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न्यूज क्लिपिंग्स् | हाशिए पर भारतीय भाषाएं- अंजुम शर्मा

हाशिए पर भारतीय भाषाएं- अंजुम शर्मा

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published Published on Aug 1, 2014   modified Modified on Aug 1, 2014
जनसत्ता 29 जुलाई, 2014 : लोकतंत्र में अगर तंत्र की भाषा लोक से भिन्न हो जाए तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा सूचक नहीं है।

संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में भाषाई आधार पर भेदभाव के जो आरोप सामने आ रहे हैं उनसे अंगरेजी मानसिकता की वर्चस्ववादी नीति और भारतीय भाषाओं की दुर्दशा पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत पैदा हुई है। लोक की सेवा किस भाषा में की जाए अगर यह बताने के लिए इस देश के युवाओं को आमरण अनशन पर बैठना पड़े तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है! पिछले दिनों दिल्ली, इलाहाबाद, बनारस, गुवाहाटी, तमिलनाडु आदि राज्यों में छात्र जब अपनी भाषा में रोजगार के हक के लिए सड़कों पर प्रदर्शन करते नजर आए तो व्यापक बहस छिड़ी कि भारतीय संविधान में उल्लिखित भाषाओं की असल स्थिति आखिर है क्या? क्या प्रशासन की भाषा अंगरेजी होना अनिवार्य है? सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं की अनदेखी पर जिस तरह देश भर में प्रदर्शन हुए उसने अंगरेजी की अनिवार्यता से भारतीय भाषाओं पर उपजे संकट को चंद रोज में उजागर कर दिया।

डॉ दौलत सिंह कोठारी की सिफारिशों के आधार पर वर्ष 1979 में सिविल सेवा परीक्षा में अंगरेजी के साथ भारतीय भाषाओं में भी उत्तर देने की छूट दी गई थी। लेकिन 2011 से लागू नई परीक्षा पद्धति के बाद भारतीय भाषाएं अंगरेजी के वर्चस्व से हाशिये पर आ गर्इं। नई प्रणाली में प्रारंभिक परीक्षा के अंतर्गत एक परचा सामान्य अध्ययन और दूसरा परचा सिविल सर्विसेज एप्टिट्यूड टेस्ट यानी सीसैट का होता है। हिंदी माध्यम छात्रों के लिए यही दूसरा परचा परेशानी का सबब बना हुआ है। 2011 से पहले हिंदी सहित भारतीय भाषाओं में प्रारंभिक परीक्षा पास कर मुख्य परीक्षा में बैठने वाले छात्रों की संख्या जहां लगभग पचास प्रतिशत हुआ करती थी वहीं सीसैट आने के बाद घट कर मात्र पंद्रह से बीस प्रतिशत रह गई है।

अगर अंतिम चयनित अभ्यर्थियों की संख्या देखें तो 2011 से पूर्व अंतिम चयनित सूची में भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों की हिस्सेदारी पंद्रह से बीस फीसद हुआ करती थी जो अब दो से तीन प्रतिशत ही बची है। इस वर्ष के घोषित परिणामों में 1122 छात्रों में हिंदी माध्यम के केवल छब्बीस और अन्य भारतीय भाषाओं को मिला लिया जाए तो भी यह संख्या तिरपन तक ही पहुंचती है। अगर पिछले तीन वर्षों के परिणामों को तीनों चरणों में अलग-अलग देखा जाए तो भारतीय भाषाओं से आए उम्मीदवारों की चयन संख्या में अविश्वसनीय ह्रास देखने को मिलता है। ये आंकड़े प्रमाणित करते हैं कि नई परीक्षा पद्धति भारतीय भाषाओं पर भारी पड़ रही है।

अब आइए जरा इस नई प्रणाली के दूसरे परचे ‘सीसैट' पर नजर डालते हैं जिससे यह स्थिति और साफ हो जाएगी। इस दूसरे परचे में परिच्छेद यानी कॉम्प्रिहेंशन, निर्णयन क्षमता, समस्या समाधान, तर्क (रीजनिंग), गणित आदि के अस्सी सवाल होते हैं और प्रत्येक प्रश्न ढाई अंक का होता है। छात्रों की परेशानी मूल रूप से इस प्रश्नपत्र में पूछे जाने वाले गद्यांश के प्रश्नों से है जिनकी संख्या चालीस से अधिक होती है। इन चालीस-बयालीस प्रश्नों में आठ से नौ अंगरेजी के अनिवार्य प्रश्न हैं जिनका अंकभार बीस से बाईस होता है। वहीं गद्यांश के बाकी बचे प्रश्न मूल रूप से अंगरेजी में बनाए जाते हैं जिनका अनुवाद हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए किया जाता है। अगर यह अनुवाद सरल हिंदी में होता तो किसी को आपत्ति न होती लेकिन यह अनुवाद इतना जटिल और संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरा होता है कि इसे पढ़ना और समझना किसी अन्य लोक के प्राणी होने का आभास दिलाता है। नमूने के तौर पर यह प्रश्न देखिये-

