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अमीरी रेखा की जरूरत- सुनील

जनसत्ता 12 दिसंबर, 2011 : कुछ माह पहले जब योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दिया कि शहरों में बत्तीस रु. और गांवों में छब्बीस रु. प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर माना जाएगा, तो देश के संभ्रांत पढ़े-लिखे लोगों में और मीडिया में खलबली मच गई। अहलूवालिया से लेकर जयराम रमेश तक को सफाई में बयान देने पडे। उन्होंने यह...

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जरूरी हैं छोटे राज्य- परंजय गुहाठाकुरता

उत्तर प्रदेश विधानसभा ने देश के सबसे बड़े राज्य को चार हिस्सों में बांटने का जो प्रस्ताव पारित किया है, वह एक अच्छा और स्वागतयोग्य कदम है। अमेरिका जैसा देश, जिसकी आबादी 30 करोड़ है, वहां 50 राज्य हैं। दूसरी ओर हमारे देश की आबादी अब 121 करोड़ के पार हो गई है, लेकिन हमारे यहां केवल 28 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश हैं। गौर करने वाली बात है...

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महंगाई के पीछे गलत नीतियां- सी पी राय

समूचा देश आज महंगाई की समस्या से परेशान है। लेकिन सारी महंगाई अंतरराष्ट्रीय कारणों से नहीं है, जैसा कि सरकारी पक्ष बताता आ रहा है। साफ है कि 120 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाला यह देश सेंसेक्स और कुछेक लोगों को समृद्ध करने वाली नीतियों से नहीं चल सकता। कुछ तो है, जिसे हमारे तथाकथित अर्थशास्त्री नहीं समझ पा रहे हैं या नहीं समझने का नाटक कर रहे हैं या...

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मजदूर को मजबूर बनाने की नीति- सुभाष चंद्र कुशवाहा

विगत कुछ महीनों से देश में मजदूर आंदोलन की सुगबुगाहट निजी सेवा के अमानवीयकरण की व्यथा-कथा उजागर करने के लिए पर्याप्त है। हुंडई, अशोक ली-लैंड और मारुति-सुजुकी के मजदूर आंदोलनों ने औद्योगिक नीति की खामियों और मजदूरों के शोषण को उजागर किया है। यह तब हो रहा है, जब वैश्वीकरण ने मजदूर चेतना को न केवल कुंद किया है, बल्कि तमाम मजदूर संगठनों को उत्पादक विरोधी बताते हुए हाशिये पर...

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जमीन से जुड़े जरूरी सवाल : हर्ष मंदर

स्वतंत्रता के इतने सालों के बाद भी लाखों देशवासी और उनके संघर्ष हमारी नजरों से ओझल हैं। भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के कारण लाखों लोगों ने अनगिनत कष्ट सहे, लेकिन उनकी तकलीफों की कहानी कभी भी पूरी तरह सामने नहीं आई। ‘विकास’ की कीमत किसानों और खेतिहर श्रमिकों की अनेक पीढ़ियों को चुकानी पड़ी है। उन्हें बलपूर्वक अपनी धरती से बेदखल करने का अर्थ है अपने सबसे निर्धन अन्न उत्पादकों को सताना, ताकि...

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