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दमन का दंश-- मुकेश भारद्वाज

नवउदारवाद के निजामों ने पिछले ढाई दशकों के दौरान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के उदारवादी मूल्यों को चुनौती दी। बाजार के हाहाकार में सामंती मूल्यों को ही स्थापित करने की कोशिश की गई। स्त्रियों, दलितों सहित अन्य दमित वर्गों को समझाया गया कि बाजार सारी गैरबराबरी मिटा देगा। गुजरात का विकास मॉडल अभी बाजार में भुनाया ही जा रहा था कि कलक्टर साहब के दफ्तर के आगे और सड़कों पर...

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सामाजिक न्याय का अधूरा सपना-- प्रमोद मीणा

नौवें दशक के बाद से भारतीय राजनीति में दलित दलों और दलित नेताओं की स्वतंत्र पहचान बनी है और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी का सीधा मौका भी मिला है। पर अब इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है कि इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य को हम किस तरह देख सकते हैं। क्या इसे स्वातंत्र्योत्तर भारत में लोकतंत्र की एक महान उपलब्धि के रूप में...

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संस्थाओं की साख का सवाल-- जगमोहन सिंह राजपूत

शिक्षा एक ऐसी गतिशील प्रक्रिया है, जिसका निर्मल प्रवाह जीवनदायिनी धारा है। जिस समाज और सभ्यता में शिक्षा के इस महत्त्व को समझ लिया जाता है, उसकी प्रगति की राह के हर प्रकार के अवरोध दूर करने के ज्ञान और कौशल से युक्त व्यक्ति सदा आगे आ जाते हैं। आज शिक्षा की अवश्यकता किसी को भी समझानी नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि संविधान के निर्देशानुसार चौदह वर्ष...

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गांधी के बाद महानतम भारतीय- उदितराज

कुछ लोग अपने जीवन में प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, तो कुछ लोग मरणोपरांत। डॉ. भीमराव अंबेडकर अपने जीवन में बहुत ज्यादा प्रसिद्ध नहीं हो पाए, पर धीरे-धीरे उनका कद बढ़ता ही चला गया है। विगत दौर में महापुरुषों के अमर होने की अवधि भले बहुत लंबी रही हो, पर भविष्य में मूल्यांकन काम और विचार के आधार पर ही होने वाला है। संचार की दुनिया में क्रांति आने के...

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आदिवासियों, किसानों की जमीन बचाने से हो शुरुआत- सच्चिदानंद सिन्हा

बुजुर्ग समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा के लेख व भाषण हम समय-समय पर छापते रहते हैं, जिनमें वह बार-बार चिह्न्ति करते हैं कि पर्यावरण और प्रकृति के विनाश के लिए अगर कोई जिम्मेदार है, तो वो है औद्योगीकरण और उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था. और अगर इनसान नहीं चेता, तो इसी की वजह एक दिन वह खुद भी नष्ट हो जायेगा. एक और क्षेत्र उनकी चिंता में स्थायी रूप से रहता है कि अब...

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