नवउदारवाद के निजामों ने पिछले ढाई दशकों के दौरान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के उदारवादी मूल्यों को चुनौती दी। बाजार के हाहाकार में सामंती मूल्यों को ही स्थापित करने की कोशिश की गई। स्त्रियों, दलितों सहित अन्य दमित वर्गों को समझाया गया कि बाजार सारी गैरबराबरी मिटा देगा। गुजरात का विकास मॉडल अभी बाजार में भुनाया ही जा रहा था कि कलक्टर साहब के दफ्तर के आगे और सड़कों पर...
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आंकड़ों में ही कम हो रही महंगाई - अनुराग चतुर्वेदी
बढ़ती महंगाई एक बार फिर चर्चा में है। वरना तो महंगाई का जिक्र चुनावी सभाओं या नीति आयोग जैसी संस्थाओं की गंभीर बैठकों में होता है। अर्थशास्त्री इसे मुद्रास्फीति से जोड़ते हैं तो किसान-दुकानदार 'मुनाफाखोरी" से। महंगाई पर चर्चा क्या सिर्फ आंकड़ों की कलाबाजी है या फिर यह हकीकत से भी जुड़ी है? सरकार का दावा है कि मुद्रास्फीति की दर दो अंकों से गिरकर एक अंक की हो गई...
More »ब्रेक्जिट से बढ़ी दुनिया की बेचैनी - महेंद्र वेद
ब्रिटेन के लोगों ने आखिरकार 'ब्रेक्जिट" (ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर होने) का विकल्प ही चुना। लेकिन क्या यह अजीब नहीं लगता कि एक ऐसा देश, जिसने कभी तकरीबन आधी दुनिया को अपना उपनिवेश बनाकर उसका शोषण करते हुए अपने साम्राज्य को समृद्ध व शक्तिशाली बनाया था, आज उसने कायरतापूर्ण ढंग से यूरोप से अलग होने का फैसला किया? क्या यह भी एक विडंबना नहीं है कि एक ऐसा...
More »काला या गोरा, धन तो आया-- अनिल रघुराज
कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. इसी तरह अपने यहां केंद्र सरकार की असली चाल-ढाल पहले दो-ढाई साल में ही दिख जाती है. बाद का आधा कार्यकाल तो अगले चुनावों का माहौल बनाने में चला जाता है. नरेंद्र मोदी सरकार के साथ तो यह भी दिक्कत है कि कार्यकाल के तीसरे साल में उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे अहम राज्यों के विधानसभा चुनाव होने...
More »कहां चले गये रोजगार?- डॉ भरत झुनझुनवाला
राज्यों में चल रहे चुनावों में भाजपा ने रोजगार के नाम पर वोट मांगे हैं. रोजगार सृजन के दो उपाय हैं. एक उपाय है कि बड़े उद्योगों पर टैक्स लगा कर छोटे उद्योगों को संरक्षण दिया जाये. छोटे उद्योगों में रोजगार ज्यादा उत्पन्न होते हैं. दूसरा उपाय है कि बड़े उद्योगों को पहले छोटे उद्योगों को नष्ट करने दिया जाये. इसके बाद मनरेगा जैसी योजनाओं से रोजगार उत्पन्न किया जाये....
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