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आखिर क्यों जल उठा बेंगलुरु-- आर सुकुमार

वह 2000 के दशक का शुरुआती वर्ष था। इंफोसिस लिमिटेड ने बेंगलुरु के इलेक्ट्रॉनिक्स सिटी के अपने कैंपस में एक शानदार विंग बनाई ही थी, तब मैं कंपनी के तत्कालीन चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति से मिलने गया था। हम जब कैंपस घूम रहे थे, और कारोबार व लोगों और लगभग हरेक इमारत के स्वागत कक्ष में रखे रंग-बिरंगे चमकीले छातों के बारे में बातें कर रहे थे, तब उन्होंने...

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आखिर क्यों पीछे रह जाते हैं मध्यप्रदेश के विद्यार्थी?

डॉ. जयंतीलाल भंडारी। हाल ही में नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) के नेशनल एचीवमेंट सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि मध्यप्रदेश के स्कूलों में विद्यार्थी हर विषय की पढ़ाई में राष्ट्रीय औसत से भी कमजोर हैं। सर्वे में यह भी कहा गया है कि प्रदेश में प्रायवेट स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों के बच्चे और अधिक कमजोर हैं। प्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता में कमी...

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मलेरिया मुक्त हुआ श्रीलंका, भारत के लिए अभी सपना

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने श्रीलंका को मलेरिया-मुक्त देश घोषित कर दिया है. मालदीव के बाद दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में श्रीलंका दूसरा ऐसा देश बन गया है. कुछ दशक पहले तक श्रीलंका की गिनती सर्वाधिक मलेरिया प्रभावित देशों में होती थी, लेकिन 1990 के दशक के आखिरी दौर में इससे समग्रता से निबटने के लिए मलेरिया-रोधी अभियान शुरू किया गया. नतीजतन वर्ष 1999 में जहां इसके 2,64,549 मामले पाये गये,...

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मलेरिया से लड़ रहे एक गांव की कहानी-- भरत डोगरा

पड़ोसी देश श्रीलंका को मलेरिया मुक्त बनने का प्रमाण-पत्र दिए जाने से हम प्रसन्न हो सकते हैं, लेकिन हमारे लिए मलेरिया से मुक्ति एक सपने की तरह ही है। खासकर मध्य भारत में और वहां भी विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में, जहां मलेरिया का प्रकोर बहुत ज्यादा है और जानलेवा भी। वहां फाल्सीपेरम मलेरिया की बड़े पैमाने पर उपस्थिति आदिवासी गांवों में एक बड़ी समस्या बनी हुई है। बाकी जगहों पर हालात...

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एंथ्रोपोसीन मतलब मानव युग -- बिभाष

वैज्ञानिकों के एक वर्ग का मत है कि आइस एज के बाद बारह हजार वर्षों का स्थिर जलवायु का दौर होलोसीन, जिसके दौरान मानव सभ्यताओं का विकास हुआ, अब समाप्त हो चुका है. इस दौर की समाप्ति का कारण है मानव जाति का धरती की जलवायु में जबरदस्त हस्तक्षेप. वैज्ञानिक नये दौर को एक नया नाम 'एंथ्रोपोसीन' देना चाहते हैं. द इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने तो वर्ष 2011 में ही...

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