, भारतीय महिला बैंक की बुनियाद भी बैलेंसशीट और मुनाफे की उसी नोक पर रखी गई है जिस पर देश के मौजूदा बैंक टिके हुए हैं।

इसमें दो राय नहीं कि अगर अवसर दिया जाए तो वित्तीय प्रबंधन और नया कारोबार शुरू करने के मामले में महिलाएं, पुरुषों से पीछे नहीं रहेंगी। इला भट्ट के गैर-सरकारी संगठन ‘सेवा’ जैसे देश भर में फैले स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) का तंत्र इस बात का गवाह है कि महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल बनाना, उनको मौजूदा सामंती कैदघरों से आजाद कराने का सबसे बेहतर रास्ता है। क्या आनंद दुग्ध संगठन (अमूल) की स्थापना करने वाले वर्गीज कुरियन महिला थे? क्या अमूल डेयरी के प्रबंधन बोर्ड में महिलाएं हैं और क्या अमूल ने केवल महिला संचालित दुग्ध वितरण केंद्र्र खोले हैं? अमूल डेयरी ने इनमें से एक भी काम नहीं किया है, इसके बावजूद देश की स्त्रियों के आर्थिक सशक्तीकरण में अमूल का नाम भारतीय महिला बैंक से पहले लिखा जाएगा।

असल में अमूल ने अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं के कौशल को बेहतर तरीके से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। अमूल ने ग्रामीण महिलाओं को उनके उत्पाद का बेहतर दाम देकर आर्थिक रूप से पुरुषों की जकड़ से आजाद किया है। सेवा जैसे स्वयं सहायता समूहों ने आसान शर्तों पर कमजोर तबके की ग्रामीण महिलाओं को ऋण देकर उनको कारोबार- चाहे वह पापड़ बनाने-बेचने जैसे छोटा उद्योग हो- की दुनिया में उतरने का साहस दिया है।

यह कोई मसला ही नहीं है कि बैंक पुरुष या महिला में से कौन चला रहा है। एक समाज के तौर पर हम यह सच मानने को ही तैयार नहीं हैं कि महिलाएं भी वित्तीय प्रबंधन कर सकती हैं, नया कारोबार शुरू कर सकती हैं या आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं। एक बैंक अपने ग्राहकों का पैसा जमा करता है और तयशुदा पैमानों पर खरा उतरने वाले ग्राहकों को ऋण देता है। महिला बैंक क्या करेगा, जबकि हमारे समाज के मर्द महिलाओं को वित्तीय हक या हिस्सेदारी देने को तैयार ही नहीं हैं।

अगर मौजूदा बैंकों के व्यवहार में कोई लिंग आधारित भेदभाव होता है तो इसके लिए सरकार को नए महिला बैंक का खोल तैयार करने के बजाय सारे बैंकों के भेदभाव वाले व्यवहार को बदलने की मुहिम छेड़नी चाहिए थी। भारतीय महिला बैंक में नएपन के नाम पर कुछ नहीं है और यह इस देश की औरतों का भला नहीं करेगा। दलितों, पिछड़ों और मुसलिमों के साथ भी बैंकिंग सुविधाओं के मामले में भेदभाव होता है और इस बाबत ऋण वितरण जैसे कई पैमानों पर आंकड़े मौजूद हैं। तब सरकार क्यों नहीं दलितों, पिछड़ों और मुसलिमों के लिए अलग बैंक खोल रही है!

भारतीय महिला बैंक समाज के सोच में व्यापक संरचनात्मक बदलाव की मांग कर रही एक बेहद गंभीर समस्या को संकुचित दृष्टि से देखने की मिसाल भर है। बलात्कार से बचने के लिए घर में कैद रहने की सलाह और खास तरह की आचार संहिता जारी करने जैसे उपायों के बीच हम एक खास सोच की निशानदेही कर सकते हैं। बहरहाल, अमृता प्रीतम के कालजयी उपन्यास ‘पिंजर’ पर इसी नाम से बनी फिल्म के चरमोत्कर्ष के दृश्य में नायिका पुरो से दूसरी महिला किरदार लाजो कहती है कि बहन, इस मारकाट से सब हम पर ही अधिकार क्यों जमाना चाहते हैं। जवाब में पुरो कहती है, ‘क्योंकि हम खामोश हैं।’

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/55090-2013-11-21-06-08-28


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