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न्यूज क्लिपिंग्स् | हाशिये का समाज और राज- हरिराम मीणा

हाशिये का समाज और राज- हरिराम मीणा

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published Published on Mar 11, 2013   modified Modified on Mar 11, 2013

जनसत्ता 11 मार्च, 2013: किसी भी राष्ट्र-समाज के उन घटकों के सम्मिलित समाज को हाशिये का समाज कहा गया है, जो अगुआ तबके की तुलना में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तर पर किन्हीं कारणों से पीछे रह गया है। इस सामान्यीकृत परिभाषा को विस्तार से समझने से पहले हाशिये शब्द पर थोड़ा विचार करना जरूरी है। किसी पृष्ठ में हस्तलेखन या टंकण करने से पूर्व शीर्ष पर और मुख्य रूप से बार्इं ओर कुछ जगह छोड़ी जाती रही है और इस जगह को हाशिया कहा जाता है। प्रश्न उठता है कि हाशिये का समाज, समग्र समाज के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है और उसे शीर्ष का समाज कहना चाहिए या एक ओर छोड़े गए हाशिये का समाज?


भारतीय राष्ट्र के संदर्भ में हाशिये के समाज में निस्संदेह आधी मानवता के रूप में महिलाएं होंगी। इससे इतर स्त्री-पुरुष को साथ-साथ देखता हुआ दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक-जन हाशिये के समाज में शामिल माने जाएंगे। स्त्री की दशा पुरुष की तुलना में कुल मिला कर दोयम दर्जे की रहती आई, भले मूल में मातृ-सत्तात्मक परिवार की वास्तविकता रही हो या भारतीय शास्त्रों में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ का कथन रहा हो। यह दशा प्रकारांतर में पुरुष-वर्चस्व के विकसित होते जाने के साथ पैदा हुई। पुरुष की तुलना में स्त्री की ऐसी दशा के अलावा जब सामाजिक घटकों के स्तर पर बात की जाएगी तो निश्चित रूप से एक बड़ी संख्या दलितों और आदिवासियों की होगी। यह समाज कैसे विकसित हुआ यह शोध का विषय अब भी है, लेकिन जो अध्ययन और इतिहास हमारे सामने है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आर्य-अनार्य संग्राम शृंखला के दौरान जो ज्ञात मूल-जन विजित कर लिए गए और दास, सेवक या शूद्र के रूप में जिनके साथ व्यवहार किया गया, वह आज का दलित समाज है जिसने मुख्य रूप से अछूत होने का दंश सहा।


जो जन-समूह विजेताओं की पकड़ से बाहर रहे, खदेड़ दिए गए या बच कर दूरदराज दुर्गम जंगलों और पहाड़ों में शरण लेने को विवश हुए, वे आज के आदिवासी कहे जा सकते हैं। दलितों के साथ अछूत जैसा व्यवहार एक समाजशास्त्रीय अवधारणा है, जबकि आदिवासी जन राजसत्ता के वर्चस्व से दूर दमन की प्रक्रिया से गुजरते हुए पृथक भौगोलिक क्षेत्रों में चले गए। उनके जीवन की दशा को राजनीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, चूंकि उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा और राजनीतिक प्रणाली शेष समाज से अलगरही। गणतंत्र की अवधारणा ऐसे ही आदिम समाजों में विकसित हुई थी, जो अब भी किसी न किसी रूप में देखी जा सकती है। पूर्वोत्तर के राज्य इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।


जहां तक अति पिछड़े अन्य वर्गों का सवाल है तो उन्हें हम अर्थशास्त्रीय अवधारणा से समझ सकते हैं। इन घटकों का प्रमुख संकट प्रभुवर्ग द्वारा श्रम का शोषण था। इन शोषितों में कृषक, शिल्पी और श्रम पर निर्भर अन्य मानव समुदाय आते हैं। हालांकि इस वर्ग ने सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर दोयम दर्जे का सलूक नहीं झेला, लेकिन आर्थिक दृष्टि से इसका शोषण होता रहा। इसलिए यह वर्ग भौतिक विकास के स्तर पर पीछे चला गया।


