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न्यूज क्लिपिंग्स् | हानिकर है आधार की अनिवार्यता-- रीतिका खेड़ा

हानिकर है आधार की अनिवार्यता-- रीतिका खेड़ा

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published Published on May 12, 2017   modified Modified on May 12, 2017
पिछले तीन सप्ताह सुप्रीम कोर्ट में एक अत्यंत अहम मामले की सुनवाई के साक्षी रहे हैं. शुक्रवार, 21 अप्रैल को जस्टिस एके सीकरी तथा जस्टिस अशोक भूषण की खंडपीठ ने आयकर अधिनियम में किये गये नवीनतम संशोधन को चुनौती देनेवाली दो रिट याचिकाओं को सुना.


इस अधिनियम में धारा 139एए को जोड़ कर यह संशोधन आयकर रिटर्न दाखिल करते वक्त एवं स्थायी खाता संख्या (पैन) हासिल करने और उसे कायम रखने के लिए आधार/विशिष्ट पहचान (यूआइडी) का उल्लेख अनिवार्य बनाता है. इसके अलावा, यह भारत में किसी आयकर दाता के लिए आधार/यूआइडी हेतु अपना नामांकन न कराने को एक दंडनीय अपराध करार देता है. ये दो याचिकाएं सीपीआइ नेता बिनय विश्वम (जिनका प्रतिनिधित्व वरीय अधिवक्ता अरविंद दातार कर रहे हैं) और सुधीर वोमबटकेरे तथा बेजवाड़ा विल्सन (जिनका प्रतिनिधित्व वरीय अधिवक्ता श्याम दीवान कर रहे हैं) ने दायर की हैं.


यह मामला सिर्फ उनके लिए अहम नहीं है जो आयकर देते हैं और जिनके पास पैन कार्ड है, बल्कि ऐसा भारतीय लोकतंत्र के लिए भी है. 21 अप्रैल को दलीलों के दौरान जस्टिस सीकरी ने सरकार का प्रतिनिधित्व करते महान्यायवादी (एजी) से पूछा कि जब कोर्ट के ऐसे अंतरिम आदेश हैं, जो सरकार को इसकी अनुमति नहीं देते, तो वह कैसे किसी को आधार/यूआइडी के लिए बाध्य कर सकती है? स्मरणीय है कि वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश दिये थे कि आधार केवल छह कल्याण योजनाओं में ऐच्छिक रूप से ही प्रयुक्त किया जा सकता है.


एजी (अटॉर्नी जनरल) ने इस संशोधन के पक्ष में तीन दलीलें दीं: पहली, सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश आधार अधिनियम 2016 लागू होने के पूर्व दिये थे और वे आधार के संबंध में किसी कानून की गैरमौजूदगी पर आधारित थे.


अधिनियम लागू होने के बाद, ये आदेश प्रभावी नहीं रहे; दूसरी, 6 फरवरी, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने लोकनीति फाउंडेशन मामले में सिम कार्ड के सत्यापन हेतु आधार/यूआइडी के अनिवार्य उपयोग का समर्थन किया था और, तीसरी, 27 मार्च 2017 को अपनी मौखिक टिप्पणी में सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत किया था कि आधार/यूआइडी को कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने के लिए अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता, पर अन्य उद्देश्यों के लिए अनिवार्य करार दिया जा सकता है.


कोर्ट को जो कुछ बताने में एजी विफल रहे, वह यह था: पहला, सितंबर 2016 में आधार अधिनियम पारित होने के बाद भी, कोर्ट ने आधार के ऐच्छिक होने के विषय में अपने पूर्व आदेश को दोहराया था; दूसरा, लोकनीति मामले में, एजी ने कोर्ट को यह बताया था कि सरकार ने ‘मोबाइल कनेक्शन जारी करने के लिए 16 अगस्त 2016 को आधार आधारित इ-केवाइसी की शुरुआत की है,' और यह कि ‘एक नया टेलीफोन कनेक्शन हासिल करने के लिए वर्तमान में आधार कार्ड या बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण अनिवार्य नहीं है.'


