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बेरोजगारी के तस्वीर क्यों छुपा रहा है नीति आयोग?-- चंदन श्रीवास्तव

एक अर्थशास्त्री के रुप में आपने सरकार के किसी रुझान पर अंगुली उठाई हो, कहा हो कि सरकार के प्रवक्ता ऐसे रुझान से बाज आएं लेकिन एक प्रशासक के रुप में आप पर उसी रुझान से सोचने-बरतने की नैतिक जिम्मेवारी आन पड़े तो आप क्या करेंगे? सितंबर महीने में अर्थशास्त्री राजीव कुमार जब देश के आर्थिक विकास की नीति और कार्य-योजना तैयार करने की शीर्ष संस्था नीति आयोग के उपाध्यक्ष पद...

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धर्म, राजनीति और हिंसा-- रविभूषण

अस्सी के दशक के मध्य से 'धर्मगुरुओं' की संख्या जिस प्रकार बढ़ी है, उसने एक साथ कई प्रकार की चुनौतियां और समस्याएं खड़ी कर दी हैं. ये समस्याएं वस्तुत: कानून-व्यवस्था और प्रशासन से संबंधित हैं.       29 अप्रैल, 1948 को डेरा सच्चा सौदा की स्थापना एक सामाजिक संगठन के रूप में की गयी थी. सामाजिक संगठन हों या सांस्कृतिक संगठन, बाद में चलकर इन सबके कार्य-व्यापार और तौर-तरीके भिन्न हो गये. बलूचिस्तान...

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गैस सबसिडी के बगैर-- पीयूष द्ववेदी

लोकसभा में रसोई गैस कनेक्शनों की अनियमितताओं से संबंधित एक प्रश्न का उत्तर देते हुए पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने बताया कि बीते एक जून से सरकार रसोई गैस सिलेंडरों की कीमतों में प्रतिमाह चार रुपए की बढ़ोतरी का आदेश तेल कंपनियों को दे चुकी है। इस आदेश के पीछे सरकार की योजना 31 मार्च, 2018 तक रसोई गैस सिलेंडरों से सबसिडी को पूरी तरह से खत्म कर देने की...

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बैंकों से दिए जा रहे कर्जे में कमी के संकेत-- आर बी आई के नये आंकड़े

पिछले एक साल में देश में बैंक ऋण में बढ़वार कम हुई है. यह अर्थव्यवस्था के लिहाज से एक खराब संकेत हो सकता है.   बीते माह जारी रिजर्व बैंक के आंकड़ों और प्रेस विज्ञप्ति से पता चलता है कि 26 मई 2017 तक सकल बैंक ऋण की सालाना बढ़वार 3.5 फीसद रही जबकि 27 मई 2016 को बैंक ऋण की सालाना बढ़वार की दर 8.0 प्रतिशत थी.   गौरतलब है कि जीडीपी और जीवीए(ग्रास वैल्यू एडेड) के...

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महसूस क्यों नहीं हो रहे अच्छे दिन-- आर सुकुमार

इस समय भारत के आर्थिक माहौल के बारे में दो प्रतिस्पद्र्धी कहानियां हैं। दोनों की प्रकृति भले ही एक-दूसरे से अलग हो, लेकिन हैं दोनों सही। जेपी मॉरगन के मुख्य अर्थशास्त्री साजिद जेड चिनॉय की इन्हीं पंक्तियों के साथ आज मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। चिनॉय का यह लेख 19 जुलाई को मिंट में प्रकाशित हुआ था। शीर्षक था- इंडियन इकोनॉमी : अ टेल ऑफ टू नैरेटिव्स। जिन पाठकों...

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