Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | हमारे लोकतंत्र का शीत सत्र-- मोहन गुरुस्वामी

हमारे लोकतंत्र का शीत सत्र-- मोहन गुरुस्वामी

Share this article Share this article
published Published on Dec 21, 2017   modified Modified on Dec 21, 2017

संसद का अत्यंत विलंबित शीत सत्र शुरू हो चुका है. इसमें मची चीख-पुकार के सिवाय, मेरी समझ से यह समाप्तप्राय है. ऐसे बहुत-से मुद्दे हैं, जिन पर चर्चा होनी ही चाहिए थी, मगर वह नहीं होगी जैसे, राफेल, प्रस्तावित वित्तीय संकल्प और जमा बीमा (एफआरडीआई) बिल, जीएसटी का क्रियान्वयन, नोटबंदी की सामाजिक एवं आर्थिक कीमतें, ग्रामीण संकट, आदिवासी अशांति, नेपाल की घटनाएं, मालदीव के साथ चीन का मुक्त व्यापार करार. यह साफ है कि चलन के मुताबिक, ये मुद्दे टीवी बहसों के हवाले कर शायद सड़कों पर निबटाये जायेंगे. संसद अब वह जगह नहीं रह गयी है, जहां लोकहित के अहम मुद्दों पर चर्चा कर निर्णय लिये जा सकें.

 

संसद के निष्प्रयोजन हो जाने की वजह से शासन का स्तर अचानक ही नीचे गिरा जा रहा है. शिक्षा तथा स्वास्थ्यचर्या दुर्दशा की शिकार है. स्थानीय शासन बिखर चुका है, जबकि सरकार के खर्चे जीडीपी के 8 प्रतिशत तक जा चढ़े हैं. हम एक ऐसी राह पर अग्रसर हैं, जो हमें चर्चा-विहीन लोकतंत्र के गंतव्य तक ले जा रही है. इस अभिशाप की भूमिका बहुत दिनों से तैयार होती रही थी और अब संसद राष्ट्र की अनेक समस्याओं पर चर्चा की बजाय नाटकबाजी का मंच बन गया है. ऐसा लगता है कि हमारा लोकतंत्र ही शीत सत्र में जा पहुंचा है.

 

लोकतंत्र सरकार की ऐसी प्रणाली है, जो समझौतों तथा सामंजस्य से चलती है. यही वजह है कि इसे एक समन्वयात्मक व्यवस्था का नाम दिया जाता है, जिसमें व्यक्तियों, समूहों, क्षेत्रों तथा राष्ट्रों की अनेकविध आकांक्षाओं को एक साझे हित की शक्ल देने की कोशिश की जाती है. 

 

इसी वजह से यह चर्चा तथा विमर्श की सरकार होती है, क्योंकि इसमें विकल्पों का चयन साझी सहमति एवं स्वीकार्यता से किया जाता है. संस्थागत व्यवस्था तथा सुसंगति लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली की अहम पूर्वशर्त है. दुर्भाग्य से हालिया अवधि में हम इस व्यवस्था का बिखराव ही देखते रहे हैं. 

 

हमारे देश की राजनीति अधिकाधिक विरोधात्मक होती गयी है और कोई भी चीज तब तक स्वीकार्य समझी जाती है, जब तक वह विरोधी का अनहित कर सकती हो. हम शतरंज के एक ऐसे खेल की कल्पना करें, जिसमें श्वेत एवं श्याम के दो पक्षों की बजाय लाल रंग का एक तीसरा पक्ष भी शामिल हो, जो सब एक त्रिपक्षीय बिसात पर खेल रहे हों. 

 

अब यदि इस खेल के नियम किसी भी दो पक्ष को एक खास अरसे तक साथ मिलकर तीसरे के विरुद्ध खेलने की अनुमति देते हों और वैसी स्थिति में ये तीनों पक्ष अपने लाभ के लिए उस खास अरसे बाद हमेशा साथी बदलते रहें, तो यह खेल अत्यंत जटिल हो जायेगा. जब अंत में एक पक्ष का काम तमाम हो चुका होगा, तो शेष दोनों पक्ष दायें-बायें देखे बगैर किसी एक की समाप्ति तक यह खेल जारी रखेंगे. भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में आसानी से तीन से भी ज्यादा रंग हो सकते हैं, पर अभी की स्थिति में हम तीन प्रमुख पक्षों की पहचान कर सकते हैं. 