हाशिये के समाज में एक और महत्त्वपूर्ण घटक भी है जिसे हम अल्पसंख्यक वर्ग कहते हैं, जिसमें प्रमुख रूप से भारतीय हिंदू या गैर-हिंदू परंपरागत समाज के वे मानव समुदाय आते हैं जो स्वैच्छिक रूप से या दबाव में अन्य धर्मों को अपनाते रहे। इनमें प्रमुख रूप से मुसलिम, ईसाई और सिख शामिल हैं जिनका अधिसंख्यक दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों से ताल्लुक रखता है। यहां हम बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों को शामिल नहीं कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि ये दोनों ही धर्म जड़ होते जा रहे हिंदू धर्म के विरुद्ध धार्मिक क्रांतियों के रूप में सामने आते हैं और हाशिये के समाज से उस रूप में संबंध नहीं रखते जैसे कि यहां चर्चा की जा रही है, हालांकि यह भी अलग से गहन विश्लेषण का विषय हो सकता है।


उक्त विमर्श से यह स्पष्ट होता है कि दलित, दमित, शोषित और धर्म के स्तर पर अल्पसंख्यक घटकों का वृहद समाज हाशिये का समाज बनता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले समूहों ने हाशिये के समाज को उत्पीड़ित-शोषित किया और उसे हिकारत भरी नजर से देखा। फलस्वरूप यह वर्ग समाज के समग्र विकास की यात्रा में पीछे या हाशिये पर चला गया या उधर जाने के लिए विवश किया गया। वस्तुत: यह हाशिये का समाज ही राष्ट्र-समाज की सबसे बड़ी धारा है, जिसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका सभ्यता और संस्कृति के विकास में हुई और उत्पादन का कार्य भी इसी वर्ग द्वारा किया गया। इसलिए जब राष्ट्र-निर्माण में मानव संसाधन के अवदान पर चर्चा की जाएगी तो श्रमसन्नद्ध इसी हाशिये के समाज को केंद्र में रखा जाएगा, न कि वर्चस्वकारी पराश्रयी प्रभुवर्ग को।


अब वर्ग की अवधारणा हमारे सामने आती है और किसी भी राष्ट्र-समाज में अंतत: दो ही वर्ग उभर कर सामने आते हैं- एक, श्रमसम्मत व्यापक लोक, और दूसरा, वर्चस्वकारी कुलीन वर्ग। ठेठ आदिम अवस्था से वर्तमान तक इस वर्गीय अवधारणा को केंद्र में रख कर चीजों को समझने का प्रयास किया जाए तो व्यापक लोक बनाम वर्चस्वकारी वर्ग की ही तरह शारीरिक श्रम बनाम बौद्धिक श्रम का प्रत्यय हमारे सामने आता है। भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार पर यह सिद्ध हो जाता है कि किस तरह चालाक बुद्धिजीवी वर्ग ने शारीरिक श्रम की तुलना में बौद्धिक श्रम को अधिक तवज्जो दी और यह प्रस्थापित कर दिया कि बौद्धिक अवदान ही सभ्यता, संस्कृति और विकास की यात्रा के लिए प्रमुख है। इस प्रस्थापना के कारण श्रम पर आधारित वर्ग, बौद्धिक वर्ग की तुलना में, हेय दृष्टि से देखा जाने लगा।


यह सर्वविदित है कि किस तरह इस बौद्धिक वर्ग ने श्रम और बुद्धिबल की खाई पैदा करते हुए स्वयं का वर्चस्व कायम किया। इसी के साथ विराट पुरुष से वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा आगे बढ़ाई गई, जिसने मनुवाद को जन्म देते हुए अंतत: समानता, सामूहिकता, मातृ प्रधानता, सार्वजनिक संपत्ति और प्रकृति और मानवेतर प्राणी जगत से सहअस्तित्व के संबंध जैसे भारत के व्यापक लोक परंपरा के मौलिक गुणों को धीरे-धीरे तिलाजंलि दे दी और यही प्रक्रिया आज के बहुआयामी संकटों की जननी है। राज, धन और धर्म की सत्ताओं पर जो वर्ग काबिज रहा उसने शेष समाज को उपेक्षित रखने का षड्Þयंत्र रचा। यहां तक कि पुरुष वर्चस्व की परंपरा को सुदृढ़ करते हुए स्वयं के वर्ग के नारी समुदाय को भी दोयम दर्जे पर पटक दिया।


