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न्यूज क्लिपिंग्स् | हमारा समय, शिक्षा और भाषा-- परिचय दास

हमारा समय, शिक्षा और भाषा-- परिचय दास

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published Published on Sep 24, 2018   modified Modified on Sep 24, 2018
जिस देश में प्राथमिक शिक्षा ही सामान्य जन के लिए कठिन हो, वहां उच्च शिक्षा विशिष्ट मामला है. शिक्षा हमारे सर्वांगीण विकास का हेतु है. शिक्षा में ऐसी गुंजाइश होनी चाहिए कि व्यक्ति का सामाजिक व सांस्कृतिक जुड़ाव बेहद सक्रिय हो. वह समाज का टापू न लगे. यदि टापू भी हो तो सृजनशीलता का मन लिये हो, जिसमें कॉमन मैन भी बसा हो! मानविकी के विषयों में संवेदन, तर्कशक्ति, प्रेक्षण, विवेचन की क्षमता बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए. इनके बगैर ये महज सैद्धांतिक खामख्याली बन जायेंगे.

यदि इतिहास पढ़ते हुए हम अपने पुरखों से लेकर आज के समय का विश्लेषण नहीं कर सकते, तो इतिहास महज घटनाओं का संपुंजन है. यदि साहित्य से रससृष्टि, संवेदन तथा दृष्टिबोध संभव न हुआ, तो उसका क्या अर्थ है. समाज को भी चाहिए कि ऐसे विषयों के प्रति उदासीनता न बरते तथा कैरियर के साथ-साथ इन्हें भी समान महत्व दे, ताकि समाज व व्यक्ति के संबंध और सुदृढ़ हों और व्यक्ति का मानसिक विकास संभव हो.

विश्वविद्यालयों में अध्ययन के बाद भी भारी संख्या में युवा बेरोजगार हैं. कुछ को छोड़ दें, तो ज्यादातर विषयों का जीवन की वास्तविकताओं से लगाव कम ही होता है. इस तरह यह शिक्षा ज्यादातर एक ट्रेजडी ही रचती है. इसमें दो स्तरों पर बदलाव की जरूरत है. एक, एकेडमिक में नवाचार और दूसरा, विषयों को जीवन से जोड़कर आजीविका पक्ष की मजबूती. पाठ्यक्रम को समकाल का सहचर होना चाहिए तथा उसमें हमारे आंतरिक सौंदर्य को प्रतिबिंबित करने की क्षमता भी हो. पाठ्यक्रमों में समयानुकूल बदलाव आवश्यक है. इसके लिए विद्वानों, चिंतकों तथा विषय पर गहरी पकड़ रखनेवालों को जोड़े रखना चाहिए.

कुछ लोगों का मत है कि साहित्य के साथ अनुवाद व पत्रकारिता भी जोड़ दिये जाएं तथा तुलनात्मक अध्ययन संभव हो, तो उसे आजीविका का संबल बनाया जा सकता है. इस तरह समाजशास्त्र की एप्लाइड स्टडी फलदायी सिद्ध हो सकती है. इतिहास का समकालीन अध्ययन बेहद रोचक तथा रोजगारपरक हो सकता है. संस्कृति को सूचना प्रौद्योगिकी तथा मेडिकल से जोड़कर स्थानीय सर्वे के आधार पर नयी संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं.

उपर्युक्त बातों को कहीं सैद्धांतिक व अकादमिक अध्ययन की शिथिलता से न जोड़ा जाये. प्रयोजन सिर्फ यह है कि नये क्षितिज खोजकर संभावनाएं विकसित किये जाएं. विश्वविद्यालयों का प्रबंधन अकादमिक तथा प्रशासनिक पक्षों का मिला-जुला रूप है. सरकारी तंत्र के अलावा यदि विवि आत्मनिर्भर बनें, तो यह बड़ी उपलब्धि होगी, पर ध्यान रहे, उच्च शिक्षा को एलीट क्लास का विषय नहीं बनाया जा सकता. यह सामान्यजन के विरुद्ध है.