 

ये हैं भाजपा, कांग्रेस तथा जनता दल के पूर्व घटकों के साथ क्षेत्रीय पार्टियां, जिन्हें सामूहिक रूप से तीसरे फ्रंट का नाम दिया जाता है. हमारी राजनीति का एक गैरसैद्धांतिक सियासी स्पर्धा में हुए अवमूल्यन ने संसद में चर्चा तथा विमर्श का अवसान कर दिया है. जानकारी की जोत फैलाने की बजाय अपने टीआरपी बढ़ाने पर केंद्रित समाचार चैनल तथा उनके खोखले ‘टॉक शो' ने यह प्रक्रिया और भी तेज कर डाली है. संसद अब भी बैठती है, बिल पारित करती और कानून बनाती है, पर इसका अधिकांश हिस्सा बगैर उस चर्चा तथा विमर्श के जाता है, जो जरूरी है और जनता जिसकी अपेक्षा रखती है. 

 

यहां तक कि बजट पर भी शायद ही कुछ खास बहस हो पाती है. रक्षा बजट पर बरसों से कोई अर्धगंभीर बहस भी नहीं हो सकी है. ज्यादातर वक्त संसद बगैर कोरम के ही चला करती है और अब तो परंपरा से ही कोरम की बात उठायी तक नहीं जाती. संसद ऐसे रंगमंच में तब्दील हो चुकी है, जिसमें विभिन्न सियासी पक्ष बाहर के विशाल दर्शक समुदाय के देखने को पैंतरेबाजी करते हैं. 

 

इस निष्क्रियता की जड़ तक जाने के लिए सियासी व्यक्तियों की क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं के परे जाना होगा. हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में गंभीर संस्थागत खोट हैं. हमारे यहां लोकसभा अध्यक्ष पद को ब्रिटिश अध्यक्ष की तर्ज पर बनाया गया है, जो अपनी पार्टी प्रतिबद्धताओं से मुक्त होकर हाउस ऑफ कॉमन्स के चलाने को पक्षमुक्तता की एक कड़ी रीति-नीति पर चला करता है, पर भारत में ऐसी परंपराओं के प्रति सम्मान न्यूनतम है. यहां लोकसभा अध्यक्ष पार्टी के प्रति वफादार बना हुआ उस सरकार के साथ घनिष्ठ तालमेल बनाये रखता है, जिसने पार्टी के सियासी एजेंडे को आगे बढ़ाने हेतु उसे इस पद पर बिठाया है. 

 

यही वजह है कि अपने प्रति सम्मान तथा संबोधन का प्रदर्शन पाते हुए भी लोकसभा अध्यक्ष में सभा को नियंत्रित कर पाने का प्रभाव नहीं होता. दूसरी ओर, अध्यक्ष की पार्टी प्रतिबद्धताओं की वजह से विपक्षी सदस्य प्रायः ही निरुपायता महसूस करते हैं.

 

शायद यही कारण है कि लोकसभा इतनी ज्यादा बार अव्यवस्था तथा स्वैच्छिक अवज्ञा का शिकार होती रहती है. संभवतः लोकसभा अध्यक्ष पद पर उसके ही एक सदस्य को आसीन करने की परिपाटी पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता आ गयी है. शायद संसद के अध्यक्ष पद पर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जैसा कोई प्रतिष्ठित तथा सर्वस्वीकार्य व्यक्ति अधिक उपयुक्त सिद्ध हो सके. संभवतः वह इस पद के लिए उपयुक्तता अथवा अनुपयुक्तता का अधिक प्रबुद्ध नजरिया रख इसे शक्ति के अलावा प्रभाव से भी मंडित कर सकेगा.

 

फिर दलबदल विरोधी अधिनियम की भी अपनी ही भूमिका है, जो पार्टी के आंतरिक विमर्श तथा असहमति की अभिव्यक्ति का मुंह बंद कर मुक्त-चर्चा को गंभीर रूपसे रोक देता है. यह विधेयक इस अनिवार्य वास्तविकता का अनादर करता है कि सांसद या विधायक जनता के प्रतिनिधि होते हैं. उनका एक सियासी पार्टी का सदस्य होना तो मात्र एक संबद्ध तथ्य होता है. 

 

उन्हें अपने निर्वाचकों का हितसाधन करना चाहिए, न कि मुट्ठीभर पार्टी नेताओं का. अधिकतर पार्टी नेतृत्व अब या तो परिवारों या कुलों में निहित हो चुका है, जहां नेतृत्व या तो आनुवंशिक है अथवा संविधानेतर. ऐसी स्थिति में हम किधर जाएं? और स्वयं इस बिंदु पर भी चर्चा कहां करें?
(अनुवाद: विजय नंदन)


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1101093.html
 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close