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जाति के समीकरण का टूटना- मनीषा प्रियम

गुरुवार को आए चुनावी नतीजे भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी अहम हैं। नरेंद्र मोदी, भाजपा और उनका राष्ट्रवाद अब केंद्र में एकछत्र शासन कर सकने की स्थिति में हैं। कांग्रेसवाद और क्षेत्रवाद, दोनों का एक साथ पतन हुआ है। बेशक कभी इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के लिए कहा जाता था कि वह ‘टीना' फैक्टर यानी ‘देअर इज नो अल्टरनेटिव टु इंदिरा गांधी' के कारण बार-बार जीतकर आती है,...

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कम नहीं चुनाव आयोग की शक्तियां- नवीन चावला

भारत में जाति पर बहस राजनीतिक परिणामों की एक निर्धारक है। यह वर्ष 2019 के आम चुनाव सहित भारत में तमाम चुनावों की एक रोचक विशिष्टता है। यह ऐसी निर्धारक है कि मतदाताओं के बीच अति लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चुनाव अभियान में अपनी जातिगत पहचान बतानी पड़ती है। उत्तर और केंद्रीय भारत की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को किसी जाति या बिरादरी विशेष के लिए पहचाना जाता है।...

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नारों के हिंडोले और हमारी हकीकत-- शशिशेखर

अपनी 72 साला आजादी में भारत ने कुलजमा 16 आम चुनाव देखे हैं। इसके बावजूद सवाल कायम है कि हमारा लोकतंत्र सही दिशा में बढ़ रहा है या नहीं? क्या वजह है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने विशाल आकार को अभी वांछित प्रकार से व्यवस्थित नहीं कर सका है? बताने की जरूरत नहीं कि आजादी के बाद पहला आम चुनाव 1951-52 में हुआ था। उस समय हिन्दुस्तान का...

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दलित विमर्श का हाशिए पर जाना-- बद्रीनारायण

स बार के संसदीय चुनाव में दलित विमर्श हाशिए पर जाता दिख रहा है। एक तो राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में दलित समाज को वंचित श्रेणी में रखकर महिलाओं और अन्य वंचित-शोषित समुदायों के साथ ही प्रस्तुत किया जा रहा है। लिखित और प्रकाशित घोषणापत्रों व प्रचार सामग्रियों में ‘दलित' शब्द की जगह ‘अनुसूचित जाति' और ‘वंचित' जैसे शब्द आने लगे हैं। दलितों के लिए भी अन्य के साथ कुछ...

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अनसुनी रह जाती है जिनकी आवाज-- बद्रीनारायण

जनतंत्र में कुछ आवाजें हैं, जो ज्यादा सुनाई देती हैं। महानगर और शहर के बड़े तबके की आवाज तो जनतांत्रिक विमर्श में सुनी ही जाती है, कस्बों, राजमार्गों और मुख्य सड़कों के किनारे के गांवों की आवाज भी कई बार इसमें दर्ज हो जाती है। लेकिन जो अंतरे-कोने में पडे़ हैं, जो नदियों के किनारे के गांव हैं, जो दियारे में बसे गांव हैं, जो पहाड़ों की तलहटियों में और...

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