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न्यूज क्लिपिंग्स् | स्मृति शेष : प्रकृति के पहरेदार का जाना

स्मृति शेष : प्रकृति के पहरेदार का जाना

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published Published on Dec 20, 2016   modified Modified on Dec 20, 2016
जाने-माने गांधीवादी और पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र अब हमारे बीच नहीं रहे. पर्यावरण के लिए वे तब से काम कर रहे हैं, जब देश में पर्यावरण का काेई विभाग नहीं खुला था. बगैर बजट के उन्होंने देश-दुनिया के पर्यावरण की जिस बारीकी से खोज-खबर ली, वह करोड़ों रुपये बजट वाले विभागों और परियोजनाओं के लिए संभव नहीं हो पाया है.

वर्ष 1948 में वर्धा में जन्मे अनुपम प्रख्यात साहित्यकार भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे थे, लेकिन संभवत: उन पर लिखे एकमात्र लेख में उन्होंने लिखा था कि पिता पर उनके बेटे-बेटी लिखें, यह उन्हें पसंद नहीं था. परवरिश की यह समझ उनके काम में भी दिखती है. इसलिए उनका परिचय अनुपम मिश्र था. दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद वर्ष 1969 में वे गांधी शांति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली से जुड़े और निरंतर काम में जुटे रहे. यहां उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना की और प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘गांधी मार्ग' का निरंतर संपादन करते रहे. तरुण भारत संघ के वे लंबे समय तक अध्यक्ष रहे. महत्वपूर्ण पर्यावरण संस्थान सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट की स्थापना में उनकी बड़ी भूमिका रही है.

नर्मदा बांध के खतरों के प्रति आगाह करनेवाली पहली आवाज अनुपम मिश्र की ही थी. देश-विदेश में पर्यावरण संरक्षण की अनेक परियोजनाएं उनकी स्थापनाओं से प्रेरित रही हैं. ‘आज भी खरे हैं तालाब', ‘राजस्थान की रजत बूंदें' और ‘हमारा पर्यावरण' जैसी चर्चित किताबें लिखनेवाले अनुपम मिश्र के व्यापक लेखन और संभाषण उनकी विरासत हैं, जो हमें बहुत कुछ सिखाती और बताती हैं तथा अपने पर्यावरण को संरक्षित रखने की ऊर्जा और प्रेरणा देती हैं. सादगी और विनम्रता से लबरेज अनुपम मिश्र की स्मृति को नमन ...

अशोक वाजपेयी
साहित्यकार

अनुपम मिश्र हमारे समय के बहुत ही अनुपम व्यक्ति थे- इस अर्थ में कि समुदाय के लिए बहुत साफ-सुथरा सोचने और लिखने वाला दिमाग रखते थे. उतना ही साफ-सुथरा गद्य लिखते थे और सामुदायिकता व सामुदायिक कार्रवाई में उनका अटल विश्वास था. उनके ही प्रयत्नों से हमको यह पता चला कि कैसे राजस्थान जैसे राज्य में समुदायों के बीच पानी बचाने के लिए उन्होंने लोगों में इस ओर दिलचस्पी पैदा की और उसकी प्रभावी इस्तेमाल सिखाया. वह भी एक ऐसे समय में, जब समूचे देश, खासकर उत्तर भारत में समाज हर चीज को सरकार पर थोप रहा है कि वही सारा काम करेगा. ऐसे में उनका यह याद दिलाना कि समाज के भी कुछ कर्तव्य होते हैं, अपनेआप में काफी बड़ा रेडिकल काम था.

मैं समझता हूं कि हममें से बहुत सारे लोग होंगे, जो उनको बहुत मिस करेंगे, क्योंकि मिश्र एक निराकांक्षी, सीधे और सरल व्यक्ति थे और ऐसी निराकांक्षा के रहते ऐसे कठिन समय में भी एक सार्थक जीवन जिया जा सकता है, इसकी वे मिसाल थे. न सिर्फ गांधी विचार के प्रेमी, बल्कि लेखक समुदाय, हिंदी भाषा प्रेमी और गांधी विचार के लोग भी उनको बहुत याद करेंगे.

सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया

आेम थानवी

वरिष्ठ पत्रकार

अनुपम भाई गांधी विचार की प्रतिमूर्ति थे. उनका जीवन सादगी, सिद्धांत और चरित्र का जीता-जागता रूप था. मेरा उनसे काफी पुराना दोस्ताना रहा है. करीब 35 वर्ष पहले एक अखबार में काम करते समय राजस्थान के पारंपरिक जल संचय के स्रोतों पर मुझे एक शोधवृत्ति उनसे मिली थी, जिस पर काम करने के दौरान उनके संपर्क हुआ. वे हमारे शहर बीकानेर आये थे.