‘संगठनात्मक प्रबंधन और प्रतिकार के माध्यम से कर्मचारियों द्वारा ऊपरिमुखी प्रभाव प्रयास के माध्यम से अनुसरण किए जा रहे मनोवैज्ञानिक संविदा की क्या प्रकृति होती है?'

दावे के साथ मैं कह सकता हूं कि हिंदी के विद्वान भी जब ऐसी अनूदित हिंदी पढेंगे तो कई बार पढ़ने पर भी इस अबूझ दुनिया को समझ सकेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं। फिर कैसे हिंदी माध्यम का छात्र दो घंटे के निश्चित समय में ऐसे ‘दिव्य' अनूदित गद्यांश पढ़ कर इन प्रश्नों संग अन्य प्रश्नों के भी उत्तर दे सकता है? चूंकि ये गद्यांश मूल रूप से अंगरेजी में होते हैं इसलिए किसी भी अंगरेजी भाषी छात्र के लिए इन्हें समझना आसान होता है। यहां तक कि उत्तर भी अंगरेजी प्रश्नों के अनुरूप ही जांचे जाते हैं। अब फर्ज कीजिए अगर हिंदी में अनुवाद गलत हो जाए और परीक्षार्थी उसी अनुवाद के अनुसार उत्तर दे तो न केवल उसका उत्तर गलत माना जाएगा बल्कि ऋणात्मक अंक कटौती भी होगी।

इतना बड़ा खेल गैर-अंगरेजी भाषियों के साथ ही क्यों? क्या यूपीएससी की नजर में अंगरेजी छोड़ किसी भाषा में ऐसा कुछ नहीं लिखा जाता जिसे मूल रूप से प्रश्नपत्र में शामिल किया जा सके? क्या भारतीय भाषाओं का अस्तित्व केवल अनुवाद पर टिका है? और अगर अनुवाद होता भी है तो इतना तकनीकी और ऊटपटांग अनुवाद क्यों जिसमें न्यूक्लीयर प्लांट को नाभिकीय पौधा लिखा जाए। आयोग की सुषुप्तावस्था का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि पिछले तीन साल से ऐसे अबूझ अनुवादों से लैस प्रश्नपत्रों में उसे कुछ गलत नजर नहीं आया।

दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु है अंगरेजी की अनिवार्यता। इस परचे के पाठ्यक्रम में कहा गया कि आठ से नौ प्रश्न यानी बीस से बाईस अंकों के प्रश्न दसवीं तक की अंगरेजी के होंगे। सवाल है कि यह कैसे तय होगा और क्या प्रमाण है कि दिया गया परिच्छेद दसवीं तक की अंगरेजी का ही है? और अगर है तो क्या अंगरेजी माध्यम के लिए यह बीस अंक मुफ्त में बांटने जैसा नहीं? वहीं ग्रामीण परिवेश का छात्र इन अंकों के लिए संघर्ष करता है। गैर-अंगरेजी भाषी छात्र इसके लिए संघर्ष करने को तैयार भी हैं लेकिन यह संघर्ष इकतरफा क्यों? क्या सिविल सेवक बनने के लिए केवल अंगरेजी भाषा का परिचय देना अनिवार्य है? क्यों हिंदी या अन्य किसी भारतीय भाषा की परिचयात्मक जांच अनिवार्य प्रश्नों के साथ नहीं की जाती?

छात्रों का विरोध अंगरेजी भाषा से कभी नहीं रहा। अगर ऐसा होता तो मुख्य परीक्षा में अंगरेजी के तीन सौ अंकों के अनिवार्य परचे को हटाने के लिए भी आंदोलन हुआ होता जिसमें अनुत्तीर्ण होने पर मुख्य परीक्षा की कॉपियों की जांच तक नहीं होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण इसका क्वालिफाइंग होना है और यह अनिवार्यता अंगरेजी, गैर-अंगरेजी सभी माध्यम के छात्रों के लिए है कि उन्हें अंगरेजी संग किसी एक भारतीय भाषा में क्वालीफाई करना होगा। प्रारंभिक परीक्षा में इसके विरोध का मुख्य आधार मेरिट में इसके अंक जुड़ना है, जो एक बड़ा अंतर पैदा करता है। और फिर अभ्यर्थियों को जब भाषा का परिचय मुख्य परीक्षा में देना ही है तो प्रारंभिक चरण में इसकी अनिवार्यता क्यों?

