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न्यूज क्लिपिंग्स् | हवाओं के रुख को बताता मोदी का भाषण - के. बेनेडिक्‍ट

हवाओं के रुख को बताता मोदी का भाषण - के. बेनेडिक्‍ट

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published Published on Aug 18, 2015   modified Modified on Aug 18, 2015
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस बार का स्वतंत्रता दिवस का भाषण यूं तो हमेशा की तरह उनकी वक्तृत्व शैली और श्रोताओं से जुड़ने की उनकी क्षमता की ही एक और बानगी था, लेकिन इस बार का भाषण उनके कई समर्थकों को शायद इसलिए निराशाजनक लगा हो, क्योंकि उसमें पर्याप्त सामग्री नहीं थी। कइयों को उसमें महत्वपूर्ण बातों के बजाय दोहराव और पीआर संबंधी कवायद अधिक लगी। अलबत्ता उन्होंने इस अवसर का उपयोग अपनी सरकार के खिलाफ बन गई इस धारणा को गलत साबित करने के लिए किया कि वह 'सूट-बूट की सरकार" है यानी कॉर्पोरेटों के हितों में काम करती है और उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि उनकी सरकार समावेशी विकास में यकीन रखती है और गरीबों, किसानों, दलितों, आदिवासियों के लिए समर्पित है।

उनके भाषण का एक मकसद बिहार के मतदाताओं को एक संदेश देना भी था, जहां जल्द ही चुनाव होने जा रहे हैं। इसके बावजूद आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना 'मेक इन इंडिया" की प्रगति का कोई उल्लेख नहीं किया, जिसकी घोषणा उन्होंने पिछले साल 15 अगस्त को इसी मंच से की थी। रोजगार को बढ़ावा देने की दिशा में जरूरी बुनियादी ढांचा बनाए जाने पर केंद्रित यह कार्यक्रम मोदी सरकार की 'फ्लैगशिप" परियोजना माना जाता रहा है।

मोदी का यह भाषण किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दिया गया सबसे लंबा भाषण था, लेकिन इसके बावजूद जाने क्या वजह रही कि उन्होंने आतंकवाद, पाकिस्तान से रिश्तों और विदेश नीति के मामलों पर कुछ नहीं बोला। जिन दो मुद्दों ललितगेट और व्यापमं पर संसद का पूरा मानसून सत्र धुल गया, उन पर भी वे चुप रहे। भूमि अधिग्रहण बिल, जीएसटी बिल और आर्थिक सुधारों के मामले तक पर वे खामोश रहे। जिस वन रैंक वन पेंशन के मसले पर पूर्व सैन्य अधिकारी संघर्षरत हैं, उस पर भी अपनी ठोस सोच सामने रखने का सुनहरा अवसर उन्होंने गंवा दिया।

वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के स्वतंत्रता दिवस के भाषण का एक दिलचस्प पहलू यह था कि अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वे वर्ष 2019 में अपनी सरकार का कार्यकाल पूर्ण होने तक भी मतदाताओं से किए गए अपने वादों को पूरा नहीं कर पाएंगे। वे लगातार वर्ष 2022 का हवाला देते रहे, जब भारत अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे करेगा। वे इस समयसीमा तक देश को गरीबी-मुक्त और आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें पूरा समय दिए जाने का आग्रह करते रहे। दूसरे शब्दों में उन्होंने 'अच्छे दिन" लाने की अपनी डेडलाइन को खुद ही वर्ष 2019 से बढ़ाकर 2022 तक आगे बढ़ा दिया। उन्होंने कहा कि वर्ष 2022 तक देश में ऐसा कोई गरीब इंसान नहीं होना चाहिए, जिसके सिर पर कोई छत ना हो। कुल-मिलाकर उन्होंने अपने भाषण में आठ बार वर्ष 2022 का जिक्र किया। यह आश्चर्य की बात है कि वे संकेतों में अभी से ही 2019 में उन्हें फिर से प्रधानमंत्री चुने जाने का आग्रह करने लगे हैं, जबकि उनकी सरकार का अभी एक-चौथाई कार्यकाल ही पूरा हुआ है। यहां इस बात का उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि हाल ही में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी कहा था कि अच्छे दिन लाने में 25 साल लगेंगे, महज पांच सालों में यह संभव नहीं हो सकता। हालांकि बाद में पार्टी उनकी इस टिप्पणी से अपने को अलग करती नजर आती रही।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिए 'टीम इंडिया" का नया

