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न्यूज क्लिपिंग्स् | हाले-सितम बयान किए और रो पड़े

हाले-सितम बयान किए और रो पड़े

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published Published on Apr 21, 2010   modified Modified on Apr 21, 2010

सिलीगुड़ी [कार्यालय संवाददाता]। बात उन बच्चों की है, जो चाय बागानों से प्रधान नगर स्थित स्कूलों में लाए जा रहे। कई किलोमीटर का सफर और सवारी ट्रैक्टर से लगी डिब्बानुमा जालीदार ट्राली। यानि कि 'जेलगाड़ी'। इस आलम में मासूम बिलबिला रहे। ट्राली के भीतर न बैठने के लिए सीट है, न पकड़ने के लिए हत्था।

एक-दूसरे से धक्के खाते बच्चे भीतर गिरते-पड़ते स्कूल पहुंचते हैं। तब तक उनकी हालत मरियल हो चुकी होती है। जाली को पकड़े अंगुलियां कलम थामने से मुकरने लगती हैं। बेंच पर बैठकर पैर लटकाते हैं तो मारे दर्द के पढ़ाई में मन नहीं लगता। यह एक-दो नहीं उस 'जेलगाड़ी' से सफर करने वाले सारे बच्चों की दास्तां है। कक्षा दो की खूशबू, समर, धीमा तो लोगों को देखते ही फफक पड़ते हैं-'अंकल मुझे बचा लो, बहुत डर लगता है'। कमलेश, अभिनाश और रैनी कहते हैं कि तेज झटका लगने पर जब हम टै्रक्टर धीरे चलाने के लिए शोर मचाते हैं तब ड्राइवर हमारी आवाज को अनसुनी कर देता है। टै्रक्टर रुकवाने के लिए हमें जोर-जोर से जाली पीटनी पड़ती है। हमारे हाथ दु:ख जाते हैं। जाली पकड़े अंगुलियां लाल हो जाती है, दर्द करती हैं। स्कूल में कुछ लिखा नहीं जाता।

बच्चों के इस दर्द से उनके गरीब अभिभावकों का कलेजा छलनी हो रहा है, लेकिन वे बेबस हैं, साधनहीन। सुशीला गुमीच कहती हैं कि बच्चों की दुर्दशा देखी नहीं जाती, मगर मजबूरी है। बागान बाबू से कह-कह कर हम सभी थक चुके हैं। हम तो श्रमिक हैं जैसे कि गुलाम। अहोभाग्य, जो आपने हमारी तकलीफ समझी। मारकुरु टूटी कहते हैं कि मंगलवार की सुबह 'दैनिक जागरण' में 'नन्हीं जान और उफ! ये सितम' पढ़कर लगा कि किसी को हम आदिवासियों की भी चिंता है।

इसी प्रकार सरकार और प्रशासन भी नजर डाल दे तो हमारा कल्याण हो जाए। मारकुर बताते हैं कि उनका बच्चा सालने टूटी तो इस 'जेलगाड़ी' के डर से स्कूल जाना ही छोड़ दिया था। कर्ज-उधार लेकर साइकिल का बंदोबस्त किया तब कहीं वह स्कूल जा रहा।

खुशबू की मां विनीता बताती हैं कि उनके पति राजेन मुंडा ने इस मुद्दे पर अपने साथी श्रमिकों से बात की थी, लेकिन सभी की तकलीफ यही थी कि हम गरीबों की बात कौन सुनेगा! जब तक नेता हस्तक्षेप नहीं करेंगे, समस्या का समाधान नहीं होगा। भीमा मुंडा का कहना है कि साहेब लोगों से फरियाद करना बेकार है। उन्हें तो यह समस्या तभी नजर आएगी जब कोई बड़ा हादसा हो जाएगा। चौता मनकी मुंडा तो बच्चों के स्कूल से लौट आने तक चिंता में डूबे रहते हैं कि जाने रास्ते में क्या हो!

मुंशी मुंडा और एतवारी मुंडा का कहना है कि श्रमिकों के हित में संघर्ष करने के लिए चाय बागानों में इंटक और सीटू हैं। अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद को भी मजदूर यूनियन के लिए अनुमति मिल गई है। ये यूनियनें चाहें तो शायद हमारी दशा सुधरे। हमारे बच्चे सुरक्षित हो सकें।

बेचारे बच्चे। मजबूर, मासूम। न विद्रोह की भाषा जानते हैं, न विरोध का तरीका। फरियाद का ढंग भी उन्हें नहीं मालूम, नामालूम है उन्हें शिकायत का तरीका। वे सुना सकते हैं तो केवल आपबीती। टूटे-फूटे लफ्जों में बयां कर सकते हैं अपना दर्द, अपनी तकलीफ। इस 'जेलगाड़ी' में उनका दम घुटता है। खड़े-खड़े उनके नन्हें पांव थरथराने लगते हैं। जाली पकड़े अंगुलियां दर्द से टीस मारती हैं। बच्चे गिड़गिड़ा रहे हैं, हलकान हैं। कहते हैं कि अंकल, प्लीज कुछ करिए। हमें इस सांसत से उबारिए। बच्चों की दुर्दशा पर गार्जियन फोरम फिरंट है। वह इस कोताही को मानवाधिकार आयोग तक घसीटने का मन बना रहा है। जबकि, डिस्ट्रिक्ट लीगल फोरम ने इसकी नोटिस लेते हुए जुबिनाइल जस्टिस बोर्ड के प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट से लिखित शिकायत की है। आविप ने तो इस अनदेखी के खिलाफ आंदोलन छेड़ने का मन बना लिया है। मासूमों के हक में 'दैनिक जागरण' की मुहिम के साथ समाज की सुधि जगी है। शुक्र है कि आंख खुली। समर्थ बड़ों ने गरीब बच्चों की पीड़ा समझी। काश, लोग उनकी जरूरत भी समझते और सरकार इस हकीकत को समझती!


http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_6354476/


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