यह बड़ी आश्चर्यजनक स्थिति है कि संघ लोक सेवा आयोग जैसी संवैधानिक संस्था अपनी भाषाओं से समझौता करने को तैयार है। यह सही है कि वर्तमान दौर में अंगरेजी का ज्ञान होना आवश्यक है लेकिन यूपीएससी की वर्तमान प्रणाली कामचलाऊ जानकारी की जगह अंगरेजी में सिद्धहस्त होने की मांग पर जोर दे रही है जिससे भारतीय भाषाओं में रोजगार पाना कठिन हो चला है।

जिस देश के पिछड़े इलाकों के विद्यालयों में शिक्षक की योग्यता ही सवालों के घेरे में हो, जहां गरीब तबका अपने बच्चों को महंगी अंगरेजी शिक्षा दिला सकने में सक्षम नहीं है, वहां छात्रों से अंगरेजी की अनिवार्य मांग कैसे की जा सकती है?

यूपीएससी की ही निगवेकर समिति ने 2012 में इस बात को रेखांकित किया था कि यह नई परीक्षा प्रणाली ग्रामीण छात्रों के लिए उपयुक्त नहीं है। यह शहरी क्षेत्र के अंगरेजी माध्यम के छात्रों को फायदा पहुंचाती है। लेकिन इसके बावजूद आयोग ने इस प्रणाली की खामियों पर विचार नहीं किया। क्या प्रतिष्ठित सेवाओं के लिए ऐसा प्रारूप आवश्यक नहीं, जिसे अपने देश की शिक्षा प्रणाली को ध्यान में रख कर तैयार किया जाए? छात्रों की स्पष्ट मांग भी यही है। लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में अंगरेजी की अनिवार्यता को यह कह कर सही ठहराया जाता है कि अगर आपकी तैनाती गैर-हिंदी भाषी राज्य में होती है तब आप क्या करेंगे?

भाषा कोई आनुवंशिक या जैविक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक प्रक्रिया है। जब किसी दक्षिण भारतीय अधिकारी का तबादला हिंदीभाषी क्षेत्र में होता है तो कुछ ही समय में उसकी मित्रता हिंदी से हो जाती है और भाषा संग वह खेलने लगता है।

ठीक यही बात हिंदीभाषी व्यक्ति के दक्षिण जाने पर भी लागू होती है। फिर क्यों परीक्षा में अंगरेजी का खाका विशेष रूप से खींच दिया गया है कि उसका ज्ञान पहले से आवश्यक है।

दिल्ली के मुखर्जी नगर से उठे इस आंदोलन ने देश को यह सोचने पर बाध्य किया है कि अधिकारी की संवाद भाषा और लिखित भाषा क्या हो? कागज पर नोटिंग किस भाषा में हो यह उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना वंचित तबके से उसकी भाषा में संवाद स्थापित करना। क्या कलम की भाषा बोलचाल की भाषा से अलग होनी चाहिए या केवल नोटिंग की भाषा ज्यादा अहमियत रखती है? आयोग को अब इस पर विचार करना होगा। साथ ही भाषा और रोजगार का संबंध क्या हो यह भी एक बड़ा प्रश्न सामने आया है। क्या हमारी भाषाओं में इतना सामर्थ्य है या उन्हें इतनी ताकत सौंपी गई है कि उनमें अपना भविष्य सुरक्षित रखा जा सके?

कोई भी भाषा केवल अपने साहित्य के दम पर जिंदा नहीं रह सकती। यह जरूरी है कि ये भाषाएं साहित्य-संस्कृति के साथ-साथ रोजगार की भी भाषाएं बनें। सिविल सेवा अभ्यर्थियों का आक्रोश भले सीसैट को लेकर हो, लेकिन उनके विरोध ने जिस भाषाई संकट की ओर इशारा किया है उस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। सरकार को अब यह समझना होगा कि जो भाषा रोजगार की भाषा, तकनीक की भाषा, बाजार की भाषा नहीं बनेगी उसका मरना निश्चित है। फिर चाहे उसमें कितने ही महाकाव्य लिखे हों, कितनी ही पत्रिकाएं निकली हों, सरकारी विभाग बने हों, आप उसे भाषाई सप्ताह मना कर और जोहानिसबर्ग या मॉरीशस में सम्मेलन कराके बचा नहीं सकते।

 


http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=74653:2014-07-29-05-35-01&catid=20:2009-09-11-07-46-16


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