वहां शुभू पटवा जी से उनका घनिष्ठ संबंध था. बाद में उन्होंने राजस्थान के पारंपरिक जल संचय स्रोतों पर दो शानदार किताबें लिखीं, जो अपनेआप में अब इतिहास हैं. उनकी भाषा, उनका पहनावा, उनका सोच, उनका जीवन सादगी का सबसे बड़ा प्रमाण माना जा सकता है. ‘गांधी मार्ग' पत्रिका का उन्होंने वर्षों-वर्ष संपादन किया. संपादन कला में भी वे माहिर थे. वे अच्छे छायाकार भी थे. पानी वाली किताबों के सिलसिले में उन्होंने तसवीरें खुद खीचीं और उन तसवीरों की स्लाइड्स भी वे समुदाय के बीच साझा करते थे.

सिद्धांतों से उन्होंने समझौता नहीं किया. कभी कोई वाहन नहीं खरीदा. कभी कोई मकान नहीं खरीदा. यहां तक कि वे मोबाइल भी नहीं रखते थे. चलते-फिरते गांधी को अब हमारे बीच में ढूंढना मुश्किल है. अनुपम जी थे, तो हमें लगता था कि गांधी विचार हमारे बीच में शिद्दत के साथ जिंदा हैं. अब इने-गिने लोग रह गये हैं, जो हमको यह ढाढ़स दे सकते हैं. अनुपम जी की याद खासकर इस संकट के दौर में, जब जीवन और संसार बाजार, भूमंडलीकरण और भौतिकवाद के बीच पूरी तरह से फंस चुका है, उनकी याद हमें शालती रहेगी.

पर्यावरण संबंधी कार्यों काे आगे बढ़ाना सच्ची श्रद्धांजलि होगी

अरविंद मोहन
वरिष्ठ पत्रकार

अनुपम जी का जाना देश, समाज और खास तौर पर पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा नुकसान है. 1970 - 80 के दशक के बाद से देश में पर्यावरण के प्रति जाे चेतना बनी है, उसमें जिन लाेगों ने सबसे बड़ी भूमिका निभायी है, उसमें अनुपम जी भी एक हैं. बल्कि कई काम उन्होंने शायद वक्त से पहले किये, जिसमें गांधी शांति प्रतिष्ठान के लिए एक पत्रिका निकालना रहा. हमारा पर्यावरण और देश का पर्यावरण नाम से उन्होंने जो दो-तीन रिपोर्ट बनायी, उसी ने सबसे पहले हिंदी में पर्यावरण के बारे में गंभीर लिखने-पढ़ने की शुरुआत की.

आजादी के बाद जितनी किताबें आयी हैं, उन सबमें ‘आज भी खरे हैं तालाब' और ‘राजस्थान की रजत बूंदें' अपनेआप में सबसे बड़ी कही जा सकती हैं. और यह किताब सिर्फ इस मामले में किताब नहीं है कि आप पढ़िये और आपको उसका विषय, उसकी भाषा अच्छी लगे. उस किताब ने अपनेअाप में एक आंदोलन शुरू कराया है. उसके बाद गुजरात से लेकर उत्तराखंड तक लोगों ने कई सौ पुराने तालाबों को साथ-सुथरा किया और उन्हें पुनर्जीवित किया. अनेक इलाकों में जल संचय की नयी प्रणाली हुई.

अनुपम जी न केवल किताब के माध्यम से, बल्कि खुद उन जगहों पर जाकर सभी कार्यों का जायजा भी लिया करते थे. उन्होंने कोई आंदोलन औपचारिक रूप से चलाया हो, उसका तो कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन पूरे मुल्क में आंदाेलन जारी रखने के लिए अपनी ओर से मदद करते रहे. अपने ज्ञान और संसाधनों व मेहनत से उन्हें जितना भी बन पड़ा, उन सभी आंदाेलनों के लिए करते रहे. सिर्फ एक किताब के माध्यम से ही नहीं, नियमित रूप से अपने काम-काज के जरिये, गांधी मार्ग के संपादन के माध्यम से और लिखने-पढ़ने की दुनिया में अपने हस्तक्षेप से वे पर्यावरण के सवाल को सबसे उपर रख कर काम करते रहे, उनके जाने से इन सभी कार्यों का अब बहुत नुकसान होगा.

गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़ी हम लोगों की गतिविधियां पिछले 35 वर्षों से अनुपम मिश्र के चलते ही था. अब उनके न होने पर ये गतिविधियां किस तरह का रंग-रूप लेंगी, यह कहना मुश्किल है. लेकिन, यह भरोसा रखा जा सकता है कि समाज की ही जिस चेतना को उन्होंने जीवंत किया, उसे नया रंग-रूप दिया, उससे ऐसे लोग तैयार हुए हैं, जो इस कार्य को आगे बढ़ायेंगे.