जिसे हम हाशिये का समाज कहते हैं उसका अधिकतर देश का मूल निवासी है, यहां की सभ्यता और संस्कृति का निर्माता है और इस राष्ट्र की भूमि का असली वारिस है। जो मानसिकता समानता, सामूहिकता, प्रकृति और मानवेतर प्राणियों के साथ सहअस्तित्व, श्रम की महत्ता आदि में विश्वास नहीं करती, वह राष्ट्रहित में नहीं है। वैश्वीकरण के दौर में विज्ञान और तकनीकी की उपलब्धियों पर भी एक चालाक वर्ग का कब्जा होता जा रहा है, जो बाजार की ताकत के आधार पर शासन प्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपने हित में इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है। यह ऐसा प्रभावशाली वर्ग है जिसका एकमात्र लक्ष्य अधिकाधिक भौतिक लाभ अर्जित करना है। इस वर्ग को राष्ट्र-समाज के सरोकारों से अधिक मतलब नहीं है। परंपरागत वर्चस्वकारी वर्ग अब हाइटेक पूंजीनायक वर्ग बनता जा रहा है।


बहुसंख्यक समाज की समस्याओं में कुछ समान हैं जिन्हें हम बहुआयामी शोषण, पहचान के संकट और अंतत: मानवाधिकारों के हनन के रूप में देख सकते हैं। विशिष्ट समस्या के तौर पर दलित वर्ग अब भी अस्पृश्यता का दंश झेल रहा है। आदिवासी समाज के लिए तो इस दौर में अस्तित्व का संकट सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। अति पिछड़ा वर्ग श्रम के शोषण से अब भी जूझ रहा है और अल्पसंख्यक वर्ग आए दिन सांप्रदायिक हिंसा और उत्पीड़न का शिकार होता है। कुल मिला कर, इन समान और विशिष्ट समस्याओं की जड़ में प्रभुवर्ग का वर्चस्व है, जिसमें विकास के लिए आवश्यक संसाधनों पर उसके कब्जे को निर्णायक तत्त्व के रूप में देखा जा सकता है।


मुक्ति का मार्ग एक ही है कि हाशिये के समाज (जिसे वास्तव में बहुसंख्यक समाज कहा जाना चाहिए) के विभिन्न घटक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर लामबंद हों। वे शिक्षा, जागृति और नेतृत्व विकसित करें और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपना सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें ताकि निर्णय उनके पक्ष में संभव हो सके और साथ ही वर्चस्वकारी वर्ग को यह अहसास हो कि परंपरा-दर-परंपरा उसकी चालाकियां समग्र मानव समाज के हित में नहीं हैं।


वैश्वीकरण के इस दौर में प्रभुवर्ग द्वारा स्वयं के हित में चलाए जा रहे अभियान को यह कह कर उचित ठहराया जाता है कि निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण आम आदमी के हित में हैं। मोबाइल फोन जैसी कुछ तकनीकें आम आदमी के हित में हो सकती हैं, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का असल मकसद है प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, बाजार पर नियंत्रण, अधिकाधिक मुनाफा, पूंजी और तकनीकी के बल पर अपना व्यावसायिक विस्तार आदि, जहां आम आदमी का हित गौण हो जाता है।


यह दावा किया जाता है कि वैश्वीकरण से रोजगार की संभावना बढ़ेगी, लोगों की माली हालत और आधारभूत सुविधाओं में बढ़ोतरी होगी। लेकिन वास्तव में रोजगार युवा वर्ग के उस हिस्से के लिए ही संभव हो पा रहा है जो तकनीकी दृष्टि से शिक्षित और अनुभवी है या कुशल श्रमिक के रूप में अपने श्रम से व्यवसायकर्ता को अधिकाधिक आर्थिक लाभ पहुंचा सकता है। ऐसा युवा वर्ग पैदा करने के लिए तकनीकी और अन्य विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाएं स्थापित की जा रही हैं, जो अधिकतर निजी क्षेत्र में हैं। ऐसी शिक्षा या सेवा के नाम पर स्वास्थ्य और अन्य जन-कल्याण के मद भी व्यवसाय-केंद्रित होकर रह जाते हैं।


इस प्रक्रिया में राज्य की कल्याणकारी भूमिका सिकुड़ती जाती है। राज्य के अधिकारों को अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए प्रभुवर्ग एक शक्तिशाली दबाव समूह के रूप में काम करने लगता है। वैश्वीकरण की यह समस्त प्रक्रिया सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों में अपना बहुआयामी वर्चस्व कायम करने का मार्ग प्रशस्त करती है। यह सब कुछ अंतत: उसी चालाक भद्रलोक के हित में होता है जिसने अधिसंख्यक जन को हाशिये पर धकेलने की साजिशें कीं। और यही वर्तमान पूंजी-केंद्रित इस देश का- धन, धर्म और सत्ता का- यथार्थ है, जहां राष्ट्र-समाज ‘इंडिया बनाम भारत’ में विभाजित नजर आता है!


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40609-2013-03-11-06-28-26


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