मुहावरा भी दिया। यह एक आकर्षक जुमला हो सकता है, लेकिन अगर देश को भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, जातिवाद और अभावों से दुष्चक्र से मुक्त नहीं कराया जा सके तो इस तरह के अमूर्त कथनों का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

अलबत्ता प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार के मसले पर इतना जरूर कहा कि भ्रष्टाचार दीमक की तरह है। साथ ही उन्होंने देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का भी आग्रह किया। उन्होंने दोहराया कि वे भारत को भ्रष्टाचार-मुक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और उन्होंने यह भी कहा कि उनकी सरकार पर कोई एक पैसे के भ्रष्टाचार का भी आरोप नहीं लगा सकता। लेकिन अगर उन्होंने ललितगेट और व्यापमं मसले पर अपनी पार्टी के पक्ष को और स्पष्टता से सामने रखा होता तब उनकी इन बातों का ज्यादा वजन रहता। सांप्रदायिकता और जातिवाद पर उन्होंने जो बातें कहीं, उनके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। जातिवाद को उन्होंने जहर और सांप्रदायिकता को उन्माद बताया, जबकि अनेक लोगों का मानना है कि देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए सांप्रदायिकता जातिवाद से भी ज्यादा खतरनाक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उदारवादी बुद्धिजीवियों दोनों को ही एक साथ प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं?

हालांकि अपने भाषण के माध्यम से प्रधानमंत्री किसानों को जरूर लुभाने की कोशिश करते नजर आए। भूमि अधिग्रहण बिल पर कांग्रेस द्वारा सरकार के खिलाफ किए गए जोरदार प्रचार के चलते सरकार की 'किसान विरोधी" छवि निर्मित करने में विपक्ष कामयाब रहा है। संभवत: इसी धारणा को बदलने के लिए उन्होंने कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय करने की बात कही। साथ ही किसानों के लिए कुछ अन्य घोषणाएं भी की हैं। इसी तरह 'स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया" का उनका नया नारा भी युवाओं और नए उद्यमियों को लुभाने के लिए हो सकता है। साथ ही उन्होंने दलित और आदिवासी समुदाय को भी आकर्षित करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि देश के हर क्षेत्र में एक नया स्टार्टअप खोला जाना चाहिए और हर बैंक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी शाखाएं कम से कम एक दलित या आदिवासी उद्यमी को अपना नया कारोबार करने में मदद करें।

प्रधानमंत्री ने एक हजार दिनों के भीतर देश के 18500 गांवों को बिजली मुहैया कराने का भी वादा किया है, लेकिन आलोचकों को लगता है कि यह बात हवा में कही गई है। आलोचकों के अनुसार देश के हजारों गांव ग्रिड पर नहीं हैं, ऐसे में यह वादा पूरा कर पाना बेहद मुश्किल है। प्रधानमंत्री ने अपनी जन-धन योजना की सराहना करने के साथ ही कालेधन पर सख्त रुख अपनाने की भी बात कही। उन्होंने यह भी कहा कि कालेधन संबंधी कानूनों में छेड़खानी नहीं की जाएगी। ये बातें तो ठीक हैं, लेनिक इनसे कॉर्पोरेट घरानों के लोग नाराज हो सकते हैं। प्रतिष्ठित व्यवसायी राहुल बजाज पहले ही भारत की सख्त कानून प्रणाली की खुलेआम आलोचना कर चुके हैं।

कुल मिलाकर एक और 15 अगस्त आया और गया और देश ने एक और औपचारिक भाषण सुना। फर्क इतना ही है कि देशवासियों को मोदी से औपचारिक बातें सुनने की अपेक्षा नहीं रहती है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 


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