जनसत्ता 23 मई, 2014 : इन चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया कि नरेंद्र मोदी अपने दल से बड़े हैं। वे मालवा की इस कहावत के चरितार्थ हैं कि‘दस हाथ की कंकड़ी में बीस हाथ का बीज’। उनके ऐसा ‘वैराट्य’ ग्रहण करते ही उनका दल छिलके की तरह नीचे गिर गया है। वे स्वयंसिद्ध सत्ता की उस धार में बदल चुके हैं, जिसे अब दल की पुरानी आडवाणी-अटल छाप म्यान...
More »SEARCH RESULT
दौलत के साथ ही बढ़ी गैर-बराबरी- सत्येंद्र रंजन
शायद यह अतिरंजना हो, लेकिन पश्चिमी मीडिया में थॉमस पिकेटी को नया कार्ल मार्क्स कहा गया है। ऐसा उनके प्रशंसकों ने तो संभवतः कम कहा है, लेकिन उन लोगों को उनमें मार्क्स की छाया ज्यादा नजर आई है, जो गैर-बराबरी का मुद्दा उठते ही खलबला जाते हैं। उनकी परेशानी का सबब यह है कि पिकेटी ने अपनी बहुचर्चित किताब 'कैपिटल इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' में आमदनी और धन की विषमता को...
More »राज्यों से बेहतर तालमेल जरूरी- नृपेन्द्र मिश्र
बस दो हफ्तों की बात और है, इसके बाद केंद्र में एक नई सरकार होगी, जिसे बेकाबू भ्रष्टाचार, धीमी विकास दर, बेरोजगारी, आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दामों और गहरी जड़ें जमा चुकी दोषपूर्ण मान्यताओं से उपजी राजनीतिक व्यवस्था जैसी विकराल चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। चुनावी सरगर्मियों पर नजर डालने से साफ पता चलता है कि ऐसे तीन मुद्दे हैं, जो औसत मतदाता की परेशानियों का सबब बनते हैं। इनमें सबसे...
More »मई दिवस की कहानी
मज़दूरों का त्योहार मई दिवस आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों के शानदार आन्दोलन से पैदा हुआ। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर सोलह-अठारह घण्टे तक खटते थे। कई देशों में काम के घण्टों का कोई नियम ही नहीं था। ”सूरज उगने से लेकर रात होने तक” मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे। दुनियाभर में अलग-अलग जगह इस माँग को लेकर आन्दोलन होते रहे थे। भारत में भी...
More »नमक के नए दारोगा- विकास नारायण राय
जनसत्ता 11 अप्रैल, 2014 : संसाधन घोटालों (कोयला, लोहा, गैस, तेल, रेत, जल, जंगल, जमीन) से बोझिल राजनीतिक वातावरण में, देश के शासन का ईमानदारी से संचालन, 2014 के चुनावी घोषणापत्रों की एक प्रमुख थीम है। तीस हजार करोड़ रुपए चुनाव में दांव पर लगाने वाले राजनीतिकों में होड़ है कि अगला ‘नमक का दारोगा’ कौन बनेगा! नमक जैसे सुलभ पदार्थ को औपनिवेशिक लूट का जरिया बनाए जाने की पृष्ठभूमि...
More »