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कश्मीर में मीडिया और इंटरनेट पर लगाए गए प्रतिबंधों से भारत की प्रेस स्वतंत्रता रैंकिंग गिरी, हालांकि स्कोर में हुआ सुधार

हाल ही में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (रिपोर्टर्स सेन्स फ्रंटियर्स - आरएसएफ) जोकि एक मीडिया वॉचडॉग संगठन है और अभिव्यक्ति व सूचना की स्वतंत्रता के लिए काम करता है, ने एक रिपोर्ट जारी की है. यह रिपोर्ट बताती है कि भारत में साल 2018 हुई छह पत्रकारों की हत्याओं से उल्ट साल 2019 में पत्रकारों की हत्या का एक भी मामला सामने नहीं आया. तब भी यह कहना गलत होगा कि...

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अमीरों-नेताओं के चुनावी बॉन्ड की छपाई और बैंक कमीशन का ख़र्च करदाता उठा रहा: आरटीआई

-द वायर,   देश के विभिन्न वर्गों द्वारा चुनावी बॉन्ड पर सवाल उठाए जाने और सुप्रीम कोर्ट में इसकी वैधता को चुनौती देने वाली याचिका लंबित होने के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार इसकी छपाई जारी रखे हुए है. आलम ये है कि अब तक में करीब 19,000 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड की छपाई हो चुकी है और कुल 13 चरणों में 6200 करोड़ रुपये से ज्यादा के चुनावी बॉन्ड की बिक्री...

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फसलों में टीबी की दवा का इस्तेमाल बंद करें: केंद्रीय संस्था

-डाउन टू अर्थ, सेंट्रल इंसेक्टिसाइड बोर्ड एंड रजिस्ट्रेशन कमेटी (केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति) के तहत रजिस्ट्रेशन कमेटी (आरसी) ने सिफारिश की है कि जहां जीवाणु (बैक्टेरियल) रोग नियंत्रण के लिए अन्य विकल्प मौजूद हो, वहां फसलों पर स्ट्रेप्टोमाइसिन और टेट्रासाइक्लिन जैसे एंटीबायोटिक्स का उपयोग तत्काल प्रभाव से और पूरी तरह से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। अंतिम रिपोर्ट में स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट (9 प्रतिशत) और टेट्रासाइक्लिन हाइड्रोक्लोराइड (1 प्रतिशत) के उत्पादन, बिक्री...

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मजदूरों का दर्द: 'किस भरोसे से गाँव वापस जाएं, दो महीने बाद खाली हाथ घर लौटने की हिम्मत नहीं बची है'

-गांव कनेक्शन, "किस भरोसे से गाँव वापस जाएं ? दो महीने बाद खाली हाथ घर लौटकर घर जाने की हिम्मत नहीं बची है। गाँव में कोई रोजगार नहीं है कि जाते ही काम मिल जाएगा। वहां करेंगे भी क्या जाकर ? यहां कम से कम ये तो उम्मीद है कि लॉकडाउन खुलने के बाद हो सकता है कुछ काम ही मिल जाए।" पुताई करने वाले राकेश कुमार (43 वर्ष) के इन शब्दों...

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महान दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति राष्ट्रवाद और धर्म को मनुष्यता के लिए खतरा क्यों मानते थे?

-सत्याग्रह, अंग्रेजी के मशहूर साहित्यकार टीएस इलियट ने भारतीय दार्शनिकों के बारे में कहा था, ‘महान भारतीय दार्शनिकों के सामने पश्चिम के दार्शनिक किसी स्कूल के बच्चों की मानिंद नज़र आते हैं.’ यह बात अगर बीती सदी पर लागू करें तो जिद्दू कृष्णमूर्ति बिलकुल इसी कड़ी का हिस्सा लगते हैं. हां, यह अलग बात है कि वे ‘राष्ट्रीय पहचान’ को नकारते थे! कृष्णमूर्ति ने जिस तरह स्थापित परंपराओं को किनारे कर...

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