जिस तरह का सादा जीवन उनका था, वे अभी कुछ साल और जी सकते थे. हमें आशंका थी कि उनको दमा की बीमारी थी. अचानक पता लगा कि उन्हें कैंसर हो गया. हम सब जानते हैं कि कैंसर पर्यावरण से जुड़ी बीमारी है. इसमें बड़ा पहलू यह है कि पर्यावरण के प्रति चेतना जगानेवाले इनसान की जान कैंसर जैसी बीमारी से जाये, यह अपनेआप में एक बड़ा मुद्दा होना चाहिए. हमें पर्यावरण संबंधी कार्यों के प्रति और सचेत होना होगा. इस कार्य को हम जितना आगे बढ़ायेंगे, वह अनुपम जी को श्रद्धांजलि होगी.

बहुत अनुपम व्यक्ति थे अनुपम मिश्र

देश और दुनिया में वाटर हार्वेस्टिंग नामक विचार से पहले अनुपम जी ने हमें पानी का सम्मान करना सिखाया. पानी पर परंपरागत ज्ञान को एक नये और सामयिक रूप में हमें उपलब्ध कराया. अनुपम जी की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब' का जिक्र हिंदी साहित्य और हिंदी लेखन के इतिहास में हमेशा होगा, क्योंकि इसकी सामग्री बहुत ही सामयिक है. किसी को यदि हिंदी भाषा का प्रयोग करना सीखना हो, तो उन्हें अनुपम जी की इस पुस्तक को पढ़नी चाहिए.

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह शायद पहली वह पुस्तक है, जिसने लिख कर यह कहा कि इस पुस्तक का कोई कॉपीराइट नहीं है. ऐसा सोचने का साहस बहुत ही कम लोगों में था. अनुपम जी जैसा लिखते थे, वैसा ही जीवन जीते थे. लोगों के बीच वे अपने लिए कम-से-कम जगह रखते थे. कुल मिला कर अनुपम जी ने हमें पानी की मर्यादा सिखायी. हिंदी लिखने का सलीका सिखाया. सहज जीना सिखाया. बहुत ही अनुपम व्यक्ति थे अनुपम जी.

एक संस्थान थे अनुपम

अनुपम मिश्र एक संस्था की तरह थे. वे एक चलता-फिरता संस्थान थे. उस संस्थान में पहुंच कर आप अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं. पीढियों के गैप को उन्होंने कभी भी अहसास नहीं होने दिया.

यही कारण रहा है कि उनसे जुड़ने वालों में उनके साथियों के साथ ही नौजवानों की भी पूरी तादाद रही है. वह पर्यावरण के अलावा भी बहुत सारे विषयों पर बात करते थे और उनका समाधान भी सुझाते थे. गांधी शांति प्रतिष्ठान में बहुत सारे प्रोजेक्ट की फंडिंग विदशों से होती है, लेकिन उन्होंने कोई फंड विदशों से नहीं लिया. उनके जाने से पर्यावरण ही नहीं पूरे देश को अपूरणीय क्षति हुई है. जो भी लोग उनसे सलाह या सुझाव लिया करते थे उनके अंदर एक अंधेरा छा गया है.

पर्यावरण क्षेत्र में उनके योगदान को हमेशा याद किया जायेगा

पर्यावरण के प्रति गहरी आस्था और पर्यावरण के प्रति उनकी सोच हमेशा याद किया जायेगा. हमलोगों को यह भरोसा नहीं हो रहा है कि वह इतनी जल्दी हमलोगों को छोड़ कर चले गये हैं. पर्यावरण के प्रति उनकी सोच, निष्ठा और उनके समर्पण हमेशा याद किया जायेगा.
मौलिक व्यक्ति थे अनुपम

लिखने का अंंदाज, शैली और सोचने का तरीका अलग रहा है. अपने ढंग की क्रांतिकारिता अनुपम में रही है. वह मौलिक व्यक्ति थे. किसी के ढांचे में आप उन्हें नहीं बांध सकते थे.

भारत के गांव, भाषा, संस्कति के बारे में उनकी अलग सोच थी. आम आदमी की समस्याओं को वे बहुत ही नजदीक से अनुभव करते थे. उनका जैसा नाम था, वैसा ही जीवन था. वह बहुत ही सीधे थे़ उन्होंने मुझे एक छोटा सा पौधा दिया था, जो आज बहुत बड़ा हो गया है. कभी यह सोचा नहीं था कि वे इतने जल्दी हमलोगों के बीच से चले जायेंगे.

http://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/story/911646.html


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