उसके बाद दिया गया सुप्रीम कोर्ट का आदेश सिम कार्ड प्राप्त करने अथवा उसे इस्तेमाल करने के लिए आधार/यूआइडी को अनिवार्य बनाने की स्वीकार्यता अथवा वांछनीयता का समर्थन नहीं करता; और तीसरा, एजी ने सुप्रीम कोर्ट की जिस मौखिक टिप्पणी का संदर्भ दिया, वह वरीय अधिवक्ता दीवान के द्वारा ‘मेंशनिंग' के दौरान दी गयी थी.


पीठ द्वारा कोर्ट के पूर्व आदेश को समझने की कोशिश के दौरान पीठ एवं दीवान के बीच एक संक्षिप्त संवाद हुआ था, जिसमें मुख्य न्यायाधीश द्वारा इस विषय में की गयी कुछ टिप्पणियां शामिल थीं कि क्या 15 अक्तूबर, 2015 का आदेश संभवतः सामाजिक कल्याण एवं लाभ योजनाओं पर ही लागू होता है, या कि आयकर दाखिल करने जैसी अन्य गतिविधियों पर. प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआइ) समेत कई मीडिया संगठनों ने इस टिप्पणी की गलत रिपोर्ट की और उन्हें निर्णायक अवलोकन करार देते हुए न्यायिक आदेश के बराबर मान लिया, जो त्रुटिपूर्ण है.


कोर्ट में हुई उपर्युक्त चर्चा का यह निहितार्थ नहीं निकाला जा सकता कि कोर्ट ने आयकर रिटर्न दाखिल करने के लिए आधार को अनिवार्य करने की अनुमति दे दी. इसकी दो वजहें हैं: एक, यह सुनवाई की तिथि मुकर्रर करने के लिए की गयी ‘मेंशनिंग' थी और आधार-पैन की सहलग्नता (लिंकेज) को अनिवार्य करने जैसा आदेश बगैर सभी पक्षों को सुने नहीं दिया जा सकता; और दूसरा, 15 अक्तूबर, 2015 का आदेश पांच जजों की पीठ द्वारा दिया गया था, जिसे तीन जजों की पीठ संशोधित/पुनर्लिखित/लंघित नहीं कर सकती.


बीते 26 अप्रैल को अगली सुनवाई इस अधिक सारगर्भित मुद्दों पर हुई कि आयकर दाखिल करने के लिए आधार को, जो 12 अंकों की एक बायोमेट्रिक्स आधारित पहचान संख्या है, पैन से सहलग्न करना क्यों समस्याजनक है.


याचिका के पक्ष में दलीलें पेश करते समय अधिवक्ताओं ने तीन मुद्दे उठाये- पहला, यह सहलग्नता आखिर किस उद्देश्य से अनिवार्य की जा रही है और क्या यह उपचार समस्या के अनुपात में है; दूसरा, ऐसी कार्रवाई किस तरह हमारी निजता का उल्लंघन होगी; और तीसरा यह कि, कैसे यह पूरी परियोजना ही नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए एक खतरा है. जब हम दांव पर लगे इन वृहत्तर मुद्दों को समझेंगे, तभी यह महसूस कर पायेंगे कि आधार परियोजना के साथ आखिर क्या गलत है.


संक्षेप में, आधार को कल्याणकारिता बढ़ाने की परियोजना बताया गया था, मगर सामाजिक सुरक्षा पेंशनों, नरेगा या जनवितरण प्रणाली जैसी जिस किसी योजना के लिए आधार को अनिवार्य बनाया गया, इसने गरीबों के लिए काफी व्यवधान तथा मुश्किलें पैदा की हैं. कल्याण की बातें तो मूलतः एक निगरानीपरक परियोजना पर चढ़ाया गया मुलम्माभर है.
(अनुवाद: विजय नंदन)


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/986114.html


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