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न्यूज क्लिपिंग्स् | हम किसे गरीब माने-- अवधेश कुमार

हम किसे गरीब माने-- अवधेश कुमार

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published Published on Oct 19, 2016   modified Modified on Oct 19, 2016

हमारे-आपके लिए कौन गरीब है इसे अपने आसपास पहचानना कठिन नहीं है। लेकिन जब सरकार की ओर से गरीबों की औपचारिक पहचान की बात आती है तो समस्या बढ़ जाती है। वास्तव में भारत में कौन गरीब है इसके निर्धारण का प्रश्न एक जटिल पहेली की तरह हमारे सामने लंबे समय से खड़ा है। गरीबी तय करने को लेकर समय-समय पर कुछ मानक निर्धारित किए गए और उनके आधार पर एक रेखा तय की गई जिसे गरीबी रेखा कहा जाता है। इसके अनुसार इस बात का आंकड़ा निकाला गया कि कितनी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। मगर कभी भी न संख्या पर आम सहमति रही न इसके लिए बनाए गए आधारों पर। इन मानकों और इनसे निकले आंकड़ों पर जितने विवाद हुए वे सब हमारे सामने हैं।


दरअसल, यह मांग लंबे समय से है कि गरीबी को मापने का एक ऐसा आधार बनाया जाना चाहिए जो सर्वमान्य हो। यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन। जो सूचना मिल रही है उसके मुताबिक नीति आयोग ने प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखा है कि इसके लिए नई समिति बनाई जाए। सरकार नीति आयोग के माध्यम से गरीबी मिटाने के लिए एक कार्य-योजना बनाने पर काम रही है। इसके लिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक कार्यबल गठित हो चुका है। इसी ने सरकार को एक पैनल गठित करने का सुझाव दिया है। इससे लगता है कि पिछले डेढ़ साल की कवायद में कार्यबल गरीबी के मानक को लेकर स्वयं किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल नहीं रहा है। यानी मानकों को लेकर सहमति नहीं बन सकी है। इसलिए उसने एक अलग पैनल का सुझाव दे दिया।


यही तथ्य यह साबित करता है कि आखिर काम कितना कठिन है। इसने अचानक तो ऐसा सुझाव दिया नहीं है। पहले के सारे मानकों और आंकड़ों का अध्ययन किया, उन पर आई प्रतिक्रियाओं की भी जांच-परख की, फिर सरकारी कार्यक्रमों का इनके साथ मिलान किया। इन सबके बाद जब कोई सर्वसम्मत सूत्र और आंकड़ा निकालना संभव नहीं हुआ तो लगा कि क्यों न इसके लिए एक अलग से पैनल बनवा दिया जाए। चलिए, इसके लिए एक अलग ही पैनल बन जाए और कोई सर्वसम्मत और व्यावहारिक मानक तय हो। कम से कम तत्काल तो हम इस पैनल का स्वागत करेंगे। आखिर गरीबों की पहचान का कोई तो सर्वसम्मत और व्यावहारिक मानक तय हो, जिससे हमें यह पता चले कि वास्तव में भारत में कितने लोग या परिवार ऐसे हैं जिन्हें गरीब कहा जा सकता है। नीति आयोग हर मामले में नए रुख के लिए जाना जाता है इसलिए उम्मीद कर सकते हैं कि इस मामले में भी उसकी सोच और दृष्टिकोण में नयापन होगा।


