भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था पर नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की राय सबसे जुदा होती है। इन दोनों में वह मानव विकास के मायने ढूंढ़ते हैं। नई सरकार की चुनौतियों व संभावनाओं और मौजूदा सरकार की उपलब्धियों तथा खामियों पर उनसे दैनिक हिन्दुस्तान के ललिता पणिकर और गौरव चौधरी ने विस्तृत बातचीत की। बातचीत के अंश- आर्थिक मंदी के बीच नई सरकार की क्या प्राथमिकताएं होनी चाहिए? कुछ लंबे समय के...
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दौलत के साथ ही बढ़ी गैर-बराबरी- सत्येंद्र रंजन
शायद यह अतिरंजना हो, लेकिन पश्चिमी मीडिया में थॉमस पिकेटी को नया कार्ल मार्क्स कहा गया है। ऐसा उनके प्रशंसकों ने तो संभवतः कम कहा है, लेकिन उन लोगों को उनमें मार्क्स की छाया ज्यादा नजर आई है, जो गैर-बराबरी का मुद्दा उठते ही खलबला जाते हैं। उनकी परेशानी का सबब यह है कि पिकेटी ने अपनी बहुचर्चित किताब 'कैपिटल इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' में आमदनी और धन की विषमता को...
More »बदलती राजनीति के संकेत- जगदीप एस छोकर
लोकसभा चुनाव ने कई तरह की उम्मीदें जगाई हैं, मगर हताशा भी कम नहीं है। मतदाताओं में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन पूरे चुनाव के दौरान लगा कि राजनीतिक पार्टियां अब भी बदलने को तैयार नहीं। अभी सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला आया है कि चुनाव आयोग के पास पेड न्यूज की वजह से चुनाव खर्च की जांच करने का अधिकार है। दरअसल विरोधी पार्टी की शिकायत पर चुनाव आयोग 2009 के...
More »राजनीतिक विमर्श और जन-स्वास्थ्य- नीकी नैनसी
जनसत्ता 9 मई, 2014 : सोलहवीं लोकसभा के चुनाव अपने आखिरी चरण में हैं, लेकिन अभी तक किसी पार्टी ने सामाजिक विकास को लेकर कोई ठोस बहस या तथ्य पर आधारित चर्चा करने की जरूरत नहीं समझी है। किसी भी पार्टी का घोषणापत्र उठा लें, एक बात पर सभी अपना दावा करते नजर आएंगे- आर्थिक और समेकित विकास। इन भारी-भरकम शब्दों के इस्तेमाल में आपको कोई कटौती नहीं मिलेगी, चाहे...
More »क्यों सुलगता है बोडोलैंड- संजय हजारिका
असम के बोडो क्षेत्रीय परिषद इलाके में हाल ही हुई हत्याओं और भय के माहौल की खबरें अखबारों के मुखपृष्ठ और टेलीविजन की हेडलाइंस से उसी तेजी से गायब हुईं, जिस तीव्रता से उन्होंने देश का ध्यान खींचा था। चुनावी गहमागहमी में ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। मगर लोग इससे परेशान थे कि मीडिया में इस घटना पर त्वरित टिप्पणियों की तो कमी नहीं थी, पर जिन जवाबों की उन्हें संजीदगी से...
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