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न्यूज क्लिपिंग्स् | स्वतंत्र-निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया में बाधक-- अनूप भटनागर

स्वतंत्र-निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया में बाधक-- अनूप भटनागर

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published Published on Apr 17, 2018   modified Modified on Apr 17, 2018
कठुआ सामूहिक बलात्कार और हत्याकांड तथा उन्नाव बलात्कार कांड को लेकर खबरों में सबसे आगे रहने की होड़ में पीड़िता की पहचान सार्वजनिक करने जैसे मुद्दे पर मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, को एक बार फिर अदालत की फटकार सुननी पड़ी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कई मीडिया घरानों को तलब भी कर लिया है।

बीते साल तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने आपराधिक मामले में संदिग्ध व्यक्तियों के मीडिया ट्रायल पर चिंता व्यक्त की थी। न्यायालय का मानना था कि पुलिस द्वारा मीडिया को जानकारी देने के बारे में दिशा-निर्देशों की जरूरत है क्योंकि मीडिया की खबरें कभी-कभी मुकदमे की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच को प्रभावित करती हैं। यही नहीं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर संदिग्ध को दिखाये जाने से उसकी प्रतिष्ठा हमेशा के लिये खत्म हो जाती है।

आखिर आपराधिक मामलों की रिपोर्टिंग करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने और संदिग्ध व्यक्तियों के अधिकारों को ध्यान में रखने के लिये न्यायालय के कई फैसलों और न्यायिक निर्देशों के बावजूद ऐसी घटनाओं को क्यों बार-बार अधिक से अधिक सनसनीखेज बनाने की कोशिश की जाती है? क्यों अपराध की जांच पूरी होने और आरोपियों पर मुकदमा चलने से पहले ही मीडिया उन्हें अपराधी घोषित करने का प्रयास करने लगता है?

क्या बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और ऐसे दूसरे अपराधों में तथ्यों की पुष्टि के बगैर ही उन्हें जनता के सामने लाकर समूची न्याय प्रशासन प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास तो नहीं किया जाता? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ग्राउंड जीरो से रिपोर्टिंग के मामलों में यह असंतुलन अक्सर देखा जा सकता है।

ऐसे सवालों पर मंथन के दौरान न्यायालय की उस टिप्पणी पर भी गौर करना चाहिए, जिसमें कहा गया था कि मीडिया ट्रायल का मुद्दा किसी भी आपराधिक मामले की निष्पक्ष जांच और मुकदमे की सुनवाई से ही नहीं बल्कि आरोपी को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार से भी जुड़ा है। बेहतर हो अगर ऐसी घटनाओं की खबरें देते समय संतुलन बनाये रखकर अदालत के आक्रोश से बचा जा सकता है।

मई, 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांड को मीडिया ट्रायल की उपज करार देकर मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये थे। इसकी वजह दलाली कांड के सारे आरोपियों का आरोप मुक्त हो जाना था।

पहले भी ऐसे कई मामलों में मीडिया पीड़ित की पहचान गुप्त रखने में विफल रहा है। संभव है कि स्थानीय स्तर राजनीतिक दल और कुछ नेता इसका राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास करते हों लेकिन इस तरह की रिपोर्टिंग देश में तनाव पैदा कर सकती है।

कभी-कभी आपराधिक मामले, विशेषकर यौन हिंसा से संबंधित प्रकरण में मीडिया की जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी या फिर इसे लेकर जन आन्दोलन कुछ हद तक कानून के विपरीत भूमिका में आ जाते हैं, जिससे न्याय प्रक्रिया प्रभावित होने की आंशका हो जाती है।

मीडिया ट्रायल को लेकर अदालतों और विशेषकर उच्चतम न्यायालय ने तीखी टिप्पणियों के बावजूद 2012 में लंबित मामलों की मीडिया में रिपोर्टिंग के संदर्भ में कोई भी दिशा-निर्देश तैयार करने से इनकार कर दिया था। सितंबर, 1997 में यौन उत्पीड़न के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने कुछ तल्ख टिप्पणियां करते हुए कहा था कि मुकदमे की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश को किसी भी दबाव से खुद को परे रखते हुए सख्ती से कानून के शासन से निर्देशित करना चाहिए।

इसी तरह, फरवरी 2005 में न्यायमूर्ति एन. संतोष हेगड़े और न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा की खंडपीठ ने अदालतों में लंबित मुकदमों के बारे में एकतरफा लेख और खबरें प्रकाशित किये जाने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए मीडिया को आगाह भी किया था। यही नहीं, सितंबर 2014 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर.एम. लोढा और न्यायमूर्ति रोहिंटन नरिमन की खंडपीठ ने तो यहां तक कहा था कि पुलिस और जांच एजेन्सियों को किसी भी आपराधिक मामले में गिरफ्तार आरोपी को मीडिया के सामने परेड कराने या ऐसे मामले की जांच और इसकी प्रगति की जानकारी प्रेस को देने से बाज आना चाहिए।

न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोपी के दर्ज बयान मीडिया को प्रकाशन और प्रसारण के लिए मिलने पर भी आपत्ति थी। न्यायालय को लगता है कि इस तरह से आपराधिक मुकदमे की अदालत में सुनवाई के साथ ही समानांतर मीडिया ट्रायल होता है।


http://dainiktribuneonline.com/2018/04/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7-%E0%A4%A8%E0%A5


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