वास्तव में गरीबों की पहचान करने के लिए पिछले आधे दशक से ज्यादा समय से औपचारिक कोशिशें की जा रही हैं। 1979 में डॉ वाइके अलघ की अध्यक्षता में गठित कार्यबल ने शहरों में प्रतिदिन 2400 कैलोरी और गांवों में 2100 कैलोरी से कम भोजन करने वालों को गरीब माना। इसके अनुसार शहरों में 53.64 रु. और गांवों में 49.09 रु. प्रतिव्यक्ति प्रति माह खर्च को गरीबी रेखा माना गया। यानी इससे ज्यादा जो खर्च करते थे वे गरीब नहीं थे। इसके अनुसार गरीबों की संख्या कुल पैंतालीस प्रतिशत मानी गई। उस समय भी इसे लेकर अलग-अलग राय प्रकट की गई। लेकिन यही मान्यता लंबे समय तक चलती रही। कारण, कोई दूसरा इससे बेहतर आधार सामने नहीं आया। 1993 में डीटी लकड़ावाला के नेतृत्व में गठित कार्यबल ने इस मानक में कोई बदलाव नहीं किया।


ऐसा ही 2005 में सुरेश डी तेंदुलकर की अगुआई वाले कार्यबल ने किया। उसने लकड़ावाला के तरीके से 2004-05 में तैयार गरीबी रेखा को ही मूल्यों पर आधारित गरीबी रेखा में बदल दिया। इसमें गांवों में प्रतिदिन सत्ताईस रुपए और शहरों में तैंतीस रुपए से कम खर्च करने वालों को गरीब माना गया। 2012 में सी रंगराजन की अध्यक्षता में बने समूह ने गांवों में एक दिन में बत्तीस रुपए और शहरों में सैंतालीस रुपए खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना। यानी इससे कम खर्च करने वाले गरीब माने गए। सी. रंगराजन के इस आधार पर तब के विपक्ष यानी भाजपा ने काफी हंगामा मचाया और इसका मजाक भी उड़ाया। जाहिर है, जब आप सरकार में आए हैं तो आपकी जिम्मेवारी बनती है कि आप इसे परिवर्तित करें और ऐसा मानक लाएं जो उससे बेहतर हो तथा जिसे ज्यादातर लोग व्यावहारिक कह सकें।


चूंकि केंद्र व राज्य सरकारों की अनेक योजनाएं गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों के लिए हैं, इसलिए कोई समूह (पैनल) इसे ध्यान में रख कर गरीबी का पैमाना तय करता है। इसमें उनकी मानसिकता यह रहती है कि एक सीमा से ज्यादा संख्या न हो। तो सबसे पहले योजनाओं के लिए गरीबी रेखा के निर्धारण की सोच को बदलने की आवश्यकता है। हम पहले गरीब का निर्धारण करें, यह न सोचें कि उनके लिए क्या योजनाएं हैं और उन पर सरकारों को कितना खर्च करना पड़ेगा। वैसे भी कोई जरूरी नहीं कि जिसे हम गरीब मानें उसे ऐसी सभी योजनाओं का लाभ देना अपरिहार्य ही हो। गरीबों के कल्याण की योजनाएं आवश्यकता के अनुसार बनें तथा उनमें भी वर्गीकरण किया जाए कि किसे कौन-सी योजना की आवश्यकता है और किसे नहीं।

 