विश्वविद्यालयों का कार्य अकादमिक जगत में हस्तक्षेप करना है. विश्वविद्यालयों के बोझिल, दमघोंटू वातावरण का निस्तारण कर उसे सुरुचिपूर्ण, आह्लादक तथा विचार-प्रधान बनाना चाहिए. शिक्षकों व विद्यार्थियों की स्वायत्तता को बहुत सम्मान देना चाहिए, क्योंकि इसके बाद ही बड़ा कार्य संभव है. परिसर में बढ़ती हिंसा व दुर्व्यवहार के पीछे आत्मीय संबंधों के अभाव का मनोविज्ञान है. यदि यहां एक पारिवारिक वातावरण विकसित हो सके, तो अनेक अप्रिय प्रसंग घटित ही न हों.

विजनरी अध्यापकों को स्थान देना चाहिए. इस पर ध्यान न देना, शिक्षा को स्तरहीन बना देना है. विवि परिसर में शैक्षिक संस्कृति का विकास करना चाहिए, जो शिक्षकों तथा विद्यार्थियों को सर्वांगीण फलश्रुति दे. अपने समय को अलक्षित नहीं किया जा सकता. आधुनिकता की दौड़ में शाश्वत विचारों व साहित्य से वंचित होना उचित नहीं, उसी तरह धुर-पारंपरिकता से समकाल को पहचाना नहीं जा सकता.

विश्वविद्यालयों में विचारों की गहमागहमी व पारंपरिक संवाद बना रहना चाहिए. ज्ञान के नवीनतम क्षेत्रों के प्रति उत्सुकता ही किसी विवि को प्रासंगिक बनाये रख सकती है. विचारों की नवीनता, पारस्परिकता, कर्मठता, प्रयोगशीलता, दृष्टिगत खुलापन और आत्मीयता से उच्च शिक्षा ही नहीं, जीवन की चुनौतियों का भी सामना किया जा सकता है.

शिक्षा और मातृभाषा के संबंध पर विचार आवश्यक है. मातृभाषा अपने माता-पिता से प्राप्त भाषा है. उसमें जड़ें हैं, स्मृतियां हैं व बिंब भी. मातृभाषा एक भिन्न कोटि का सांस्कृतिक आचरण देती है, जो किसी अन्य भाषा के साथ शायद संभव नहीं. इसलिए शिक्षा में इसका महत्व है. संस्कृति का कार्य विश्व को महज बिंबों में व्यक्त करना नहीं, बल्कि उन बिंबों के जरिये संसार को नूतन दृष्टि से देखने का ढंग भी विकसित करना है. औपनिवेशिकता के दबावों ने ऐसी भाषा में दुनिया देखने के लिए विवश किया गया था, जो दूसरों की भाषा रही है.

उसमें हमारे सच्चे सपने नहीं आ सकते थे. साम्राज्यवाद सबसे पहले सांस्कृतिक धरातल पर आक्रमण करता है. वह हमारी ही भाषा को हीनतर बताता है. लोग अपनी मातृभाषा से कतराने लगते हैं और विश्व की दबंग भाषाओं के प्रभुत्व को महिमामंडित करने लगते हैं. गर्व से कहते हैं कि मेरे बच्चे को मातृभाषा नहीं आती. इस तरह शिक्षा का वर्गांतरण होता जाता है.

शिक्षा को समझने के कई सूत्र होते हैं. मातृभाषा उनमें सर्वोपरि है. उसमें अपनी कहावतें, लोककथाएं, कहानियां, पहेलियां, सूक्तियां होती हैं, जो सीधा हमारी स्मृति की धरती से जुड़ी होती हैं. उसमें किसान की शक्ति होती है. उसमें एक भिन्न बनावट होती है. एक विशिष्ट सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बनावट, जिसमें अस्मिता का रचाव होता है.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/primary-education-development-growth-higher-education-social-cultural/1207316.html


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