सफल पेशेवर होने के लिए मेधा तथा ज्ञान के मेल की जरूरत होती है. मगर चिकित्सा, पुलिस और खासकर न्यायपालिका जैसे पेशों हेतु ‘सामाजिक संवेदनशीलता' नामक एक अतिरिक्त अर्हता आवश्यक है. संवेदनशीलता वस्तुतः एक ‘सामाजिक धारणा' है, जिसे कोई व्यक्ति सामाजिक संरचना में उस वर्ग तथा जाति की स्थिति के आधार पर हासिल करता है, जिसके साथ वह रहता आया है. न्यायिक फैसले लेने में इसकी इतनी जरूरत है कि...
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धर्म और जाति पर न हो वोट--- विश्वनाथ सचदेव
‘अभी रुग्ण है तेरे-मेरे जीने का विश्वास रे', इस पंक्ति में कवि ने जीने के विश्वास को परिभाषित करते हुए उन जनतांत्रिक मूल्यों-सिद्धांतों का हवाला दिया था, जिनके आधार पर हमने स्वतंत्रता पाने के बाद एक पंथ-निरपेक्ष, समतावादी राष्ट्र-समाज के निर्माण का संकल्प लिया था. यह त्रासदी ही है कि वैसा समाज, वैसी व्यवस्था आज भी एक सपना ही है. आज भी हमारा देश धर्मों, जातियों, वर्गों में बंटा हुआ...
More »मौन जुलूसों के नीचे धधकती आग-- प्रमोद मीणा
किसी के कंधे पर बंदूक रख कर निशाना लगाना क्या होता है, इसकी जीवंत बानगी मराठा आंदोलन है। लाखों की संख्या में मराठा महाराष्ट्र की सड़कों पर मौन जलूस निकाल रहे हैं। इसका तात्कालिक कारण बताया जा रहा है अहमदनगर जिले में एक चौदह वर्षीय मराठा लड़की का बलात्कार और हत्या। इस मामले में अभी तक पकड़े गए तीनों आरोपी दलित हैं। कू्ररता की शिकार इस बालिका को न्याय दिलाने...
More »जातीय संघर्ष के ज्वालामुखी--- सतीश पेडणेकर
इन दिनों महाराष्ट्र में जो हो रहा है वह अद्भुत है। महाराष्ट्र महारैलियों का प्रदेश बन गया है। राज्य के जिलों में भी मराठाओं की विशाल रैलियां निकल रही हैं, जिनमें लाखों लोग जुट रहे हैं। कुछ समय पहले तक कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि जिले-जिले में ऐसी महारैलियां निकल सकती हैं। ये महारैलियां इस बात की प्रतीक हैं कि राज्य की एक तिहाई आबादी वाली मराठा...
More »गोलवलकर की किताब के बहाने-- रामचंद्र गुहा
बेंगलुरु किताबों का शहर नहीं है। फिर भी यह मेरा शहर ही है, जहां से करीब 50 साल पहले एक किताब छपी थी, जिसे भारतीय समाज और राजनीति के हर विद्यार्थी को अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए। यह किताब थी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक एमएस गोलवलकर की बंच ऑफ थॉट्स, जिन्होंने संघ को न सिर्फ 30 वर्ष से ज्यादा वक्त तक नेतृत्व दिया, बल्कि आज भी संघ के लिए...
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