मैं महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में कृषि कार्य करता हूं. वहां 1975 से आज तक मैं खेती कर रहा हूं. 1960 के बाद जो खेती में व्यवस्थाएं प्रारंभ हुईं, वहीं से मैंने शुरु आत की थी. अब तक मुझे कृषि विज्ञान दो स्वरूपों में दिखा है. जब मैंने खेती प्रारंभ की तो उस समय परावलंबन का विज्ञान था. उस वक्त मैंने रासायनिक खाद, जहरीली दवाईयां और बाहर से बीज लाकर खेती...
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नियमगिरि के हकदार- कमल नयन चौबे
जनसत्ता 2 अगस्त, 2013: नियमगिरि में खनन की इजाजत देने की बाबत सर्वोच्च न्यायालय ने अठारह अप्रैल को दिए अपने फैसले में ग्रामसभा की मंजूरी लेने का आदेश दिया था। इस फैसले और इसके बाद के घटनाक्रम ने जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय समुदायों के हक की लड़ाई के कई विरोधाभासों और उपलब्धियों को उजागर किया है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या करते हुए ओड़िशा...
More »वैश्वीकरण बनाम आदिवासी- हरिराम मीणा
जनसत्ता 29 जुलाई, 2013: भूमंडलीकरण का यह वह दौर चल रहा है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का फटाफट और अंधाधुंध दोहन कर लिया जाए, हो सकता है फिर ऐसा सुनहरा अवसर इन कंपनियों को मिले या न मिले। नई आर्थिक नीति की चरम परिणति जन-विरोधी वैश्वीकरण के रूप में अब सामने आ रही है। बहुराष्ट्रीय निगमों, उनको मॉडल मानने वाले देशी पूंजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट में लगे राजनीतिकों,...
More »महान लोकतंत्र की सौतेली संतानें- अतुल चौरसिया
नर्मदा और टिहरी की जो वर्तमान त्रासदी है उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला उससे आधी सदी पूर्व ही गुजर चुका है. लेकिन इसका दुर्भाग्य कि नर्मदा, टिहरी के मुकाबले विनाश के कई गुना ज्यादा करीब होने के बावजूद यह आज कहीं मुद्दा ही नहीं है. शायद इसलिए कि सोनभद्र के पास कोई मेधा पाटकर या सुंदरलाल बहुगुणा नहीं हैं. अतुल चौरसिया की रिपोर्ट. फोटो: शैलेंद्र पांडेय. सोनभद्र को देखकर पहली नजर...
More »लाह की खेती से बेड़ाडीह में आयी खुशहाली
रांची के नामकुम प्रखंड की हहाप पंचायत का घने जंगलों के बीच बसा बेड़ाडीह गांव के लोग पहाड़ी-पथरीली भूमि पर थोड़ी-बहुत खेती कर व कुछ वनोपज तैयार कर अपनी जीविका चलाते रहे हैं. अन्य वनोपज की तरह वे लाह का भी उत्पादन करते रहे हैं, लेकिन तकनीक व वैज्ञानिक सोच के अभाव में ग्रामीणों में इससे आर्थिक समृद्धि नहीं आयी. किसी तरह लोग अपना गुजर-बसर कर लेते थे. पर, नामकुम...
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