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तंग नज़रिये के प्रतीकों का पोषण-- एस निहाल सिंह

फिल्म पद्मावती को लेकर छिड़ा विवाद एक बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है। केंद्र में 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से अभिव्यक्ति की आजादी तथा अपने अंदाज़ में ज़िंदगी जीने के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। दूसरा, सार्वजनिक बातचीत में सतहीपन आ गया है, जबकि कांग्रेस के शासनकाल में ऐसा नहीं होता था। इसके कारण कहीं दूर तलाश करने की जरूरत नहीं। आरएसएस के...

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आंदोलनों की निरंतरता के दस्तावेज-- शतरुद्र प्रकाश

किसी भी दौर में सरकार की ताकत से लड़ना मजाक नहीं होता। लेकिन यह भी सच है कि सरकार और उसके विरोध के साथ ही लोकतंत्र का विकास हुआ है और भविष्य में भी होता रहेगा। इस वजह से सरकार की मुखालफत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 1971, 1975 और 1977 में थी। क्या वाकई पूरी दुनिया में ऐसी कोई शख्सियत थी, जिसने कानून की अदालत में और...

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संपत्ति में स्त्री के हिस्से की हकीकत-- प्रदीप श्रीवास्तव

महिलाओं को निजी संपत्ति में हिस्सा देने की बहस काफी पुरानी है। हमारे देश में स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही यह बहस तेज हो गई थी। ब्रिटिश राज और उससे आजादी के बाद समय-समय पर कानून बनाए गए हैं, जो महिलाओं को निजी संपत्ति का अधिकार तो देते हैं, लेकिन समाज में पुरुष प्रधान सोच के कारण कानून पंगु बना रहा। वर्तमान समय में फैक्टरी, कार्यालय, खेत या घर- हर...

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समता के पक्षधर दीनदयाल जी- रविभूषण

आज दीनदयाल उपाध्याय (25 सितंबर, 1916- 11 फरवरी, 1968) जन्मशती वर्ष का समापन दिवस है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों-चिंतकों में उनका स्थान सर्वप्रमुख है. 1937 में संघ में वे शामिल हुए थे. बाद में संयुक्त प्रचारक बने. 1952 में वे भारतीय जनसंघ में आये. एमएस गोलवलकर ने उन्हें 'सौ प्रतिशत स्वयंसेवक' कहा था. नरेंद्र मोदी ने उनके द्वारा 'खून से दल के सींचने' की बात कही है. 1967...

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गौरी लंकेश की हत्या किसने की?-- योगेन्द्र यादव

जबसे उनकी कायराना हत्या की खबर आयी, तबसे बार-बार यह सवाल पूछ रहा हूं. किसी मौत पर हमारी प्रातिक्रिया इस पर निर्भर करती है कि हम मृतक से कितना नजदीकी महसूस करते हैं. यह जरूरी नहीं कि हम मृतक को जानते हों. जिस सड़क से हम रोज गुजरते हैं, जिस ट्रेन से हम रोज सफर करते हैं, उस पर होनेवाले हादसे हमें गहराई से छूते हैं. 'इसकी जगह मैं हो...

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