उदाहरण के लिए, एक किसान परिवार है जो इतना अनाज पैदा कर लेता है कि उसके परिवार का पेट भर जाए। लेकिन उसके पास नकदी आय बिल्कुल नहीं है। वह अपने बच्चों को न उचित शिक्षा दे सकता है न स्वास्थ्य सुविधाएं ही। उसे हम गरीब मानेंगे कि नहीं? वाकई व्यवहार में वह परिवार गरीब ही है। भले वर्तमान परिभाषा में उसे गरीबी रेखा के ऊपर माना गया हो। उसे गरीब मान लें तो भी हम उस परिवार को गरीबी रेखा के नीचे मिलने वाली खाद्यान्न की सुविधाएं देकर क्या लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? यह तो अंधेर नगरी चौपट राजा वाली व्यवस्था हो गई। कहने का तात्पर्य यह कि कौन गरीब है इसका निर्धारण करने के लिए सोच में आमूल बदलाव की जरूरत है। यह जो गरीबी रेखा है, समस्या इसी में है। वास्तव में केंद्रीकृत गरीबी रेखा का निर्धारण अपने आप मेंं समस्या है। हालांकि यह अंतरराष्ट्रीय शब्दावली है, लेकिन यह दोषपूर्ण है। ऐसा कैसे संभव है कि जो प्रतिदिन 47 रुपया खर्च कर सकता है वह तो गरीबी रेखा के नीचे नहीं है, लेकिन जो 46 रुपया 99 पैसा खर्च कर सकता है वह गरीबी रेखा के नीचे है। ऐसा मानक हास्यास्पद है। इसका परित्याग करना होगा। मोटा-मोटी तौर पर यदि मानक बनाएं तो कहना होगा कि जिस परिवार में पोषणयुक्त भोजन का अभाव हो, जिसके पास इतना धन नहीं कि आम वस्त्र परिवार के सदस्यों को उपलब्ध करा सके, समुचित शिक्षा दे सके, बीमार पड़ने पर उचित स्वास्थ्य सुविधाएं दे सके...। ऐसे परिवारों को हमें गरीबी की श्रेणी में रखना पड़ेगा। लेकिन इसके लिए गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों की खातिर जो कल्याणकारी योजनाएं हैं उनको भी बदलना होगा।

 

योजनाएं इस ढंग की हों कि जिसे जिस चीज की सबसे ज्यादा आवश्यकता है उसमें मदद मिल सके। भारत में गरीबों का निर्धारण करते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि तमाम बदलावों के बावजूद अब भी परिवार प्रथा बहुत हद तक जीवित है, जबकि गरीबी रेखा का निर्धारण व्यक्ति को इकाई मान कर किया जाता है। हमें परिवार को इकाई मानने की ओर बढ़ना होगा। यही भारतीय संदर्भ में यथेष्ट होगा। ऐसे परिवार हैं जहां कोई एक नया पैसा अर्जित न करता हो, लेकिन उसके परिवार में दूसरे अर्जन करने वाले हैं तो वह गरीब नहीं कहला सकता। हमारे यहां घर के बड़े-बुजुर्ग की जिम्मेवारी का भार परिवार पर रहा है। हालांकि इसमें गिरावट आई है और इसे भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। पर इसके आंकड़ों की तैयारी स्थानीय स्तरों पर ही हो सकती है। जो परिवार से परित्यक्त हैं, या जो बिना परिवार के हैं उनकी श्रेणी बनाई जा सकती है और उनकी आवश्यकता के अनुरूप योजनाओं के लाभ की संस्तुति हो सकती है।

 

सवाल है कि क्या सरकार इस दिशा में विचार कर रही है? अगर नहीं कर रही है तो उसे करना चाहिए। गरीबी को खत्म करने का यही सही रास्ता होगा। अगर हम मनुष्य को संसाधन मानते हैं तो कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जिसे हम पूरी तरह गरीब कह सकें। मसलन, कोई पूरी तरह स्वस्थ व हट्टा-कट्टा है तो कम से कम शरीर से गरीब नहीं है। वह मेहनत कर सकता है। उसे मेहनत का फल मिलना चाहिए। किसी ने कठिनाइयों के बावजूद पढ़ाई की है तो उसकी गरीबी केवल काम के अवसर न मिलने तक सीमित है। कोई अच्छा मिस्त्री है तो यह उसका हुनर है और इस दृष्टि से वह गरीब नहीं है, लेकिन अगर उसके हुनर के अनुरूप काम करने का अवसर नहीं मिला तो वह गरीब हो जाएगा। उम्मीद करनी चाहिए कि जो नया पैनल गठित होगा उसे नजरिया बदलने का सूत्र दिया जाएगा और वह इन सारे पहलुओं का ध्यान रख कर नए मानकों से गरीबों का निर्धारण करेगा। देखना होगा सरकार किन लोगों का पैनल बनाती है और वे नई दिशा में कितना सोच पाते हैं, कितनी कवायदें कर पाते हैं।


http://www.jansatta.com/politics/jansatta-opinion-on-poorness/167134/


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